हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : 48

By: Mar 23rd, 2024 7:33 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-48

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘आपका राजा’ में सामंती जीवन के खोखलेपन का चित्रण है। ‘चमीणू की चट्टान पर’ में पर्यावरण के असंतुलन और बादल फटने जैसी घटनाओं के लिए उत्तरदायी स्थितियों का चित्रण है। प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ और अबाध कटान आदि के कारण प्रकृति कुपित होकर निर्मम हो जाती है, तो बादल फटने जैसी घटनाएं घटित होती हैं। ‘मम्मी को छुट्टी है’ शीर्षक कहानी बाल मनोविज्ञान पर आधारित है। इसमें बालकों के सहज स्वाभाविक वार्तालाप से उनकी धारणाओं, मान्यताओं, जिज्ञासाओं का चित्रण है। कामकाजी माता-पिता के बालक अपने माता-पिता के अवकाश की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उनकी भी यह उत्कंठा होती है कि वे भी अन्य बालकों की भांति मां के स्नेहिल सान्निध्य में अधिक समय तक रहें। ‘नीरू की लाड़ी’ में चाय बागान में पत्ती तोडऩे वाले परिवार में नवविवाहिता के आगमन पर उनकी विवशताओं से उत्पन्न अजीब स्थितियों का निरूपण है। कामगार निर्धन परिवार की सास नवविवाहिता को पहली रात्रि में बागान के मालिक की कोठी पर इसलिए छोड़ती है कि कोठी में नववधू को ले जाने की परंपरा है। सास नवविवाहिता को कोठी में छोड़ती है। नववधू क्रद्ध, क्षुब्ध और सशंकित भी होती है।

बागान के मालिक और मालकिन की परस्पर बातचीत और नोक-झोंक से उसे पूरी तरह ज्ञात होता है, इस तरह की कोई रिवाज नहीं है। लाला की पत्नी को आभास हो जाता है कि कोई स्त्री घर में है। नववधू कोठी के कमरे में घुटन अनुभव करती है, वह कमरे की खिडक़ी खोलती है जिसकी आवाज मालकिन के संशय को सुदृढ़ करती है। कमरे के ताले को खुलवाया जाता है और सारा रहस्य अनावृत्त होता है। इस प्रकार मालकिन और नवविवाहिता की सूझबूझ से मालिक की वासनात्मक कुदृष्टि अनावृत होती है। कहानी मालिक के कामगारों की विवशताओं का लाभ उठाकर उनके शोषण को निरूपित करती है। ‘कैमरा खाली है’ हिमाचल की संस्कृति के प्रतीक मेलों की पृष्ठभूमि में सृजित कहानी है। इसमें समाज की विसंगतियों और अंधविश्वासों को अनावृत किया है। ‘जाच’, दिन मेला और ‘नरशु’ रात का मेला के संदर्भ में यह उद्घाटित किया है कि मेले में फोटो खींचना निषेध और अपराध है। नैरेटर जब मेले में कैमरे से फोटो खींचता है तो उस पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसने लडक़ी का फोटो लिया है। कहानी यह भी उद्घाटित करती है कि सफेद कमीज वाला लडक़ा मेले में फोटो खींचने के विरोध में सबसे आगे होता है, परंतु वही कचरी आंखों वाली युवती के साथ कमरे में बंद होता है। इस स्थिति को देखकर इज्जत का सवाल उठाया जाता है। इस सवाल पर युवक को दो सौ रुपए देने पड़ते हैं।

कहानीकार इस संदर्भ में यह उद्घाटित करता है कि मेले में फोटो उतारना तो अपराध है, परंतु युवती की इज्जत दो सौ रुपए में वापस ले ली जाती है। ‘बूढ़ी काई’ शीर्षक कहानी में एक भरे-पूरे परिवार की बूढ़ी काई राधा की व्यथा कथा है जो परिवार की उपेक्षा की शिकार होती है। नारों की शव यात्रा, टेलीफोन, मदारी, सिलती रही वक्ष आदि इस संग्रह की अन्य उल्लेखनीय कहानियां हैं जो सामाजिक सरोकारों से संबद्ध हैं। कहानियां अपनी वस्तु की प्राणवत्ता के साथ कहानीकार के दृष्टिकोण और ट्रीटमेंट को बहुविध रूप में सामने लाती हैं। त्रिलोक मेहरा की कहानियां किसी वायवीय जगत की सृष्टि नहीं करती। बिना किसी चमत्कृति के पाठक का विवेक जाग्रत करती हैं। ग्रामीण जीवन की स्पंदन को अनुभूत कराने वाली इन कहानियों की भाषा का सौष्ठव भी आकर्षित करता है। सुदर्शन वशिष्ठ का ‘वसीयत’ शीर्षक कहानी संग्रह सन 2006 में प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह में उनकी पंद्रह कहानियां- मीठा भात, पिता की ऐनक, पिता क्या सोचते हैं, वसीयत, शहादत, मूर्ति से बाहर, यह स्टोरी नहीं, अपनी जमीन में, दूसरे घर में, दंगल, बिरादरी बाहर, खाली कुर्सी, अथ श्रीसचिवालय कथा, दबाव और कहां गया वह आदमी संगृहीत हैं। ‘मीठा भात’ में कहानीकार ने एक साथ नगरीय जीवन की आत्मकेंद्रिता और गांव के जीवन के परस्पर निस्वार्थ सहयोग, आत्मीय भाव का चित्रण किया है। बदलते परिवेश और परिस्थितियों के कारण संयुक्त परिवार के विघटन से शहर में वर्षों तक रहने वाला कथा नायक जब गांव लौटता है तो गांव के जीवन की सादगी और आत्मीयता उसके हृदय को अभिभूत करती है। अपने जन्म से लेकर शहर जाने तक के जीवन का प्रत्यवलोकन करता है। गांव के प्रति उसके अंतर्मन में मोह हो जाता है। उसके ताया भी यही कहते हैं कि अपनी पुश्तैनी जमीन अपनी जमीन होती है, उसे कभी छोडऩा नहीं चाहिए। उसकी बेकदरी नहीं करनी चाहिए। वह उन्हें गांव में घर बनाने का परामर्श देता है। ताई का कथन आत्मीयता का स्पर्श करवाता है। ताई रोते-रोते कहती है, ‘इन्होंने कुछ नहीं बणाणा यहां।

सुना है वहां भी घर ले लिया है। इसे क्यों पूछ रहे हो इसका क्या कसूर। इसका क्या है इसमें।’ आज देवरानी होती तो कहकर ताई सूबकने लगती है। कहानीकार ने कहानी के अंत में यह भी स्पष्ट किया है कि शहरों में रहने वाले लोग गांव में रहने वालों लोगों को गंवार समझते हैं। वह सोचता है, ‘वे सब कुछ जानते हैं, हम सबसे कहीं ज्यादा मंत्र दृष्टा हैं वे, भविष्य दृष्टा हैं। बीता वक्त तो जाना ही उन्होंने, बहुत आगे की बात भी जानी। हम जिन्हें अनपढ़ गंवार समझते हैं वे कितने सूत्र वाक्य बोलते हैं। जो बात वे कहते हैं, वह उनके मन की गहराई से निकलती है। कहते हुए वे उसे जीते हैं जिनके बारे में हम कभी नहीं सोचते, वे हमारे बारे में कितने चिंतित रहते हैं।’ कहानी के अंत में भोजन करते हुए कथा नायक ताया से पतीले के तले में लगे हुए मीठे भात को मांगता है, इस लगे हुए लाल भात का स्वाद ही और होता है। मीठा भात खाते हुए ताई के वात्सल्यपूर्ण व्यवहार को अनुभव कर अतीत की स्मृतियों में डूब कर उसे ताई में साक्षात मां दिखाई देती है और उसका मन विह्वल हो उठता है।
‘पिता की ऐनक’ में मध्यवर्गीय वृद्ध पिता के संघर्ष का चित्रण है जो शहर में कंपनी की नौकरी करता है, बच्चों को पढ़ाता है, बहन की शादी करता है। जीवन भर आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुए शहर में किराए के मकान में गुजारा करता है। सेवानिवृत्ति के अनंतर गांव लौटता है, जहां प्राइवेट स्कूल में मुख्याध्यापक की नौकरी करता है। कहानीकार ने गांव में पिता की जीवनचर्या, निजी अव्यवस्थित जीवन को चित्रित किया है। अंतत: वह गांव की नौकरी छोडक़र कहीं शहर के कोने में कमरा लेकर रहने की सोचता है। कहानी के अंत में पिता को पुश्तैनी घर में बडक़े या पिता की पुरानी ऐनक मिलती है। ऐनक को एक प्रतीक के रूप में उभारा है जिसमें वह अपने बेटे को देखते हुए अपने जीवन के तीस वर्ष पूर्व पहुंच जाता है। लंबे समय तक शहर में नौकरी करने के कारण पिता अपने आप को गांव में मिसफिट पाता है, इसीलिए बेटे से कहता है, ‘इस घर को बेच कर कहीं शहर में बाजार के नजदीक रहते हैं। एकाध कमरा ही मिल जाए, वहां स्कूल खोलेंगे। कोई दूसरा धंधा करेंगे।’ जीवन भर शहरों में रहने के अनंतर उसमें गांव में पुन: लौटने की तीव्र उत्कंठा तो होती है परंतु उसे गांव में रहना दुष्कर प्रतीत होता है। कहानी में पिता की चरित्र सृष्टि के माध्यम से इसे निरूपित किया है।

‘पिता क्या सोचते हैं’ शीर्षक कहानी में भी पिता के रूप में एक ऐसे चरित्र की सृष्टि की गई है जिसे पुत्र गांव से शहर ले जाने के लिए आया है, परंतु वह शहर जाने के लिए तैयार नहीं होता। ‘वसीयत’ प्रस्तुत संग्रह की शीर्षक कहानी है जिसमें वृद्ध जीवन की समस्याओं को कहानीकार ने विश्वनाथ और जय किशन के जीवन संघर्ष और जीवन के उत्तरार्ध में अकेलेपन की नियति के संदर्भ में निरूपित किया है। जय किशन का बेटा और बहू विदेश में हैं। घर का एकाकीपन उसे पीड़ा देता है। एक बड़ी कोठी की वीरानी से निकलकर दूसरे वृद्ध जनों के साथ ‘ओल्ड होम’ में रहने लगता है। इसी भांति विश्वनाथ के तीन बेटे भी विभिन्न दिशाओं में चले गए हैं, वह भी अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए सेंट स्टीफंस स्कूल में प्रिंसिपल की पोस्ट के लिए तैयारी करता है और इस इंटरव्यू में उसे प्रिंसिपल रख लिया जाता है।

 ‘दंगल’ पहाड़ी जीवन के अतीत के उस पक्ष को अनावृत करती है जिसमें पहाड़ी क्षेत्रों में दंगल और लोक मेले आयोजित होते थे और उनके प्रति सामान्य जन में उत्साह होता था। ‘अपनी जमीन में’ शीर्षक कहानी में कंडूराम चपरासी के माध्यम से पहाड़ी लोगों के सरल हृदय को उद्घाटित किया है। कहानीकार ने पहाड़ी जीवन की सादगी का लाभ उठाने वाले दिल्ली के व्यापारी द्वारा सस्ते दामों पर जमीन खरीद कर उसकी जमीन पर रिजॉर्ट बनाकर उसे ही माली बनाकर रखने की विडंबना को चित्रित किया है। यह कहानी पूंजीपति वर्ग की जालसाजी, चालाकी और शोषणमूलक चेहरे को अनावृत करती है। ‘बिरादरी बाहर’ शीर्षक कहानी में कहानीकार ने यह प्रतिपादित किया है कि पढ़-लिखकर आरक्षण के आधार पर नौकरी प्राप्त कर अपने स्तर के उन्नत होने पर उन लोगों की मनोवृति उद्घाटित की है जो अपने वर्ग के लोगों से एलिनिएट हो जाते हैं। संदर्भित कहानी में लौंगू का बेटा पदोन्नत होकर बचपन के आतो नाम से एआर कमल, मुख्य अभियंता के स्तर तक पहुंचता है। इसका प्रमाणिक चित्रण कहानी प्रस्तुत करती है। अपने स्टेटस के ऊंचा होने पर उन्हें अपनी जाति और वर्ग से अलगाव का भाव उत्पन्न होता है। दलित पिता के दो बेटे अधिकारी बनकर न केवल अपने पिता के संघर्ष को विस्मृत करते हैं, अपितु वृद्धावस्था में पिता-पुत्र के संबंध में बेगानापन आ जाता है। पिता पुत्र के पास शहर में बड़ी कोठी में आता है, परंतु वहां उसकी हैसियत एक नौकर सी होती है। वह घर के कोने में पड़ा अपने आप को उपेक्षित अनुभव करता है।

कोठी का नौकर बिहारी पूछता है, ‘बाबूजी सच-सच बताना, आपने एक दिन मेरी जात पूछी थी न, अब आप बताओ आप कौन जात हैं?’ पिता कहता है, ‘हम तो बच्चा बहुत छोटी जात हैं, हमारा बेटा ऊंची जात का है।’ इसके अतिरिक्त कहानीकार ने यह भी प्रतिपादित किया है कि नए जमाने और नए बाजारवाद के आगमन से गांव के कुटीर उद्योग पूरी तरह से छिन जाने के कारण लौंगू जैसे बहुत से पिता वृद्धावस्था में इस तरह की दुखद नियति से गुजरते हैं। ‘अथ श्रीसचिवालय कथा’ शीर्षक कहानी दफ्तरी व्यवस्था की सच्चाई को सामने लाती है। सचिवालय की कथा महात्म्य, जगतार उपाख्यान, जीतराम की कथा, कथा बाबू लायक राम की, अफसर उपाख्यान आदि शीर्षकों में सचिवों के घर के महात्म्य से लेकर नेता, चपरासी, नेतानुमा सेवादार, बाबू, अफसर- सभी का चित्रण प्रतिनिधि के रूप में करते हुए वहां कार्यरत प्रत्येक श्रेणी के कर्मचारियों की कार्यविधि के यथार्थ को सामने लाया है।                                         -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : ‘मुकदी गल्ल’ में विविध भावों की अभिव्यंजना

सुरेश भारद्वाज निराश के हिमाचली पहाड़ी काव्य संग्रह ‘मुकदी गल्ल’ में विविध भावों की चिताकर्षक अभिव्यंजना हुई है। दि पेनमान प्रेस, बागपत, उत्तर प्रदेश से प्रकाशित इस काव्य संग्रह की कीमत 375 रुपए है। इसमें 60 पहाड़ी कविताएं संग्रहित हैं। कुछ रचनाएं लंबी, तो कुछ छोटी हैं। सामाजिक सरोकार, सामाजिक व्यवहार, मेल-मिलाप, रीति-रिवाज, रहन-सहन, हमारी सोच, खानपान, आस-पड़ोस, मानव जीवन, कत्र्तव्य तथा हमारे वीर सैनिक इन कविताओं के विषय बने हैं। जो भी भाव कवि के मन में उपजा है, उसे उन्होंने कलमबद्ध किया है। ‘राती दा मरया’ का भाव देखिए- ‘राती दे मरयो जो कितणा क रोणा/सुक्किया धरतु किछ नहीं लुंगोणा/बड्डियां जोकांयै खून लेया चूसी/गरीबां दा हक कितणा क मरोणा/ना तौअ ना पीड़ ना बमारी न मंजा/उप्परे दा सिद्दा टिकटै कटोणा।’ इसी तरह ‘कंकरीटा रे जंगल बणे’ नामक कविता में कवि अपने भाव इस तरह व्यक्त करता है- ‘कंकरीटा रे जंगल बणे कितणे होर मकान बणांह्गा/गरीब बिचारा दो टैम दर किह्यां सुकियां खांह्गा/सरकी भ्याल़ तक्कादे काह्लू मरै तां कव्जा करिए/पटोई पटोई कजो जोडय़ा कितणा कन्नै लेई जांह्गा।’ इसी तरह कवि ‘जीएसटी’ नामक कविता में इसके लाभ बता रहा है- ‘पिछले किछ दशकां ते बपार बणया था तंत्र/जीएसटीयै इक्को मित्रो बस बचणे दा मंत्र/केंद्र दा बखरा टैक्स राज सरकारा दा बखरा/उपभोक्ता बणया रैहंदा म्हेशा बल़ी दा बकरा।’ अगली कविता ‘सुण मित्रा मेरेया’ में कवि समाज की हकीकत को बयां कर रहा है- ‘बृद्ध आश्रमे दियां पैडिय़ां पर मैं बेही नै बड़ा सोचेया/करमा च लिखया मिलणा तूं कजो भुडक़दा रैंह्दा/बड़ा इ मतलवी एह माह्णु अपणी अपणी करदा/जंजालां च फसाई होरना जो अप्पु छुडक़दा रैंह्दा।’ इसी तरह संग्रह की अन्य कविताएं भी पाठकों को आकर्षित करती हैं।                                                                                    -फीचर डेस्क

मंदबुद्धि का समझदार चरित्र ‘डांडी’

डा. धर्मपाल साहिल के उपन्यासों में पंजाब के कंडी क्षेत्र की उपस्थिति का एक और दरवाजा ‘डांडी’ के मार्फत खुल रहा है। ‘डांडी’ उपन्यास जीवन के चित्रण में मासूमियत की एक लंबी यात्रा पर पाठक को ले जा रहा है, जहां तर्कों की विभूति असमान्य को मान्य और सामान्य को विवशताओं के गूढ़ रहस्य तक ले जाकर छोड़ देती है। अपनी ही कहानी ‘प्यासा इंद्र’ को तृप्त करने के लिए लेखक उपन्यास की छबील पर खड़ा होकर बहुत कुछ पूछ रहा है और जहां पाठक, समीक्षक और आलोचक के लिए छोटी-छोटी बूंदों के कई महासागर निकल आते हैं। कहानी एक मंदबुद्धि इनसान किशन के समीप अद्भुत संसार रचती और संसार के रचयिता की पहेलियों का गूढ़ अर्थ निकालती हुई, जीवन के कई पहलू और मनोविज्ञान पैदा कर देती है। किशन अपने अज्ञान के बावजूद ईश्वर का बेटा, समाज का ताबेदार, स्कूल का सेवक, गांव का पहरेदार और पत्नी व प्रेम का वफादार साबित होता है। उपन्यास की यह शक्ति तो है कि उपन्यासकार जिस पात्र की मुख्य भूमिका को तराश रहा है, उसके औचित्य को सर्वोपरि भी बना रहा है। एक व्यक्ति जिसे अपने होने का पता नहीं। आगे बढऩे की उमंग नहीं। सामाजिक व पारिवारिक चालबाजियों का संज्ञान नहीं, वह किशन एक दिन राधे-राधे के अवतार में सर्वमान्य हो जाता है, ‘धीरे-धीरे लोग किशन के पुराने रूप को भूलकर उसे ‘राधे-राधे’ के नए रूप में जानने लगे थे। उसे महसूस होता ‘राधा’ उसके अंग-संग ही है। यह आनंद गूंगे के गुड़ खाने के स्वाद जैसा अनुभव था।’ उपन्यास की संरचना में डा. साहिल लोक संस्कृति की कलम और परंपराओं का संरक्षण भी कर रहे हैं। वह कहीं प्रकृति की खुली पलकों से रोशनी ढूंढ लाते हैं, तो कहीं आंचलिक भाषा के खेत पर व्यंग्य, परिदृश्य, मनोविज्ञान और परंपराओं को बीज देते हैं। उपन्यास में मां-बाप के सामने एक बच्चे का मंदबुद्धि होना सृष्टि से प्रश्न करता है, तो किशन की मां अपने जीवन के जलते प्रश्नों की चिता पर बैठकर सोचती है कि उसके बाद क्या होगा, ‘फिरी ईधा के होगा। जींदियां जी तां मैं ईधी पराखोरी (देखभाल) करी लैंगी, पर मेरे मगरों कुनी सांभणा (सम्भालना) ईनूं।’ और हुआ भी यही, मां-बाप के बाद वह भाई बिशन दास व भाभी विमलो के बीच एक पारिवारिक संपत्ति बनकर रह गया। एक नौकर, एक सेवक और एक तर्कहीन गुलाम की तरह वह सिर्फ चंद रोटी के टुकड़ों का मोहताज बना दिया गया। लेखक एक मंदबुद्धि इनसान में मनुष्य की संरचना के सभी भाव, संवेदना और जीवन उत्पत्ति के लक्षणों में ऐसे तर्क पैदा करते हैं, जो उसे पूर्ण बनाने की शक्ति देते हैं, ‘वास्तव में किशन पागल नहीं, मंदबुद्धि था। दिमाग में कुछ कमी-सी थी। शरीर के बाकी सभी अंग पूर्ण विकसित, तंदरुस्त व क्रियाशील थे।

वह स्वयं सोचकर कोई फैसला नहीं ले पाता। न उसे कोई बहाना गढऩा आता और न ही उसे अपने नफे-नुकसान से कोई सरोकार था। शायद मंदबुद्धि करके ही उसका मन निर्मल तथा शीशे की तरह पाक साफ था।’ उपन्यास के भीतर प्रेम की गागर इस कद्र भरी जाती है कि ‘मौजां ही मौजां’ के संबोधन किशन को भी देह कामना के दरिया में पूरी तरह डुबो देते हैं। राधा से उसका मिलन सारे नाट्यक्रम को बदल देता है और अपनी केंद्रीय भूमिका में एक औरत का चरित्र सारे उपन्यास को कब्जे में कर लेता है। पति को शोषण से बचाती राधा और उसे जीवन सिखाती प्रेमिका, वास्तव में नारी शक्ति का उद्गार है। उपन्यास समाज के भीतर अपनी गति से चलते हुए, तमाम विडंबनाओं, विवशताओं, आर्थिक विषमताओं, जमीन पर उगते मनुष्य के पत्थर रिश्तों और सामाजिक चरित्रों से रूबरू होते हुए भी एक मंदबुद्धि इनसान के भीतर के गुरुत्तर को खोज लाता है। वह संसार को ढोने का जरिया हो सकता है या रिश्तों की बुनियाद पर एक संदेश की तरह कहता है, प्रेम अपंग या मंदबुद्धि नहीं होता। यह चिंगारी दिल से मन मस्तिष्क तक एक जैसा असर रखती है। उपन्यास मानव फितरत की उद्दंडता पर प्रहार करते हुए एक लंबी लकीर खींचता है, जिसके ऊपर चलते हुए किशन आगे चलकर राधे-राधे होकर पूजनीय हो जाता है। उसके लिए जो निजी था, वह भी अमानत बनकर करीब हो जाता है और जो उसे ठुकराना या दबाना चाहते थे, वे परिदृश्य से लुप्त हो जाते हैं। अंत में उपन्यास कहीं कह रहा है, किसी मंदबुद्धि इनसान के मनोविज्ञान को पढऩे के लिए उसके आसपास के परिवेश को समझना जरूरी है। सांसारिक घटनाक्रम के इर्द-गिर्द बुद्धि, बौद्धिक तर्क, बौद्धिक लालसा व बौद्धिक स्वार्थ के तकनीक में सामान्य आदमी तो भटक सकता है, लेकिन मंदबुद्धि नहीं।                                                                                                                            -निर्मल असो

उपन्यास : डांडी
लेखक : डा. धर्मपाल साहिल
प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स, नोएडा
मूल्य : 300 रुपए


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App