समारोह पर्यटन की दृष्टि से

By: Mar 12th, 2024 12:05 am

हिमाचल के सांस्कृतिक परिदृश्य की निरंतरता में मंडी शिवरात्रि समारोह का ही नजराना पेश हो, तो पर्यटन की मंडी में आर्थिकी का नया दौर शुरू हो सकता है। हम इन सांस्कृतिक समारोहों की रौनक में मंचीय उपलब्धियां देख रहे हैं, तो सियासत की पगडिय़ों में सत्ता का नूर मुखातिब होता है। कुल्लू से मंडी तक के समारोहों में देवताओं या बजंतरियों का नजराना बढ़ाने की मशक्कत, सांस्कृतिक संरक्षण की पैरवी में यकीनन इजाफा करती है, लेकिन इस तरह का उजास पूरे हिमाचल को परिभाषित नहीं करता। हिमाचल में देव स्तुति की अनेक परंपराएं बिना किसी संरक्षण के समाप्त प्राय: हो रही हैं। उदाहरण के लिए ढोलरू गायन परंपरा का सांस्कृतिक, सामाजिक व धार्मिक पक्ष निरंतर घट रहा है, तो इसलिए कि सरकारी तौर पर इसे बचाने के प्रयास नहीं हो रहे। भाषा एवं संस्कृति विभाग इस तरह की परंपराओं का मंचीन संबोधन बढ़ा सकता है, लेकिन न तो कलाकारों को प्रश्रय मिला और न ही विशिष्ट महीने के दौरान सार्वजनिक मंच प्रदान करते हुए इनका स्वरूप बदला। क्यों नहीं ढोलरू गायकों को भी सरकार की ओर से वार्षिक नजराना दिया जाए ताकि यह कला बची रहे। इतना ही नहीं ढोलरू समारोहों की एक श्रृंखला विभिन्न मंदिरों के परिसर में शुरू की जाए, तो समाज भी खुद को इनके करीब रख पाएगा। कुछ अन्य लोक नाट्य परंपराएं भी समय के साथ परिदृश्य से गायब हो रही हैं।

ऐसे में अगर कुल्लू का दशहरा या मंडी की शिवरात्रि से जुड़े मंच हर साल नजरानों की पेशकश में सत्ता की सदाबहार चमक दिखाते हैं, तो इस तरह के वित्तीय प्रोत्साहन समूचे हिमाचल के प्रत्येक कलाकार को भी मिलने चाहिएं। हिमाचल में समारोह पर्यटन के जरिए आर्थिकी को समृद्ध करने के लिए जरूरी है कि आयोजनों के प्रारूप को बदला जाए। मंडी में शाही जलेब के पड्डल मैदान पर पहुंचते ही शोभा यात्रा का अशोभनीय पक्ष यह कि एक कांग्रेसी नेत्री के कपड़े फट गए। ऐसे में अगर बाहर से पर्यटक शरीक होना चाहें तो उनकी सुरक्षा के लिए हमने क्या किया। ऐसे सांस्कृतिक समारोहों के लिए अब एक खास अधोसंरचना, सुरक्षा दायरे, अनुशासिक प्रक्रिया तथा अतिरिक्त मैदानों की जरूरत है। मंडी में शिवरात्रि, कुल्लू में दशहरा या चंबा में मिंजर की लोक परंपरा को वैश्विक परिदृश्य में सुव्यवस्थित तथा रोचक बनाने के लिए अतिरिक्त प्रयासों की जरूरत है। बेशक सुक्खू सरकार ने कुछ मेलों व समारोहों को राज्यस्तरीय पोशाक पहना दी है, लेकिन इस तरह की श्रेष्ठता में हम क्या दिखाना चाहते हैं, इसके लिए नीति व प्रबंधन चाहिए। हमारा मानना है कि हिमाचल में एक मेला विकास प्राधिकरण के तहत ही तमाम सांस्कृतिक, धार्मिक व व्यापारिक मेलों का आयोजन करते हुए इन्हें पर्यटन समारोह भी बनाना होगा। अगर हम चाहते हैं कि सुजानपुर, चंबा या रामपुर बुशहर की धरोहर व ऐतिहासिक महत्त्व को पर्यटन का स्तंभ बनाया जाए, तो प्रक्रिया, प्रोग्राम व प्रबंधन की जरूरतों को पूरा करना होगा।

आम तौर पर ऐसे आयोजनों की कोई स्थायी वित्तीय व्यवस्था नहीं है, अत: प्राधिकरण के तहत आय-व्यय की जवाबदेही तय करनी होगी। हिमाचल की मेला संस्कृति में विविधता, रोमांच व पारंपरिक उल्लास के साथ-साथ अब ये कला, कलाकार, कुश्ती व व्यापार के संरक्षण में भूमिका निभा रहे हैं। अगर मेलों की कुश्तियों को पहलवानी के प्रशिक्षण के साथ जोड़ दें, तो हिमाचल का खेल ढांचा ग्रामीण खेलों को पुष्ट कर देगा। सरकार के पास इसका कोई अनुमान नहीं कि मेलों, सांस्कृतिक समारोहों व कुश्तियों के वार्षिक आयोजन में आय-व्यय का क्या हिसाब है। यही वजह है कि सियासत के दम पर केवल सत्ता का प्रभाव नेताओं की वकालत में हर वर्ष नया प्रचलन पैदा करता है। नेता मजबूत हो तो समारोह बढ़ जाते हैं या रंगत बिखेरते हैं, वरना न जाने कब हमीर उत्सव उदास या धर्मशाला का ग्रीष्मोत्सव बंद हो जाए। इन समारोहों की पद्धति को स्थायी, अनुशासित व जवाबदेह बनाने की जरूरत को नजरअंदाज करके हम न आर्थिकी का विकास करेंगे और न ही इन्हें पर्र्र्र्यटन का हिस्सा बना पाएंगे। प्रदेश का हर शहर अगर अपना स्थापना दिवस मनाए तो पर्यटन की मांग बढ़ेगी। हिमाचल में चाय, सेब, किन्नू के अलावा फूड उत्सवों को क्रमबद्ध किया जा सकता है, जबकि बुक फेयर, व्यापार मेले, लोक कला उत्सव, स्वयं सहायता समूहों से जुड़े मेले, हिमाचल क्रॉफ्ट फेयर, घृत मंडल तथा बैसाखी जैसे आयोजनों को सीधे पर्यटन की विरासत बनाना होगा। समारोह पर्यटन की दृष्टि से हर शहर में चार-चार नए सामुदायिक मैदान, जबकि हर गांव में कम से कम एक मल्टीपर्पज मैदान बनाने होंगे।


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