शव संवाद-36

By: Mar 25th, 2024 12:06 am

सत्ता के गलियारों में घूमते हुए बुद्धिजीवी ने इनसान को बुत और बुत को इनसान बनते देखा है। यह सत्ता को भी मालूम नहीं कि उसके भीतर कितनी प्रतिमा और कितनी प्रतिभा है, लेकिन जब गलियारे ही आमादा हो जाएं बताने और दिखाने के लिए, तो क्षमता बढ़ जाती है। हर सत्ता का कोई ने कोई गलियारा ऐसा भी होता है, जो हमेशा बतियाता है, वरना अब सरकारें खुद को प्रतिमा बनाने में शरीक हैं, इसलिए कार्यों की मौन प्रगति बेचैन है। यहीं बेचैनी नेताओं को प्रगतिशील बता रही है या बेचैन नेता ही प्रगति के असली पात्र हैं। पात्रता पहले लिखी होती थी, इसलिए प्रगतिशील लोग वास्तव में प्रगतिशील होते थे। अब नेताओं में पात्रता के द्वंद्व हैं ताकि मरने के बाद उनकी प्रतिमा पहरा देती रहे। दरअसल देश जब से नेताओं की पहरेदारी में खुद को निहार रहा है, इसकी अपनी पात्रता कभी संसद – कभी अनशन, कभी राशन – कभी भाषण, कभी मंच पर तो कभी लंच पर बेचैन है। बुद्धिजीवी एक रात वाकई सोकर उठा, तो वह अपने सपने के आधार पर देश के हालात पर प्रसन्न था। वह खुश था कि रात भर देश ने उसे खामोशी के साथ सोने दिया, लेकिन अगले ही पल दिन में तारे नजर आ गए। उसी की गली में आए पार्षद से लोग यह मांग कर रहे थे कि उनके लोगों के भी बुत लगाए जाएं। बुद्धिजीवी जनता में आए इस भटकाव को रोकने के लिए वहां भागा और उन्हें समझाने लगा कि इस तरह की मांग न करें। ‘यह लोकतंत्र है, यहां मांग करने का अधिकार है, तो समानता का अधिकार भी है। जो नेता हमारे बनाए हैं, वे अगर प्रतिमा बनने के योग्य हो गए, तो हम क्यों नहीं’, पहली बार जनता अपने अस्तित्व के लिए प्रतिमा बन जाना चाहती थी। बुद्धिजीवी ने उन्हें समझाया, ‘प्रतिमा के रूप में अगर इनसान की बेकद्री हो गई, तो पत्थर भी रोएंगे और जमीन भी इनके बोझ से थक जाएगी।’

जनता पहली बार नेताओं की तरह सोच रही थी, यह जानकर बुद्धिजीवी के तर्क और ज्ञान शक्ति जवाब दे गई। इसी बीच पार्षद ने कहा कि नगर निगम हर वार्ड से केवल एक-एक मूर्ति ही स्थापित कर पाएगा और यह पांच साल में केवल एक बार ही लगेगी। अब जनता यह नहीं सोच पा रही थी कि अपने-अपने वार्ड से किसकी प्रतिमा लगाई जाए। तभी एक बुजुर्ग ने कहा, ‘हम इनसानों को मूर्ति नहीं बना सकते, लिहाजा बिजूका बनाएंगे।’ सब ने बुद्धिजीवी में बिजूका के गुण देखकर उसे नेताओं की प्रतिमाओं के बीच खड़ा करने की ठान ली। वैसे भी बुद्धिजीवी व बिजूका में कोई अंतर नहीं है। वह वर्षों से राजनीतिक सत्ता के पक्षियों से देश की मूर्ति को बचा रहा है। वह मूर्ति में गांधी और मूर्ति में नेहरू देख-देख कर पक गया है, नए आदर्शों की मूर्तियां खोजते खोजते मूर्तिकारों पर शक करने लगा है। अंतत: उसने एक ऐसे मूर्तिकार को खोज लिया जो तरह तरह के नेताओं की प्रतिमाओं में देश का अधिमान बढ़ा रहा था। मूर्तियों के अनेक ढांचे पहले से बने थे। पूछने पर मूर्तिकार बोला, ‘सदियों से प्रतिमाएं बिना गर्दन के बन रही हैं, जिसने अपनी गर्दन उठा ली मूर्ति उसी की हो गई।’ तभी सत्ता और सियासत के प्रभावशाली लोग वहां कई गर्दनें एक साथ लेकर पहुंचे। मूर्तिकार देश की तरक्की देखकर और बुद्धिजीवी अपनी बिजूका पोशाक में प्रसन्न था। एक-एक करके गर्दनें मूर्तियों पर लगा दी गईं और देश को पता चल गया कि अबकि बार किसकी सरकार। कल तक जहां बुद्धिजीवी को देश से शिकायत थी, आज जनता ने ही उसे वहीं प्रतिमाओं की रक्षा के लिए बिजूका बनाकर खड़ा कर दिया है। मूर्तियां बढ़ रही हैं, लेकिन बुद्धिजीवी बिजूका बनकर इनकी रक्षा कर रहा है। अब तो जिन जिंदा नेताओं की भी मूर्तियां लग रही हैं, वही वहां आकर बुद्धिजीवी बिजूका को उसका फर्ज याद दिलाते हैं। अब तक बुद्धिजीवी बिजूका को पता चल चुका है कि वह केवल बुतों के बीच अपनी भूमिका निभा सकता है।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक


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