औसत भारत बेरोजगार है

By: Mar 29th, 2024 12:05 am

भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन का मानना है कि सरकार बेरोजगारी जैसी सभी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। जब बेरोजगारी की बात उठती है, तो समाधान की तुलना में अंदाजा लगाना आसान होता है। वह अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और मानव विकास संस्थान की ‘भारत रोजगार रपट 2024’ को पेश किए जाने के अवसर पर बोल रहे थे। यदि बेरोजगारी सरकार का कोई सरोकार नहीं है, तो देश के जीडीपी के आंकड़े और आर्थिक विकास दर कैसे तय की जाती है। क्या जीडीपी भारत के हवा-पानी का ही कोई संकलन है? जीडीपी देश के नागरिकों के रोजगार, उनके संसाधन और अंशदान के आधार पर ही आकार लेता है। बेशक हमारी अर्थव्यवस्था की विकास-दर निरंतर जारी है। फरवरी, 2024 में जो डाटा सामने आया है, उसके मुताबिक, जीडीपी की विकास-दर 2023-24 में 7.6 फीसदी रहेगी। यह पहले के अनुमान 7.3 फीसदी से अधिक है। भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की बैठक में यह आकलन किया गया है कि 2024-25 में विकास-दर 7 फीसदी रह सकती है। हमारी विकास-दर दुनिया के सभी बड़े देशों की तुलना में सर्वाधिक है, लिहाजा आम भारतीय का गदगद होना स्वाभाविक है। हालांकि औसत भारतीय आज तक इसका विश्लेषण नहीं कर पाया है कि विकास-दर से उसकी प्रत्यक्ष आय में कितनी बढ़ोतरी होती है।

आर्थिक बढ़ोतरी के बावजूद चिंताएं श्रम बाजार, श्रम बल, उत्पादक रोजगार आदि को लेकर ज्यादा हैं। आईएलओ की रपट के मुताबिक, भारत देश के कुल बेरोजगारों में शिक्षित युवाओं की हिस्सेदारी 2000 में 54.2 फीसदी से बढक़र 2022 में 65.7 फीसदी हो गई है। जो रोजगार बढ़ा है, उसके दो-तिहाई में स्वरोजगार वाले कामगार हैं। कृषि में भी बेरोजगारी बढ़ी है। मैन्यूफैक्चरिंग में भी रोजगार की हिस्सेदारी स्थिर रही है। संकेत चिंताजनक हैं, जिन पर गंभीर मंथन किया जाना चाहिए। आईएलओ रपट में भारत में कुल 83 फीसदी बेरोजगारी बताई गई है, तो यह क्या है? मुख्य आर्थिक सलाहकार जरा देश को समझाएं कि क्या 83 फीसदी देश बेरोजगार है? दरअसल भारत के विकास का केंद्रीय मुद्दा यह रहा है कि अधिक से अधिक नौकरियां पैदा की जाएं। बेशक यह अकेले सरकारी क्षेत्र में संभव नहीं है, लेकिन निजी क्षेत्र की भी शिकायत रही है कि उन्हें हुनरमंद कामगार ही नहीं मिल पा रहे हैं, जबकि कंपनियों में रिक्तियां हैं। नौकरियां या रोजगार के अवसर पैदा करना ही बहुत बड़ी चुनौती है। स्वरोजगार में भी दिहाड़ीदार भी शामिल हैं। रपट बताती है कि श्रम बाजार में औसतन हर साल 70-80 लाख नए कामगार प्रवेश करते हैं। हालांकि युवा बेरोजगारी में 2019 में 17.5 फीसदी से 2022 में 12.1 फीसदी की कमी आई है, लेकिन यह बेरोजगारी शहरी इलाकों के पढ़े-लिखे युवाओं में अधिक है। यदि इस वर्ग को देश के जनसंख्याई लाभांश में तबदील करना है, तो ज्यादा से ज्यादा, हर किस्म के, रोजगार पैदा करने होंगे।

उद्योग और सेवा-क्षेत्र में हुनरमंद रोजगार बढ़ा है, लेकिन यह देश के श्रम बाजार की जरूरतों के विपरीत है। विडंबना यह भी है कि यदि नौकरी निकले चपरासी की, जिसके लिए शैक्षिक पात्रता 5वीं पास मांगी जाए, लेकिन 3700 पीएचडी धारक बेरोजगार भी आवेदन कर दें, तो यही कहा जा सकता है कि शैक्षिक डिग्रियां भी नौकरी की गारंटी नहीं हैं। यह हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए गंभीर चुनौती है। देश की कामकाजी उम्र की आबादी करीब 63 फीसदी है। फिलहाल यह स्थिर है। यह जनसंख्या की ऐसी खिडक़ी है, जिसके जरिए अर्थव्यवस्था को नाटकीय रूप से बदला जा सकता है और नौकरियां ही नंबर एक सामाजिक और आर्थिक मुद्दा हैं। पता नहीं, हमारे देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार किस विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र पढ़ कर इस पद तक पहुंचे हैं? हमारे युवा, जो फिलहाल रोजगार, शिक्षा और प्रशिक्षण में नहीं हैं, उनकी हिस्सेदारी 29.2 फीसदी है। यह दक्षिण एशिया में सर्वाधिक है। बीते एक दशक के दौरान वेतनभोगियों अथवा स्वरोजगारों की औसत आमदनी या घटी है अथवा यथावत रही है। आम चुनाव का दौर है, लिहाजा सभी राजनीतिक दलों को बेरोजगारी के मुद्दे पर ईमानदारी से सोचना चाहिए।


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