एक देश, कई चुनाव

By: Mar 16th, 2024 12:05 am

भारत के पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने ‘एक देश, एक चुनाव’ पर अपनी रपट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है। यह रपट व्यापक विमर्श का महादस्तावेज है, लिहाजा यह संदेह करना कि देश में एक ही पार्टी काम करेगी या 2029 के बाद देश में चुनाव ही नहीं होंगे, फिजूल और पूर्वाग्रह है। करीब 7 माह के दौरान 65 बैठकें की गईं, 11 रपटों का अध्ययन किया गया और 21,558 लोगों से बातचीत कर उनकी राय ली गई। उनमें से 80 फीसदी से अधिक लोग ‘एक देश, एक चुनाव’ के समर्थन में थे। विशालकाय रपट 18,626 पन्नों की है। गौरतलब यह है कि देश के चार पूर्व प्रधान न्यायाधीशों- जस्टिस दीपक मिश्रा, रंजन गोगोई, शरद अरविंद और यूयू ललित- ने ‘एक चुनाव’ का समर्थन किया है। उच्च न्यायालय के 12 पूर्व मुख्य न्यायाधीशों में से सिर्फ तीन ही विरोध में थे। जाहिर है कि कानून और संविधान के विशेषज्ञों का प्रचंड बहुमत ‘एक चुनाव’ के पक्ष में है। समिति ने 47 राजनीतिक दलों का पक्ष भी जाना, तो 15 दलों ने विरोध जताया। उनमें कांग्रेस, सीपीएम, बसपा, आप सरीखे राष्ट्रीय दलों समेत तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, सीपीआई, ओवैसी की पार्टी, एमडीएमके, नगा पीपुल्स फ्रंट, सीपीआई (एमएल) और सपा आदि क्षेत्रीय दल भी नई व्यवस्था के खिलाफ हैं। जाहिर है कि वे मौजूदा सत्ता-पक्ष भाजपा-एनडीए के विरोधी हैं, लेकिन क्या 32 राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के समर्थन को खारिज किया जा सकता है? याद रहे कि कांग्रेस ही उस समय देश पर राज कर रही थी, जब ‘एक चुनाव’ ही होते थे।

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाते थे। यह दीगर है कि तब संसाधन कम चाहिए थे और मतदान मतपत्रों के जरिए होते थे। अब मौजूदा आम चुनाव में ही 10 लाख से अधिक ईवीएम लगाई जाती हैं और 1.5 करोड़ से ज्यादा कर्मचारी चुनाव ड्यूटी देते हैं। सुरक्षा बलों की तैनाती इनसे अलग है। जाहिर है कि ‘एक चुनाव’ की स्थिति में ईवीएम ही 40 लाख के करीब चाहिए और सिर्फ दो कंपनियां ही देश में ईवीएम बनाती हैं। उनका उत्पादन औसत भी 4 लाख सालाना से कम है। चूंकि नई व्यवस्था 2029 के आम चुनाव से लागू करने की बात कही जा रही है, लिहाजा यह इतनी सहज और आसान व्यवस्था नहीं होगी कि देश में ‘एक चुनाव’ ही होने लगें। सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य तो यह है कि ‘एक चुनाव’ को शुरू करने के लिए संविधान में 18 संशोधन करने होंगे। संसद में कोई भी संविधान-संशोधन दो-तिहाई बहुमत, यानी 362 सांसदों के समर्थन, से ही संभव हो सकता है। हालांकि कुछ संशोधनों के लिए 50 फीसदी राज्यों की सहमति अनिवार्य नहीं है। स्थानीय निकाय चुनाव के लिए मतदाता सूची तैयार करने का अधिकार चुनाव आयोग को है।

इसके लिए अनुच्छेद 325 में बदलाव करना होगा। अनुच्छेद 324-ए में बदलाव करते हुए निगमों और पंचायतों के चुनाव भी आम चुनाव के साथ कराए जाएंगे। अनुच्छेद 368-ए के तहत ऐसे संविधान संशोधन बिल को 50 फीसदी राज्यों की सहमति अनिवार्य होगी। इसी तरह विधानसभा वाले संघशासित क्षेत्रों के लिए अलग से संविधान संशोधन बिल पारित कराने होंगे। दरअसल देश की आजादी के बाद पहला आम चुनाव 1952 में कराया गया। उसके बाद 1957, 1962 और 1967 तक ‘एक चुनाव’ की ही व्यवस्था थी, लेकिन 1968, 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गईं। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई, लिहाजा ‘एक चुनाव’ की परंपरा ही टूट गई। अब नए सिरे से वही व्यवस्था लागू करना पेचीदा मामला है, क्योंकि विधानसभाओं के कार्यकाल भिन्न हैं।


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