अली बाबा और पचास मोर…

By: Mar 13th, 2024 12:05 am

मैं उनके काव्य संग्रहों के चौके छक्कों का घायल हूं। दो साल पहले वे पता नहीं कविता के आसमान में कहां से पुच्छल तारे की तरह अवतरित हुए औ फिर देखते ही देखते कविता के जगत में उन्होंने वह कहर बरपाया कि…वह कहर बरपाया कि…अब तो उनके काव्य संग्रह सौष्ठव को देख कबीर-तुलसी भी दांतों तले अंगूठा दबाने को विवश हैं। आह! हिंदी जगत में ऐसा कवि सदियों के बाद पैदा होता है जिसके नख शिख से कुछ झरता है तो बस काव्य संग्रह। मैं बापुरो! इधर एक कविता लिखने को भी महीनों लगा देता हूं। कविता होती है कि लाख जोर मारने के बाद भी पेट से बाहर आने से साफ मना कर देती है। कई बार तो वे मेरी कविता की पहली लाइन फाइनल होने से पहले ही पाठकों के मुंह पर ठा से काव्य संग्रह दे मारते हैं। तब मुझे लगता है कि उनकी कलम से कविताएं नहीं, संग्रह बरसते हों सचिन तेदुंलकर के बल्ले की तरह। दूसरे शब्दों में उन्हें आप कविता का सचिन भी कह सकते हैं। अबके ज्यों ही अपनी फेसबुक वाल पर उन्होंने एक बार फिर चकित कर देने वाली पोस्ट डाली कि इसी हफ्ते उनके एक साथ छह काव्य संग्रह एक साथ पाठकों से अधिक उनके समकालीन लेखकों के बीच तहलका मचाने आ रहे हैं तो मेरा कलेजा मेरे मुंह के बदले कहीं और को हो लिया। तब मैंने अपने कलेजे को समझाते कहा, ‘पगले! मुहावरे में कलेजा मुंह को आता है और एक तू है कि…’। पर तब मुझे लगा ज्यों उस वक्त मुहावरे को बदलने के मूड में हो वह जैसे। मेरा ही क्या! मेरे जैसे पता नहीं कितने लेखकों के साथ उनकी फेसबुक वाल पर मेरा जैसा पढ़ कर हुआ होगा! तब मैंने अपने आपको जी भर कोसा! क्या खाक लेखन करता है तू ! अपने को बड़ा वरिष्ठ कवि अपने आप ही कहता फिरता है। इसे लेखन कहता है तू! उन्हें देख! इसे कहते हैं लेखन!

उनकी कलम जब चलती है कविता नहीं लिखती। कविता संग्रह लिखती है। बच्चे! तू तो एक साथ पांच कविताएं हिंदी साहित्य को नहीं दे पाया और उधर अपने अलीबाबा हैं कि एक साथ छह छह कविता संग्रह हिंदी साहित्य को सौंप हिंदी साहित्य को समृद्ध किए जा रहे हैं। एक दो कविता संग्रह हिंदी साहित्य को देना वे उसी तरह अपना अपमान समझते हैं जैसे धांसू बल्लेबाज दौड़ कर एक दो रन बनाना अपना अपमान समझता है। अपने आप बंदा जो हो, सो हो, पर जो धड़ाधड़ अपने कविता संग्रहों के माध्यम से हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रहा हो, उस पर हिंदी साहित्य की सभी विधाओं का गर्व होना चाहिए। कल पता नहीं क्यों अपनी साहित्यिक शर्म को छिपाता मैं उनसे मिलने उनकी साहित्यिक फैक्टरी में जा पहुंचा। उस वक्त वे अपने अगले काव्य संग्रह की भूमिका घिस पिट रहे थे। जाते ही मैंने उनके साहित्यिक पांव पकड़े, ‘हे साहित्य केसरी! तुम धन्य हो। अनुज तुम्हारा चेला होना चाहता है।’ तब वे मुझसे अपने साहित्यिक पांव और भी जोर से पकड़ाते उन्हें छुड़वाने का नाटक करते बोले, ‘उठो वत्स! लिखने वाला मैं कौन होता हूं? सब मां सरस्वती की कृपा है। साहित्य में उनकी कृपा के बिना चुटकुला भी नहीं लिखा जा सकता।’ ‘हे साहित्य के देदीप्यमान धमकेतू! आखिर आप इतने कविता संग्रह एक साथ कैसे निकाल लेते हो? हो सके तो अर्जुन की जिज्ञासा शांत करो’।

मेरे प्रश्न को सुन वे मुझे घूरे! फिर इधर उधर देखने के बाद सहज हो बोले, ‘किसी को कुछ बताओगे तो नहीं?’ ‘नहीं!’ मैंने मुर्गा बन उनके दोनों कान पकड़ते कहा। ‘तो सुनो वत्स! बहुत आसान है। अगले हफ्ते चार और कविता संग्रह पाठकों को दे रहा हूं’। सुनते ही मेरा दिमाग चक्कराने लगा और दिल की धडक़न कम होने लगी तो उन्होंने मुझे जीवनदान देते अपने मुंह से मेरे मुंह में अपनी हवा डालते मेरे पाइरेटिड फेफड़ों में साहित्यिक हवा भरते कहा, ‘मेरे पास सौ कविताएं हैं।’ ‘पर मेरे पास तो सवा सौ हैं गुरुदेव! फिर भी प्रकाशक कहता है बीस और लिखो तो काव्य संग्रह दिखने लायक लगे।’ ‘बस, दिल पर हाथ रख हर बार अगली कविता के शीर्षक से नया काव्य संग्रह निकाल देता हूं।’ ‘मतलब?’ ‘मतलब ये कि अभी मेरे पास पचास और कविता संग्रहों के शीर्षक हैं। पांच सात इस बीच और काट पीट ही लूंगा। तो कुल मिलाकर…मैं चाहूं तो अभी मैं पचास पचपन कविता संग्रह और निकालने का हकदार हूं।’ ‘तो अब तक आपके कितने कविता संग्रह निकल चुके हैं?’ ‘पचास! और पचास कविता संग्रहों के शीर्षक अभी मेरी जेब में हैं।’ उन्होंने मुझे आशीर्वाद स्वरूप मेरे सिर पर अपने चमत्कारी साहित्यिक पेन से कुछ लिखा और फिर मुस्कुराते हुए साहित्यिक कुकर्म में लीन हो गए।

अशोक गौतम

ashokgautam001@Ugmail.com


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