सामाजिक क्रांति के प्रतीक थे भगत सिंह

By: Mar 23rd, 2024 12:05 am

जिस लाहौर सेंट्रल जेल में भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को फांसी दी गई थी, वह पूरी तरह ज़मींदोज़ हो चुकी है। उसके सामने एक मस्जिद का निर्माण हो चुका है। भगत सिंह की शहादत की धरोहर को भावी पीढिय़ों के लिए संरक्षित कर उसे संग्रहालय का रूप देने की ओर पाकिस्तान के रहबरों की संवेदनहीनता बनी रही…

करीब एक सदी के बाद भी भगत सिंह व उनके साथियों की शहादत अगर करोड़ों भारतवासियों के लिए प्रेरणादायक बनी हुई है तो यह इस बात का साक्षी है कि सर्वहारा के शोषण, उत्पीडऩ, अत्याचार के विरुद्ध न्यायप्रिय आवाज़ें हर युग, हर दौर में मुखर रहेंगी। बीसवीं सदी में महात्मा गांधी के अलावा जिस शख़्स ने देश व दुनिया भर में अपने विचारों व शहादत से बेशुमार जनमानस के हृदय को आंदोलित किया, उसके शीर्ष पर केवल एक नाम व उसके साथी सुशोभित हैं। यानी भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव। प्राय: गांधी को अहिंसा का पुजारी और भगत सिंह को हिंसा या आतंक से आज़ादी हासिल करने का प्रतीक माना जाता है। छोटी आयु में ही भगत सिंह कार्ल माक्र्स, लेनिन, मैक्सिम गोर्की व अन्य अनेक लेखकों के विचारों से अभिप्रेरित हुए थे। वे पूंजीपतियों व संसाधनों पर कब्जा जमाए अमीरजादों और मजदूरों, किसानों के मध्य बनी रहने वाले खाई को पाटना चाहते थे। 200 साल पहले कार्ल माक्र्स ने यही स्वप्न देखा था। आज़ाद भारत के नक्शे पर भगत सिंह मजदूरों व आम आदमी के जिस सम्मान, स्वाभिमान व आर्थिक रूप से समाज में उनके कल्याण व उत्थान का सपना देख रहे थे, वह साकार होने की बज़ाय ध्वस्त हुआ है। पूंजी और संसाधनों का गरीब तबके पर नियंत्रण यथावत बना हुआ है। क्रांति का अर्थ खूनी लड़ाई नहीं है। बम या पिस्तौल का प्रयोग एकमात्र उद्देश्य नहीं है। क्रांति का मूल उद्देश्य उस अन्याय को समूल्य नष्ट करना है जिसकी बुनियाद पर शासन प्रणाली का निर्माण हुआ है। किसान, मजदूर हाशिए पर हैं।

उनकी गहरी कमाई का सारा धन पूंजीपति चख रहे हैं। किसान अन्नदाता है, लेकिन दाने-दाने को मोहताज है। सूत कातने वाला जुलाहे के पास अपना व अपने परिवार का तन ढांपने के लिए कपड़ा नहीं है। राजगीर, लौहार तथा बढ़ई सुंदर महलों, घरों का निर्माण करते हैं, लेकिन उन्हें सूअर की तरह गंदे बाड़ों में जीवन के अंत तक रहना पड़ता है। फांसी से कुछ हफ्ते पहले भगत सिंह ने ‘यंग पॉलिटिकल वर्कर्स’ पत्रिका में लिखा था, आप क्रांति अमर रहे के नारे लगाते हैं। मैं यह मानकर चल रहा हूं कि क्रांति का वास्तविक अर्थ मौजूदा सामाजिक व्यवस्था का तख्ता पलटा है। इसे समाजवाद की व्यवस्था से बदलना होगा। कांग्रेस मध्यवर्ग के दुकानदारों और पूंजीपतियों की पार्टी है। ये ऐसा तबका है जो क्रांति के आंदोलन में अपनी जायदाद प्रापर्टी को अपने हाथों से छिन जाने का जोखिम नहीं उठा सकता। क्रांति की सेवा गांवों और फैक्टरियों में है। भगत सिंह समाज की बेशुमार समस्याओं पर एक साथ मुखर थे। साल 1923 में आंध्र प्रदेश के काकीनाडा कांग्रेस अधिवेशन के बाद अस्पृश्यता पर एक लेख लिखा था। यह लेख उस दौर में अमृत्तसर से छपने वाली पत्रिका ‘किरत’ में छपा था। वेद, पुराण, उपनिषद, भगवद्गीता आदि धार्मिक ग्रंथ दलितों की पहुंच से बाहर हैं। वे उन्हें छूने की कल्पना तक नहीं कर सकते। वे ब्राह्मणों की परम्परा के अनुसार गले में जनेऊ नहीं पहन सकते। छुआछूत पर उनका कहना था, ‘किसी भी देश में कभी ऐसी सड़ी गली व्यवस्था नहीं होगी जैसी भारत में है।’ जून 1928 को वे लिखते हैं, ‘बड़ा प्रश्न दलितों का है। 30 करोड़ आबादी में 6 करोड़ अछूत हैं। अगर कोई स्वर्ण उन्हें छू लेता है तो उसका धर्म प्रदूषित हो जाता है। अगर वे मंदिरों में जाते हैं तो देवता रूठ जाते हैं। कुएं से पानी भरते हैं तो जल प्रदूषित हो जाता है।

कल्पना करो एक कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है, रसोई में भी जा सकता है, मगर कोई दलित आपको स्पर्श कर ले तो धर्म बर्बाद हो जाता है। महान समाज सुधारक मदन मोहन मालवीय को अगर कोई वाल्मीकि फूलों का हार पहना दे तो वे तुरंत नहाने चले जाते हैं। अपने कपड़े धोते हैं ताकि अछूत के स्पर्श से स्वयं को शुद्ध कर सकें।’ तीनों क्रांतिकारियों को फांसी के पूर्व और बाद की घटनाओं में महात्मा गांधी की भूमिका को लेकर समूचा देश सकते की स्थिति में था। देशवासी चाहते थे कि गांधी वाइसराय पर फांसी रोक देने का दबाव बनाएं। लेकिन गांधी राजनीतिक हिंसा, कत्लोगारत के विरुद्ध थे। गांधी ने फांसी के बाद कहा था, ‘हमें यह समझ कर संतोष करना होगा कि फांसी की सजाएं रद्द करना संधि के प्रस्तावों के निहित न था। मेरी व्यक्तिगत राय से भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी से हमारी शक्ति बढ़ गई है। सरकार पर हम गुंडेपन का आरोप लगा सकते हैं, परंतु संधि भंग करने का दोष नहीं मढ़ सकते। फांसी से पूर्व कांग्रेस से लोगों ने अपील की थी कि वह सरकार से समझौते की शर्तों में एक शर्त भगत सिंह व उनके साथियों की रिहाई की मांग रखे। इससे गांधी ने इन्कार कर दिया था। वे बम या पिस्तौल कल्ट के विरुद्ध थे।

दूसरी ओर मदन मोहन मालवीय फांसी की संजा से बेहद क्षुब्ध और द्रवित थे। 14 फरवरी 1931 को इलाहाबाद से उन्होंने वाइसराय को तार भेजकर फांसी रद्द करने की अपील की थी। नेहरू भी फांसी के बाद ज़ार-ज़ार रोये थे। उन्होंने कहा था, फांसी के बाद देश के कोने-कोने में शोक का अंधकार छा जाएगा। परंतु उनके ऊपर हमें अभिमान भी होगा। जब इंग्लैंड हमसे संधि का प्रस्ताव करेगा, उस समय उसके और हमारे बीच में भगत सिंह का मृत्त शरीर उस समय तक रहेगा जब तक हम उसे विस्मृत्त न कर दें। संक्षेप में भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों के विचारों की प्रासंगिकता हर दौर में रहेगी। जिस लाहौर सेंट्रल जेल में भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को फांसी दी गई थी, वह पूरी तरह ज़मींदोज़ हो चुकी है। उसके सामने एक मस्जिद का निर्माण हो चुका है। भगत सिंह की शहादत की धरोहर को भावी पीढिय़ों के लिए संरक्षित कर उसे संग्रहालय का रूप देने की ओर पाकिस्तान के रहबरों की संवेदनहीनता बनी रही। वे कोठरियां जिनमें तीनों शहीदों को रखा गया था, का नामोनिशान की एक भी ईंट साक्षी नहीं है। तख्तों पर लटकाने के लिए जिस जगह का इंतखाब किया गया था, वहां एक गोलचक्कर बन चुका है जिसके इर्द-गिर्द सडक़ें हैं।

राजेंद्र राजन

साहित्यकार


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