देश के लिए हंसते-हंसते चूम लिया फांसी को

By: Mar 25th, 2024 12:05 am

इस क्रांतिकारी दल का एक ही उद्देश्य था, सेवा और त्याग की भावना मन में लिए देश पर प्राण न्योछावर कर सकने वाले नौजवानों को तैयार करना। लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला लेने के लिए 17 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह और राजगुरु ने अंग्रेज अफसर सांडर्स पर गोलियां चलाईं…

भारत को स्वतंत्रता दिलाने में अनेक क्रांतिकारी सेनानियों व युवाओं का योगदान रहा है। युवा ऐसे मानो आजादी के सिवाए उन्हें कुछ भी मंजूर न हो। देश को वर्तमान परिदृश्य तक लाने के सफर में न जाने कितने युवा क्रांतिकारी व सेनानियों ने अपने प्राण न्योछावर किए हैं, जिनके प्राणों की आहुति से आज हम खुली हवा में सांस ले पाते हैं। ऐसे ही बलिदानियों में शुमार हैं भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव, जो ऐसी उम्र में फांसी पर चढ़े, जिस उम्र में आजकल युवाओं को अपने अच्छे या बुरे का बोध तक नहीं होता। उस उम्र में इन महान आत्माओं ने अपना जीवन देश की आजादी के प्रति न्योछावर कर दिया था। युवा पीढ़ी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के इतिहास को कभी न भूले, यह क्रांतिकारी नेता भारतीय समाज के लिए वह आदर्श हैं जिन्होंने अपनी अल्पायु में भारत को आजाद करवाने के लिए खुशी-खुशी फांसी का चूम लिया। हमें ऐसे क्रांतिकारी नेताओं के इतिहास को पढऩा चाहिए और ऐसे वीरों को याद रखना चाहिए। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई। इतिहास में 23 मार्च के दिन देश और दुनिया की कई महत्वपूर्ण घटनाएं दर्ज हुई हैं, लेकिन भगत सिंह व उनके साथी राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिया जाना भारत के इतिहास में दर्ज सबसे बड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के इतिहास में इस तिथि को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता। अगर आज हम नौजवान युवा पीढ़ी को देखें तो वे ऐसे वीर युवाओं के इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हमारी सरकारें भी उसी घिसे पिटे इतिहास को रटाती हैं, बाबर, औरंगजेब, हुमायूं और गजनवी जैसे आक्रांताओं के इतिहास पढ़ाए जाते हैं। भले ही आजकल इस दिशा में सकारात्मक परिवर्तन स्वागत योग्य है, लेकिन जिन्होंने भारत को कोई दिशा नहीं दी, बल्कि भारत को लूटा व सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले देश को गुलाम बना दिया, ऐसे शासकों के बारे में क्यों पढ़ाया जा रहा है, यह समझ से परे है। जरूरत है उस इतिहास को जानने की जिसमें युवाओं ने अपना बलिदान दिया है, अपने बलिदान से भारत की धरती को सींचा है। ऐसे नौजवानों के बलिदान को वर्तमान पीढ़ी कभी भी नहीं भुला सकती। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव भारत के वे सच्चे सपूत थे जिन्होंने अपनी देशभक्ति और देशप्रेम को अपने प्राणों से भी अधिक महत्व दिया और मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर कर गए। 23 मार्च, यानी देश के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले तीन वीर सपूतों का बलिदान दिवस। यह दिवस न केवल देश के प्रति सम्मान और हिंदुस्तानी होने पर गौरव का अनुभव कराता है, बल्कि वीर सपूतों के बलिदान को भीगे मन से श्रद्धांजलि देता है। उन अमर क्रांतिकारियों के बारे में आमजन की वैचारिक टिप्पणी का कोई अर्थ नहीं है। उनके उज्ज्वल चरित्रों को बस याद किया जा सकता है कि ऐसे मानव भी इस दुनिया में हुए हैं, जिनके आचरण किंवदंति हैं। भगत सिंह ने अपने अति संक्षिप्त जीवन में वैचारिक क्रांति की जो मशाल जलाई, उनके बाद अब किसी के लिए संभव न होगी। ‘आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है, लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।’ बम फेंकने के बाद भगत सिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था।

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने नौजवानों में पैदा कर दी थी स्वतंत्रता के प्रति दीवानगी। जब अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त हमारे देश में चारों ओर हाहाकार मची हुई थी, तो ऐसे में इस वीर भूमि ने अनेक वीर सपूत पैदा किए, जिन्होंने अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने की खातिर हंसते-हंसते देश की खातिर प्राण न्योछावर कर दिए। इन्हीं में तीन पक्के क्रांतिकारी दोस्त थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। इन तीनों ने अपने प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचारों से भारत के नौजवानों में स्वतंत्रता के प्रति ऐसी दीवानगी पैदा कर दी कि अंग्रेज सरकार को डर लगने लगा था कि कहीं उन्हें यह देश छोड़ कर भागना न पड़ जाए। तीनों ने ब्रिटिश सरकार की नाक में इतना दम कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 24 मार्च 1931 को तीनों को एक साथ फांसी देने की सजा सुना दी गई। इनकी फांसी की बात सुनकर लोग इतने भडक़ चुके थे कि उन्होंने भारी भीड़ के रूप में जेल को घेर लिया था। अंग्रेज इतने भयभीत थे कि कहीं विद्रोह न हो जाए। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए उन्होंने एक दिन पहले, यानी 23 मार्च 1931 की रात को ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी और चोरी छिपे उनके शवों को जंगल में ले जाकर जला दिया। जब लोगों को इस बात का पता लगा तो वे गुस्से में उधर भागे आए। अपनी जान बचाने और सबूत मिटाने के लिए अंग्रेजों ने उन वीरों की अधजली लाशों को बड़ी बेरहमी से नदी में फिंकवा दिया। छोटी उम्र में आजादी के दीवाने तीनों युवा अपने देश पर कुर्बान हो गए।

आज भी ये तीनों युवा नई पीढ़ी के आदर्श हैं। शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु, इन तीनों की शहादत को पूरा संसार सम्मान की नजर से देखता है और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। जहां एक ओर भगत सिंह और सुखदेव कालेज के युवा स्टुडैंट्स के रूप में भारत को आजाद कराने का सपना पाले थे, वहीं दूसरी ओर राजगुरु विद्याध्ययन के साथ कसरत के काफी शौकीन थे और उनका निशाना भी काफी तेज था। वे सब चंद्रशेखर आजाद के विचारों से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने क्रांतिकारी दल में शामिल होकर अपना विशेष स्थान बना लिया था। इस क्रांतिकारी दल का एक ही उद्देश्य था, सेवा और त्याग की भावना मन में लिए देश पर प्राण न्योछावर कर सकने वाले नौजवानों को तैयार करना। लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला लेने के लिए 17 दिसम्बर, 1928 को भगत सिंह और राजगुरु ने अंग्रेज अफसर सांडर्स पर गोलियां चलाईं और वहां से भाग निकले। बहरहाल, इन तीनों शहीदों को देश नमन करता है।

प्रो. मनोज डोगरा

शिक्षाविद


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