सियासी फ्रैंचाइजी

By: Mar 11th, 2024 12:05 am

देश का राजनीतिक ढांचा और सत्ता का दस्तूर अब नेताओं के सुपुर्द विचारधारा नहीं, चुनावी व्यापार की फ्रैंचाइजी दे रहा है। बड़े राज्यों की अमानत में राष्ट्रीय पार्टियों का यह चरित्र समझ आता है या क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व में सत्ता की फ्रैंचाइजी चल निकली है, लेकिन हिमाचल जैसे छोटे व संसाधनहीन राज्य में अगर सियासत फ्रैंचाइजी बांटने लगे, तो अस्थिरता यहां भी परिस्थितियों को हमेशा असामान्य बना देगी। कांग्रेस के शिखर नेतृत्व को यह सोचना होगा कि जनता ने चालीस और निर्दलीय विधायकों ने तीन सीटें सौंपकर जिस प्रदेश की सत्ता को विपक्ष के मुकाबले तमाम अटकलों से ऊपर, विरामों से दूर और दलबदल की आशंका से कोसों दूर रखा हो, वहां अंतत: नौ सीटें आत्मघाती क्यों हो गईं। क्या कांग्रेस के भेदिए या कांग्रेस के संपर्क सूत्र इतने शिथिल हैं या इनके कानों में अपनी सत्ता का ही फितूर गूंजता रहा, वरना ‘खतरों के खिलाड़ी’ जैसा शो न चलता। हैरानी यह कि कांग्रेस ने विभिन्न राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर सैंकड़ों नेता इसलिए गंवा दिए, क्योंकि नेतृत्व अपने ही आराम में विराम लगाने पर तुला रहा। यानी हर राज्य की फ्रैंचाइजी तय करके नेतृत्व आज भी सोच रहा है कि उसका सियासी माल चल जाएगा, हालांकि इस अवधारणा के विपरीत कांग्रेस का सियासी माल अगर बिक रहा है, तो सामने भाजपा का पलड़ा भारी हो रहा है। कांग्रेस को या तो इसलिए सत्ता नहीं मिल रही, क्योंकि वहां सरकार बनाने के लिए कुछ क्षत्रपों को ही फ्रैंचाइजी दी गई है या इसलिए भी कि नई राजनीति में वही पुराने ढर्रे से माल बेचा जा रहा है।

मध्यप्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलोत को मिली कांग्रेस की फ्रैंचाइजी ने इसीलिए सारा व्यापार खट्टा कर दिया। कांग्रेस अपने दायित्व, उत्तराधिकार और दरबारी आधार पर जिस नेता पर दांव लगाती है, वह आगे-आगे चलकर प्रदेश में अपने प्रमुख की फ्रैंचाइजी आबंटित कर रहा है। यह दोनों तरह से है यानी संगठन में भी यही खोट है, जबकि सत्ता के पास फ्रैंचाइजी देने के हक में अनेक और विशेषाधिकार हैं। इन्हीं में अगर कल तक मंत्री पद थे, तो अब कैबिनेट रैंक से सुसज्जित होने की फ्रैंचाइजी भी उपलब्ध है। सियासत जिस तरह के विकल्पों में आम जनता से संबोधित है, वहां मतदाता केवल कठपुतली हैं और हमारे सामने नित नए नृत्य हो रहे हैं। ऐसे में फ्रैंचाइजी के नियमों और लाभ-हानि पर केंद्रित व्यवस्था पैदा हो रही है। हिमाचल में जिस तरह के फैसले पिछली चार सरकारों ने लिए हैं, उससे मालूम होता है कि प्रदेश का सारा धंधा कर्मचारियों ने छीन लिया है, जबकि सत्ता का चेहरा नौकरशाही और अफसरशाही को अपनी फ्रैंचाइजी में प्रयोगात्मक ढंग से चयनित करता रहता है। स्थानांतरण में न तो नियम और न ही नीति के प्रति कोई भी सरकार इसलिए गंभीरता नहीं दिखाती, क्योंकि हर किसी को फ्रैंचाइजी बचानी है। अभी भाजपा की सरकार से दूर हुए या खदेड़े गए छह विधायकों और सत्ता के बीच हम इसी फ्रैंचाइजी का नेटवर्क देख सकते हैं।

जिस तरह कुछ एसडीएम को काले पानी की सजा हुई, उससे लगता है कि वे विधायकों की फ्रैंचाइजी में काम कर रहे थे, या अब जाकर मालूम हुआ कि वास्तव में व्यवस्था इसी का नाम है। हम जिसे राजनीति कहते हैं, उससे भी खतरनाक है सत्ता के आबंटन में फ्रैंचाइजी मॉडल का सफल होना। यह एक तरह से छोटे-छोटे दुर्गों का आबंटन है, जहां कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता है। जब पुलिस के ड्यूटी चार्ट में वीआईपी सेवा को अधिमान मिले, मंचों पर नौकर व अफसरशाही विराजमान रहे और सारी व्यवस्था मात्र गुणगान हो, तो समझ जाइए कि दिल्ली से शिमला तक के दरबारों में सरकारें अपने भरोसे के लिए भरोसेमंद लोगों को फ्रैंचाइजी बांट रही हैं। इस दौड़ में देश की हर पार्टी, व्यवस्था का हर पात्र, बजट का हर अंश और नागरिक समाज का हर दायित्व शरीक हो चुका है।


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