सपने के टूटते कगार

By: Mar 28th, 2024 12:05 am

अभी हमने सिर उठाया भी नहीं, कि उससे पहले ही उन्हें खतरा पैदा हो गया, कि ये लोग सिर उठाएंगे तो जीने की राह मांगेंगे। पीठ भरने का वसीला मांगेंगे। खोई हुई जानों का हिसाब मांगेंगे। इसलिए इससे क्या बेहतर नहीं कि ये सिर उसी प्रकार झुके रहें, और अपनी जान और माल की खैर खैरियत हमसे मांगते रहें। आप पूछ सकते हैं, कौनसी जान और कौनसा माल? क्या वह जान जो संक्रमित होकर इसलिए दम तोड़ गई, कि उसके फेफड़ों को चालू रखने के लिए प्राण वायु के सिलेंडर नहीं थे। किस माल की हिफाजत करने की बात कहते हैं आप? सुना नहीं है क्या, जर, जोरू और जमीन पर कब्जा ताकत वाले का होता है। ताकत तो अपने वंश दर वंश हवेलियों वालों को सौंप दी। रजवाड़ाशाही खत्म हो गई। देश के करोड़ों बांके नौजवानों ने एक लंबी लड़ाई लड़ कर सामंतवाद को नेस्तनाबूद कर दिया है। इतिहास ने बताया। फिर यहां बदल कर कहां से नए रजवाड़े और नए सामंत आ गए? ये नाम जनता के राज का लेते हैं और पहले तो उम्र भर अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते, फिर वंशगत परम्परा में उनके वारिसों, आने वाले सब वारिसों की वोटों की वसीयत अपने नाम करवा लेते हैं। वोट डालने के दिन नजदीक आते हैं, तो जनता जनार्दन के टूटे सपनों के रूप खण्डहरों की मरम्मत होने लगती है।

उन्हें नई वायवीय घोषणाओं की बैसाखियों के साथ खड़ा करके उपलब्धियों का एक नया सब्जबाग बना कर पेश कर दिया जाता है। इस जमाने का कोई भरोसा नहीं है, साब। जाने कब करवट बदल ले। जाने किस दांव अपना हाथ बदल अपनी हार को जीत में बदल दे। वैसे भी जीत का लड्डू हमेशा ही ऊपर वालों के हाथ रहता है। तब भी जब वोटें पडऩे का मौसम करीब आया, और आपने युगों से लम्बित अच्छे दिनों का सपना साकार होने का एक ट्रेलर हमें दिखा दिया और पूरी फिल्म दिखाने का सपना भविष्य के कंधों पर लाद दिया। लेकिन याद रखिए, कल, आज और कल में जो बीत गया वह कल तो कभी मुडक़र आता नहीं और आने वाला कल कभी मिलता नहीं, जब भी मिलेगा, वह यही आज बन कर ही मिलता है। वही रंग उतरा आज जिसमें आने वाले दिनों में अच्छे दिन दे देने के वायदों को दोहराया जाता है। उन लोगों ने दोहराया है, जो बरसों बाद आपका और भी निर्जीव होता चेहरा पहचानने चले आए थे। नए वायदों के कनकौओं के साथ, एक बार फिर से आकाश में उडऩे का एहसास दे रहे हैं। यह वे एहसास हैं जो काम किए बिना देश के आत्मनिर्भर हो जाने की तस्वीर बनाते हैं।

आंकड़ों के ऐसे खेल दिखाते हैं कि गिरावट की ओर सटपट भागती अर्थव्यवस्था का शेयर सूचकांक बल्लियों उछलने लगता है। इन्होंने पूरा विश्व एक मंडी बना देने का वायदा किया था न। लीजिये पूरे विश्व में पैट्रोल और डीजल की कीमतें कम हो गईं हैं, फिर भी देश की चाल धीमी हो गई तो क्या? इस देश के लोगों को तो वैसे ही कीड़ी चाल से रेंगने की आदत है। धरती पर रेंगना और आकाशचारी होकर विकास के आंकड़ों के वायुयान की सवारी करना इनकी पुरानी आदत है। भैया, ये आंकड़े बहुत बड़ी चीज हैं। आप जितना चाहें आंकड़ों की सत्यता की जांच कर वैकल्पिक आंकड़े ले आएं, हमने संकट बचा लिया और अपनी कुर्सी भी। बस अब चुप लगा जाइए और अपनी जानों को कुर्सीधारियों की अमानत मानिए। वे खैरात बांटते रहेंगे, अब बस दुआओं से काम चलाइए। बदलाव के नारे मंचों तक सीमित रहे तो बेहतर।

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


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