अदालती दरवाजे पर ये आंसू

By: Mar 16th, 2024 12:05 am

आय प्रमाणपत्र की जरूरत पर आम आदमी के अधिकार अगर अदालत के दरपेश सरकारी कार्यसंस्कृति का निकम्मापन साबित हो सकते हैं, तो जनता की व्यथा का अंदाजा लगाया जा सकता है। माननीय हाई कोर्ट ने आनी के तहसीलदार की कार्यशैली पर प्रतिकूल टिप्पणी नहीं, बल्कि सरकारी व्यवस्था के कर्ताधर्ताओं पर गंभीर प्रश्र चिन्ह लगाए हैं। हैरानी यह कि तमाम गारंटियों, सुशासन के वादों और नित नए प्रयोगों के बावजूद ढर्रा वहीं का वहीं टिका है। एक महिला के आय प्रमाणपत्र के सत्यापन को मिलीं प्रशासनिक ठोकरें, यह लिहाज भी न कर पाईं कि इससे कार्यसंस्कृति, व्यवस्था व सरकार की बदनामी होगी और एक अधिकारी ने एडीएम कोर्ट के आदेश को कारपेट के नीचे छुपा दिया। जो कार्य 22 दिसंबर 2022 को निचले स्तर पर सामान्य प्रक्रिया में हो जाना चाहिए था, उसे सवा साल बाद उच्च न्यायालय के निर्देश पर हल करने का न्याय मिल रहा है। यहां वाजिब सवाल यही है कि प्रशासनिक प्रक्रिया के कायदे-कानूनों में इतनी शिथिलता आ गई है कि आम नागरिक को अदालती प्रक्रिया के उच्च स्तर ढूंढने पड़ेंगे। अगर इसी माथा रगड़ाई के चरित्र में हिमाचल का शासन-प्रशासन चलता रहा, तो अदालतों के दरवाजे पर समाज की जरूरतें आंसुओं से भीगी दिखाई देंगी। जाहिर तौर पर अदालत की टिप्पणी पर गौर फरमाते हुए प्रदेश सरकार को प्रशासनिक सुधारों की दृष्टि से हर दफ्तर को संवेदनशील, कार्यप्रणाली, पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए सुधारों व नियमों की नई परिपाटी स्थापित करनी होगी।

बेशक पिछली सरकार ने जनमंचों की अंतहीन श्रृंखला खड़ी कर दी या मौजूदा सरकार ने ‘सरकार गांव के द्वार’ का अखंड पाठ शुरू कर दिया, लेकिन आनी प्रशासन के कान में अगर जूं तक नहीं रेंगी, तो ऐसे प्रपंचों की क्या आवश्यकता। अगर सरकार अदालतों में फंसे मामलों में आम नागरिक के अनुभवों का संज्ञान ले तो मालूम हो जाएगा कि व्यवस्था के सुराखों से कितना दर्द बह रहा है। आश्चर्य यह कि जो राज्य अपने चुनावी वादों से सत्ता के इरादों तक सिर्फ कर्मचारियों के हितों की बात करता है, उसके प्रशासनिक बिछौने पर इतने कांटे छिपे हैं। कमोबेश यही हाल सार्वजनिक सेवाओं, स्थानीय निकायों तथा विकास के कार्यों का भी है। हम दरअसल सियासी वर्चस्व में प्रशासनिक कामकाज और व्यवस्था का परचम देख रहे हैं और सत्ता की अदलाबदली में स्थानांतरण के हथियार से कर्मचारियों व अधिकारियों को सबक सिखाने की कोशिश करते हैं। हम एक ही पोशाक में राजनीति और प्रशासन को अनुशासित व सक्षम नहीं बना सकते। अभी हाल ही में जिन नौ विधायकों को अयोग्य घोषित किया गया, उनके विधानसभा हलकों के अधिकारियों-कर्मचारियों को बदलने का कारण यही हो सकता है कि प्रशासन अब नेताओं की मिलकीयत की तरह चलता है। इसलिए कई बार फरियादी को नागरिक न मानकर उसे सियासी अखाड़े में देखकर काम होता है। इसका एक और उदाहरण नगर निगम धर्मशाला की महापौर का स्मार्ट सिटी प्रशासन के टकराव में देखा जा सकता है। कायदे से स्मार्ट सिटी के तहत प्रशासनिक व्यवस्था का एक राष्ट्रीय स्वरूप, मानदंड व मानिटरिंग होनी चाहिए, लेकिन राजनीतिक अखाड़ेबाजी में नगर निगम के पार्षद या मेयर को अपनी मिलकीयत के तहत स्मार्ट सिटी परियोजनाओं का रुतबा चाहिए।

विडंबना तो यह है कि आम आदमी को तो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों तक की गारंटी नहीं, फिर उसे रोजमर्रा की जरूरतों से कौन निजात दिलाएगा। राजनीति की प्रशासनिक मिलीभगत का ही असर है कि हिमाचल की सरकारी कार्यसंस्कृति अब नेताओं की चाकरी में ऐसे अधिकारी पेश कर रही है, जो हर कदम पर बैसाखियां पहन कर चल कर खुद को सुरक्षित मान रहे हैं। स्थानांतरण नीति के अभाव में ईमानदार अधिकारी के लिए अपनी ईमानदार कार्यशैली या कत्र्तव्यपरायणता का उदाहरण पेश करने की एक कीमत है। ऐसे में अधिकांश अधिकारी किसी न किसी तरह अपने दायित्व के बजाय सियासी बॉस की इच्छाओं की रखवाली कर रहे हैं। नागरिक प्रताडऩा के दूसरी ओर अधिकारी प्रताडऩा का भय पैदा हो रहा है। सुशासन के लिए स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था की अपेक्षा करने के बावजूद जनता भी अब अपने तौर-तरीकों के मापतोल को सियासी बनाने को मजबूर दिखाई देती है, वरना लोग ऐसे मामलों में सडक़ों पर दिखाई देते।


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