हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Mar 17th, 2024 12:06 am

डा. हेमराज कौशिक

अतिथि संपादक, मो.-9418010646

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-४७

-(पिछले अंक का शेष भाग)

उनका अंतिम संस्कार भी एक साथ किया जाता है। ‘मिट्टी की महक’ पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के जीवन मूल्यों को गांव में रची बसी मां और नगरों में रह रहे पढ़े लिखे बेटों के संदर्भ में निरूपित किया है। मां नगर में अपने दोनों बेटों के साथ रहकर अपने आपको अकेला अनुभव करती है और अंतत: वह गांव में अपनी मिट्टी की महक में जीवन गुजारना चाहती है। कहानी के अंत में अपनी बिल्ली को देखकर अपने मन की भटकन को शांत करती है। उसकी बिल्ली के बच्चे भी कहीं अन्यत्र चले गए हैं। बिल्ली को देखकर उसे अपने भावी जीवन यापन करने की राह मिल जाती है। ‘बलिदान’ सैनिक परिवार से संबद्ध है। पिता शहीद होता है और बाद में बेटा भी बड़ा होकर सेना में भर्ती होकर युद्ध में लापता हो जाता है। कहानीकार ने कारगिल युद्ध के संदर्भ में नेताओं की राजनीति को भी रेखांकित किया है। यह कहानी बलिदान की गाथा प्रस्तुत करती है जिसमें पति और बेटे के शहीद होने के अनंतर मां की लाश लावारिस जलती है और बहू विक्षिप्त अवस्था तक पहुंच जाती है।

‘बेटी’ कहानी में मां की मृत्यु की सूचना मिलने पर बेटा अपने शैशव काल से लेकर शहर में पत्नी और पुत्र के साथ रहने तक अपने जीवन का प्रत्यवलोकन करता है तथा अपनी दोनों बहनों की परिवार में भूमिका को देखते हुए अनुभव करता है और पत्नी से कहता है, ‘मैत्री मुझे व तुझे अपने बुढ़ापे में एक सहारा चाहिए, एक ऐसा सहारा जो प्रेम, ममता और सेवा से भरा हो और ऐसा सहारा मैंने देख भी लिया है कि वह सिर्फ लडक़ी ही हो सकती है। ‘महकता रिश्ता’ जाति विधान की जकड़बंदी और विधवा विवाह से संबद्ध सवाल उठाती है। ‘बदला’ शीर्षक कहानी दलितों के प्रति सवर्ण जातियों द्वारा किए गए अत्याचारों को निरूपित करती है। कहानी में सवर्ण युवती दलित युवक से प्रेम करती है, इस कारण दलित युवक पर अनेक अत्याचार किए जाते हैं। सवर्ण युवती अपनी कोख में दलित युवक के अंश को ग्रहण कर अपने प्रेमी से हुए अत्याचारों का बदला लेती है। उसके परिवार के लोग उसे कुल दीपक को मौन होकर स्वीकार करते हैं। प्रदीप कुमार शर्मा की ये कहानियां सीमित अनुभव लोक की भाव मूलक कहानियां हैं। सहज, सरल भाषा शैली में सृजित ये कहानियां मनोरंजक तो हैं, परंतु संवेदना और शिल्प परिपक्वता की दृष्टि से क्षीण हैं।

विजय रानी बंसल का प्रथम कहानी संग्रह ‘बहारें लौट आईं’ (2004) शीर्षक से प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह में उनकी बाईस कहानियां- बाहरें लौट आईं, आखिर कब तक, मां, वक्त की मार, एक थी रुक्को, अंतिम निर्णय, अग्नि परीक्षा, हाई सोसायटी, सच्ची खुशी, सिंदूर, सन्नाटे, लहू के दो रंग, नया सवेरा, एक और बेकारी का अंत, रास्ते की धूल, तोहफा, अस्तित्व बोध, लहू की पुकार, सुबह का भूला, पतझड़, बीत गया, पिघलती चट्टान और उधार के सुख संगृहीत हैं। संदर्भित संग्रह की कहानियां मानवीय और पारिवारिक संबंधों को निरूपित करती हैं। उनकी कहानियां एक ओर मानवीय हृदय की करुणा, स्नेह, परहित, ममता, कत्र्तव्योन्मुखता जैसे भावों की अभिव्यंजना करती हैं, दूसरी ओर स्त्री-पुरुष संबंधों, दांपत्य संबंधों के आधारभूत मूल्यों को चरित्रों की परिणतियों के माध्यम से रूपायित करती हैं। ‘बाहरें लौट आईं’ प्रस्तुत संग्रह की शीर्ष कहानी है। इसमें परिणय सूत्र में बंधने के अनंतर भी पूर्व प्रेमी के स्मृति लोक में बसे रहने की पीड़ा के कारण दांपत्य जीवन में समरसता के अभाव का चित्रण है। चार वर्षों के दांपत्य जीवन में पत्नी पूर्व प्रेमी की स्मृति में डूब कर कृशकाय हो जाती है, परंतु प्रेमी वर्षों के अंतराल के बाद भेंट करने पर उसे प्रेम के औदात्य का साक्षात्कार करवाता है जिससे उनके दांपत्य जीवन में बहारें लौट आती हैं। ‘मां’ वृद्ध माता-पिता के प्रति संतति की संवेदनशून्यता, दायित्वहीनता और पिता की संपत्ति की चाह का चित्रण है। ‘एक थी रुक्को’ में रुक्को की चरित्र सृष्टि के माध्यम से यह स्थापित किया है कि एक स्त्री जो मूक होकर सास, ननद और पति के अत्याचारों और उत्पीडऩ को सहन करती है, वही शिक्षा अर्जित कर स्वावलंबी एवं आत्मविश्वासी बनकर स्वाभिमान से जीवनयापन करती है। शिक्षा अर्जित कर आत्मविश्वास से जीने लगती है। ‘अग्नि परीक्षा’ में सुषमा और आलोक की लाडली बेटी कंचन के संदर्भ में कहानीकार ने यह स्थापित किया है कि नारी पढ़-लिखकर स्वावलंबी बनती है, उसमें आत्मविश्वास जागता है।

यही कारण है कि कंचन आत्मनिर्भर बनकर आकाश के जीवन की दिशा बदल देती है। वह एक तरह से अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाती है। ‘हाई सोसायटी’ में आधुनिकता के नाम पर संबंधों में उच्छृंखलता और अश्लीलता को रेखांकित किया है। ‘सिंदूर’ शीर्षक कहानी में विधवा स्त्री के जीवन की नियति को चित्रित किया है। मकान मालिक मोहन बाबू उसे सिंदूर देता है ताकि समाज की नजर में वह बदचलन भले ही बनी रहे, परंतु विधवा देखकर कोई मनचले उसके आगे अश्लील हरकतें तो न करें। एक विधवा सुंदर स्त्री के लिए जीवन जीना कितना कठिन होता है, यह कहानी रेखांकित करती है। ‘सन्नाटे’ में नेहा और सुधांशु के दांपत्य जीवन में मोहनी आती है। सुधांशु की मित्र बनकर पढ़-लिखकर अविवाहित रहकर विवाहित पुरुष की मित्र बनी रहती है। अंतत: वह उपेक्षित होकर अपने घर लौटती है। यह कहानी भी दांपत्य संबंधों की प्रगाढ़ता को निरूपित करती है। ‘लहू के दो रंग’ शीर्षक कहानी में कहानीकर ने बेटियों की मां के प्रति कत्र्तव्यनिष्ठा, प्रेम और निस्वार्थ भावना के चित्रण के साथ बेटे की स्वार्थपूर्ण दृष्टि, संवेदनशून्यता और दायित्वहीनता के संदर्भ में यह चित्रित किया है कि एक मां के बेटे और बेटियों में लहू के यह दो रंग कैसे हैं।

उधार के सुख’ कहानी में कहानीकार ने दांपत्य संबंधों की महिमा और दांपत्येत्तर संबंधों की आधारहीनता और क्षणभंगुरता को निरूपित किया है। ‘पिघलती चट्टान’ में प्रेम संबंधों का निरूपण है। अभिजात्य अहंकार के कारण अपने जड़ प्रतिमानों के आधार पर अपनी संतति के वैवाहिक जीवन का निर्णय लेकर वे परस्पर प्रेम में बंधे युवक-युवतियों को परिणय संबंध स्थापित करने में बाधक बनते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनका दांपत्य जीवन भविष्य में नारकीय स्थितियों में गुजरता है तथा दांपत्य जीवन कटुता और दुख से भरा रहता है। इस प्रकार विजय रानी बंसल की कहानियां मानवीय संबंधों के सूक्ष्म तंतुओं से निर्मित कहानियां हैं। इनमें मानवीय संबंधों के ह्रास की भी चिंता है। धन संपत्ति की तराजू में तुल कर मानव संबंधों की जो दुर्गति हुई है, उसे भी ये कहानियां व्यंजित करती है। दांपत्य संबंधों की जटिलता को निरूपित करने वाली कहानियों में गलत चुनाव और रुचि वैभिन्नय के कारण आई त्रासद स्थितियों की निश्छल अभिव्यंजना है। निकट परिवेश और सीमित अनुभवों के तानेबाने में बुनी ये कहानियां मार्मिक, ह्रदयग्राही और आदर्शोन्मुख हैं। भाषा की सहजता और स्वाभाविकता एवं शिल्प की सादगी में विन्यस्त ये कहानियां पाठक को आकर्षित करती हैं।

विवेच्य अवधि में प्रत्यूष गुलेरी का ‘लौट आओ पापा’ (2005) शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित है। इसमें लौट आओ पापा, पसंद के कागज, बिच्छू, दफ्तर जंगिया गया है, अपनी अपनी अनकही आदि कहानियां संगृहीत हैं। ‘लौट आओ पापा’ मार्मिक कहानी है जिसमें बेटी अपने पिता को पत्र लिखती है, जिसमें वह अपनी तलाकशुदा मां की पीड़ा के साथ अपने मन की व्यथा व्यंजित करती है। वह जीवित पिता के होते हुए पिता के अभाव को ही नहीं झेलती है, अपितु दूसरों के आहत करने वाले वाक बाणों से भी आहत होती है। उसे यह सुनना पड़ता है कि उसके पिता ने दूसरा विवाह किया। पहली पत्नी अनपढ़ थी। सत्रह वर्ष की आयु में वह पत्र लिखती है कि नई अम्मा के कोई बच्चा नहीं है। कोर्ट कचहरी से ऊपर दिल की अदालत होती है।

संदर्भित कहानी यह प्रतिपादित करती है कि पति-पत्नी के संबंधों की कटुता के कारण संतति को किन अभावों और आंतरिक पीड़ा को झेलना पड़ता है। ‘पसंद के कागज’ में ऐसी युवती की कहानी है जिसमें पिता पैसे के लालच में बूढ़े व्यक्ति से जबरदस्ती विवाह करता है। वह उस विवाह को अस्वीकार कर कोर्ट में कागज बनवाकर अपनी पसंद का विवाह करती है। पिता की निर्ममता और बेटी को सार्वजनिक स्थल पर पीटने की घृणात्मक स्थिति को भी यह कहानी निरूपित करती है। ‘दफ्तर जंगिया गया है’ में कहानीकार ने दफ्तर में कार्यरत अधिकारियों और कर्मियों की जीवन शैली, कत्र्तव्यविमुखता और उच्छृंखलता अनावृत की है, जिनके समक्ष जीवन के नैतिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है। ‘बिच्छू’ शीर्षक कहानी में पुलिस की अकर्मण्यता और बढ़ती आतंकपूर्ण स्थितियों पर चिंता व्यक्त की गई है। ‘अपनी अपनी अनकही’ प्रमुख रूप में वृद्ध पिता की पांच वर्ष की लंबी बीमारी पर केंद्रित है। प्रस्तुत कहानी में आज के नगरीय जीवन में संबंधों की आत्मीयता किस तरह तिरोहित हो गई है, वृद्ध पिता के दो बेटों की संवेदनशून्यता के संदर्भ में रूपायित किया है। कहानीकार प्रत्यूष गुलेरी की कहानियां समाज के विभिन्न रूपों को उकेरती हैं। कहानी अपने निकट परिवेश से संबद्ध है। लोक जीवन से संबद्ध शब्दों, मुहावरों के साथ पात्रानुकूल भाषा के हिंदी, अंग्रेजी शब्दों के स्वाभाविक प्रयोग के साथ लोकजीवन से संबद्ध लोक भाषा के आंचलिक शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग आकर्षित करता है। राजनीतिक जीवन के यथार्थ को उकेरती ये कहानियां सहजता और परिपक्वता के गुण लिए हुए हैं।

त्रिलोक मेहरा का ‘मम्मी को छुट्टी है’ शीर्षक कहानी संग्रह 2006 में प्रकाशित हुआ है। इसमें तेरह कहानियां- बापू की शांति, आपका राजा, नीरू की लाड़ी, चमीणू की चट्टान पर, मम्मी को छुट्टी है, मदारी, बूढ़ी काई, नारों की शव यात्रा, चूना लगा रहा हूं, सिलती रही वक्ष, पेडू उड़ते हैं, कैमरा खाली है और टेलीफोन संगृहीत हैं। त्रिलोक मेहरा की कहानियों में भारतीय जीवन के ग्रामीण परिवेश के प्रति गहरी उन्मुखता लक्षित होती है। ग्राम्य जीवन के भोक्ता कथाकार होने के कारण उनकी कहानियों में अनुभव की प्रामाणिकता लक्षित होती है। ग्राम जीवन की, विशेषकर पहाड़ी जीवन की जटिलता, सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का अंकन उनकी कहानियों में हुआ है। इसके अतिरिक्त सामाजिक संबंधों का तानाबाना उनकी कहानियों में मिलता है। संग्रह की पहली कहानी ‘बापू की शांति’ में देश विभाजन के समय की विषम परिस्थितियों में प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की ज्वाला में धधकती सांप्रदायिकता का चित्रण है। यह सर्वविदित तथ्य है कि उस समय सारा देश रक्तरंजित हो गया था। असहाय निरपराध बच्चों, बूढ़ों, औरतों की निर्ममता से हत्याएं की गई। ऐसे समय में कुछ लोग थे जिनमें कुछ मानवीय मूल्य शेष थे और वह सांप्रदायिक सौहार्द के लिए आगे आए।

-(शेष भाग अगले अंक में)

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु
1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय
नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

पुस्तक समीक्षा

हिमोत्कर्ष-विश्व ध्यानाधार के आकर्षक अंक

हिमोत्कर्ष साहित्य, संस्कृति एवं जनकल्याण परिषद ऊना की पत्रिका ‘हिमोत्कर्ष’ तथा धर्म-संस्कृति पर आधारित पत्रिका ‘विश्व ध्यानाधार’ के ताजा अंक प्रकाशित हुए हैं। हिमोत्कर्ष परिषद ने 18 फरवरी को पचासवें वार्षिक सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन के लिए जिन महानुभावों ने संदेश दिए, उनको पत्रिका के इस अंक में छापा गया है। राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री, राजनेता, दिव्य हिमाचल के मुख्य संपादक अनिल सोनी और पंजाब केसरी के प्रधान संपादक विजय कुमार के संदेश परिषद को स्वर्ण जयंती वर्ष की शुभकामनाएं दे रहे हैं। इसके अलावा परिषद की विभिन्न गतिविधियों पर आधारित जितेंद्र कंवर का आलेख भी ध्यान आकर्षित करता है। जिन लोगों को परिषद ने प्रशस्ति पत्र दिए हैं, उनके बारे में जानकारियां देते परिचयात्मक लेख भी इस अंक में संकलित हैं। इनमें दिव्य हिमाचल के स्थानीय संपादक संजय अवस्थी पर महत्वपूर्ण जानकारी वाला मुख्य आलेख भी है। परिषद से छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाले छात्रों के नाम व पते भी छापे गए हैं। परिषद की गतिविधियों से जुड़े अनेक चित्र पत्रिका के आकर्षण को बढ़ाते हैं। इसी तरह ‘विश्व ध्यानाधार’ का जनवरी-मार्च 2024 अंक धर्म व संस्कृति पर कई आलेख लेकर आया है। संपादक चमन सिंह जरयाल ने अपने संपादकीय ‘श्रद्धा-आस्था और जीवन’ में इस संसार को सुंदर उपवन बनाने के लिए बहुमूल्य सुझाव दिए हैं। सुमन कुंदरा, डा. केसी कंवर, स्वामी सर्वेश्वरानंद, अरविंद, बीएस राणा, सुरेश आचार्य, वीपी ‘अग्नि’, ध्रुव गुलेरिया, उमेश शर्मा, शौरी शर्मा, अक्षय पत्रवाल व संजीव आचार्य के आलेख व रचनाओं ने पत्रिका को चार चांद लगाए हैं। इनके अलावा चमन प्रभाकर, नरेंद्र त्रेहन, आशुतोष कंवर, जेपी शर्मा, गीता राम, हरिकृष्ण मुरारी, सिकंदर नाथ, आरएस राणा, स्वर्गीय डा. पीयूष गुलेरी, एनके अवस्थी, नरेंद्र ठाकुर, पंडित कुलदीप शास्त्री, मस्त राम, ज्योत्सना ठाकुर, सीता राम, रछपाल पठानिया, संजय शर्मा, निर्मल प्रभा आचार्य व मस्त राम शर्मा ने भी अपनी-अपनी रचनाओं के जरिए भागीदारी की है।

-फीचर डेस्क

समय से संवाद करती कहानियां

‘उत्तराखंड के कथाशिल्पी : बल्लभ डोभाल’ कहानी संग्रह, समय के वरिष्ठतम कथापीढि़ के प्रतिनिधि कथाकार महेश दर्पण द्वारा संपादित है जो काव्यांश प्रकाशन रिषिकेश देहरादून से प्रकाशित है। इसके पंद्रह पृष्ठीय संपादकीय में संपादक ने संकलित कहानियों के कथ्य की क्रमानुसार चर्चा करके इनकी प्रासंगिकता तथा कथाशिल्प को बड़ी बारीकी और न्यायपूर्वक विवेचित किया है। इन कहानियों को संपादकीय दृष्टि से पढ़ते, आंकते जिस पाठकीय प्रभाव से महेश गुजरे हैं, उसे बेबाक कहा है। उनके अनुसार ये छोटी और मध्यम आकार की कहानियां कृत्रिमता से अछूती सहज संप्रेषणीय कथासंसार से साक्षात्कार कराती हैं। इन कहानियों को पढ़ते ऐसे महसूस होता है कि कथाकार कहानी के गलियारों से गुजरता हर किरदार के यथार्थ से जुड़ता, संवाद करता, कुछ अपनी सुनाता, कुछ उनकी सुनता हुआ उस अनुभूत सत्य को कहानी का स्वरूप देने तक बेचैन रहता है। कुछ ऐसी ही तड़़प हर कहानी के भीतर दिखती है। वास्तव में बल्लभ डोभाल पर समय-समय पर आए कथा आंदोलनों का प्रभाव साफ दिखता है।

इनका पूरा जीवन पहाड़़ और महानगर के बदलते तेवरों को सहते गुजरा है। हर आंदोलन की कथ्य और शिल्प की संवेदना ने इन्हें प्रभावित करने का प्रयास किया जो स्पष्ट लक्षित भी होता है, परंतु इन्होंने कहानी की अपनी अवधारणा को पूर्णतया प्रभावित नहीं होने दिया। इनका कथाशिल्प वर्णात्मक न होकर पात्रों की मनोभूमिका को स्पर्श करता उनके भीतर के द्वंद्व और समस्या को संवाद शैली से कहने कहलवाने का प्रयास करता है। प्राय: अधिकांश कहानियों के हर किरदार का नैरेटर के साथ सहज संवाद ही इन कहानियों का सृजनात्मक सौंदर्य है। कहानी के पात्र स्वयं अपने भीतर को टटोलने और समस्या के कारण को बताने में मुखर हैं। अधिकांश कहानियां समय के साथ विभिन्न राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। फिर भी इनका कथाशिल्प पाठक को बार-बार पढऩे को विवश करता है। कथा-कहानी वही लोकप्रिय होती है या पाठक-श्रोता मानस को प्रभावित करती है जिसमें उसकी कोई मनोवैज्ञानिक तरस या द्वंद्व छिपा होता है। कहानी में वही जिज्ञासा उसकी तलाश में रहती है। खेत में कविता, दफ्तर दीक्षा, मकान रोग, जन से बनता तंत्र, कितना बड़ा इनसान, नाट्यकर्मी, चिपको-चिपको, कलि कथा, उसका स्वर्ग, किसी भी कहानी को उठाकर देखें, उसमें कथन को कहने का अपना अलग अंदाज और जिया यथार्थ मिलता है, जो कहानी होते भी सच होने का एहसास कराता है। कथाकार का निजी दर्शन होता है जिसका संप्रेषण वह कथा पात्रों के माध्यम से करता है। वह जितना प्रासंगिक होता है उतना ही पाठक मानस को प्रभावित करता या पकड़ता है।

संपादक ने स्पष्ट किया है कि डोभाल विचार कथाएं लिखते हैं। उदाहरण है तन का देश, मन का देश कहानी। यह कहानी स्त्री-पुरुषों के संबंधों से होती जीवन में हुए परिवर्तन तक आ जाती है। स्त्री का पुरुष बनना और पारिवारिक स्थितियों से टूटकर फिर पुरुष बन जाना, परिवार के भीतर भर का मसला भर नहीं रह गया है। यह सत्ता षड्यंत्र से जुड़ जाता है। संबंध के बीच की सहजता जाती रहती है। एक समय ऐसा भी आता है कि वह राग-विराग में उलझकर वैरागी बन जाना चाहता है। परंतु औरत उसे पुन: घर लाती है, उसमें जीवन को जीने का उत्साह भरती है। मानवीय जीवन का यह सत्य कथाओं, महाकाव्यों आदि में अपनी-अपनी वैचारिक स्थापनाओं के अनुरूप कहा गया है। कहानी हो या काव्य की कोई अन्य विधा, उसका सुखांतक होना ही भारतीय सृजनधर्मिता रही है। सुख-दुख का तराजू ही जीवन को संतुलित बनाता है जिसके लिए हर संसारी जीव संघर्षरत रहता है। जन से बना तंत्र, वर्तमान में बदलती आम आदमी की सोच को व्याख्यायित, परिभाषित करती कहानी है। इसमें गांवों का शहर को पलायन और वहां से विदेश जाने, आर्थिक विकास की विदेशियत सूची में स्वयं को दर्ज कराने की बलवती इच्छा संवाद का विषय बना है। परंतु इस सबसे आम आदमी की अवधारणा टस से मस नहीं होती। वह अपनी ही सहजता में जीना चाहता है। समग्र रूप में प्रस्तुत कहानी संग्रह बल्लभ डोभाल के कथाशिल्पी स्वरूप को अनेकविध व्याख्या-आयाम देता समकालीन कथा लेखन की अनेक दिशाएं भी सुझाता है।

हर युग में हर कथाकार का कथा सोचने, कहने, लिखने का नजरिया निजी रहा है। प्रेमचंद की सामाजिक दृष्टि, प्रसाद की सांस्कृतिक और जैनेन्द्र, जोशी की मनोवैज्ञानिक जिज्ञासु दृष्टि, वर्तमान में तंत्रविधान के बदलते तेवर, गांव से शहर को पलायन और वापसी, आर्थिक समर्थ को बढ़ाने की चाह में बढ़ता अनाचार, स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों में बढ़ती-घटती दरारें, व्यवहार में बढ़ता स्वार्थ वर्तमान को समझने-जीने की दिक्कतें बढ़ा रहा है। आज की कहानी इन सारी सामयिक स्थितियों से गुजरती पाठक को आत्मविश्लेषण की ओर प्रवृत करती है। वर्तमान के वैज्ञानिक विकास में जीने वाला मनुष्य किसी भी उपदेश को सुनने, पालन करने का इच्छुक नहीं, अत: उसे आत्मविश्लेषण ही दिशा दे सकता है। कथा हमारे सम्मुख स्थितियों को बिखेरती है, जिन्हें सोच-समझकर हमें ही निर्णय लेना है। अत: अधिकांश कहानियों में कथाकार स्वयं कम और किरदार अधिक कहने लगा है। बल्लभ जी की कहानियां उसी मार्ग पर बतियाती मिलती हैं। इनकी भाषा भी अपनी है, सहज, विषयानुरूप, पात्र की सोच और सामाजिक व्यवहार के स्तर पर मुहावरेदार, मीठी और सरस व्यंग्यपूर्ण, पात्र की स्थितिजन्य मानसिकता को शब्द देती। डोभाल ने लेखन के बल पर ही पूरा जीवन जिया, हर जरूरत इसी से पूरी की, महानगर के हर छोटे-बड़े साहित्यकार से जुड़े, हर विधा का लेखन कर जीविका चुनौतियों का सामना तथा जुगाड़ करते आत्मसम्मान से हर महफिल और सभा सम्मेलन में अपनी दार्शनिकता से प्रभावित किया।

-डा. गौतम शर्मा व्यथित, साहित्यकार


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