पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन टूटा

दरअसल अकाली दल की दुविधा यह है कि वह सिख समुदाय को एक विशिष्ट राजनीतिक ईकाई के तौर पर देखता है। उसे लगता है कि जो सिख अकाली दल के साथ है, वह तो सिख है, लेकिन जो सिख कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस पार्टी, आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी या समाजवादी पार्टी के साथ है, वह सिख नहीं है…

पंजाब में अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी लम्बे अरसे से मिल कर चुनाव लडऩे के आदी हो गए थे। इतिहास में देखा जाए तो मिलने-टूटने का यह सिलसिला 1967 के विधानसभा चुनावों के बाद ही शुरू हो गया था। बीच-बीच में मन-मुटाव भी हुआ लेकिन अब पिछले तीन दशकों से आपसी गठबन्धन ठीक-ठाक ही चल रहा था। किसान आन्दोलन से घबरा कर अकाली दल ने भाजपा से संबंध तोड़ लिया। अकाली दल को लगा कि पंजाब भाजपा के खिलाफ किसान आन्दोलन के नेताओं के साथ हो लिया है। ऐसी स्थिति में भाजपा के खिलाफ खड़ा होना हाराकिरी करने के समान होगा। लेकिन अकाली दल का आकलन कम से कम इस मुद्दे पर गलत था कि पंजाब किसान नेताओं के साथ है। 2022 के विधानसभा चुनावों में किसान आन्दोलन में से उपजी नई पार्टी संयुक्त किसान मोर्चा के सभी लोगों की जमानत जब्त हो गई। दरअसल किसान मोर्चा एक बहुत ही कुशल रणनीति और मैनेजमेंट के कौशल में से पैदा हुआ था। इस कौशल ने शून्य तो उत्पन्न करने की कोशिश की, लेकिन इस कौशल के नेताओं को जन नेता नहीं बना सका। केजरीवाल को कुछ देसी विदेशी शक्तियां 2014 में से ही राष्ट्रीय रंगमंच पर लाँच करने का प्रयास करती रही थीं। अलबत्ता वहां तो सफलता नहीं मिली, लेकिन पंजाब में जरूर सफलता मिल गई। वैसे भी किसान आन्दोलन में सक्रिय कम्युनिस्ट कैडर ने आम आदमी पार्टी की सहायता की थी।

भारतीय जनता पार्टी वोटों और सीटों के मामले में वहीं पहुंच गई जहां वह अकाली दल से गठबन्धन से पूर्व हुआ करती थी। वोट प्रतिशत लगभग छह सात के बीच और सीटें शून्य से आठ के बीच। वैसे इस चुनाव में भाजपा को दो सीटें और 6.6 फीसदी वोट मिले थे। सबसे ज्यादा नुकसान अकाली दल को हुआ। सीटें तीन। जहां तक वोट प्रतिशत का सवाल है अकाली दल को 18.38 प्रतिशत वोट मिले थे। लेकिन सबसे ज्यादा लाभ आम आदमी पार्टी को हुआ जिसने 117 सदस्यों की विधानसभा में से 92 सीटें झटक लीं। इस नए राजनीतिक माहौल में कांग्रेस और अकाली दल में भगदड़ मचना लाजिमी थी। लेकिन आश्चर्य की बात थी कि कांग्रेस और अकाली दल छोड़ कर लोग भाजपा में आने लगे और कुछ महीने पहले तक एक बार फिर अकाली-भाजपा गठबन्धन की चर्चा चल निकली। इसलिए जल्दी में फिर से एक लघु किसान आन्दोलन खड़ा हो गया। अकाली दल फिर घबराहट में आ गया। दरअसल पंजाब में किसान आन्दोलन अकाली दल को डराने-हडक़ाने का एक कारगार हथियार बन चुका है। अकाली दल इसको देख कर वैसी ही प्रतिक्रिया करता है जैसी किसान आन्दोलन के आयोजकों को आशा होती है। कहीं न कहीं इससे पंजाब में शासन कर रही पार्टी की हित साधना भी होती है। कहा जाता है और धरातल पर दिखाई भी देता था कि पिछले किसान आन्दोलन में पंजाब की उस समय की शासक पार्टी की प्रत्यक्ष ही भागीदारी थी और इस बार के किसान आन्दोलन में आम आदमी पार्टी की सक्रिय भागीदारी देखी जा सकती है। परिणाम वही हुआ। अकाली दल गठबन्धन की बातचीत से बाहर हो गया। यह ठीक है कि इसमें सीटों की संख्या भी एक मुद्दा रहा होगा लेकिन जिस कारक ने अकाली दल को गठबन्धन के राऊंड टेबल से हड़बड़ाहट में उठा दिया, वह किसान आन्दोलन ही था। इस गठबन्धन की बात सिरे न चढऩे से सबसे ज्यादा ख़ुशी शायद भाजपा के कार्यकर्ता को ही हो रही है। भाजपा के साधारण कार्यकर्ता को लगता है कि अकाली दल से गठबन्धन के कारण पंजाब में पार्टी का विकास रुकता है। यह ऊपर से देखने पर ठीक लगता है। लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। दरअसल पंजाब में भूगोल के आधार पर पांच भाग हैं। मालवा, बाँगर, पुआध, दोआबा और माझा। भाजपा का आधार मोटे तौर पर ‘पुआध’ क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर रहता है, जहां उसका मुकाबला अकाली दल से नहीं बल्कि कांग्रेस से होता है। पंजाब का दूसरा हिस्सा जहां भाजपा का कुछ आधार है वह ‘बाँगर’ क्षेत्र है जो राजस्थान से लगता है। वहां भी उसका मुकाबला कांग्रेस से ही होता है।

भाजपा का कुछ आधार जीटी रोड के शहरों में है और वहां भी उसकी प्रतिद्वन्द्वी पार्टी कांग्रेस होती है, अकाली दल नहीं। पंजाब में भाजपा की प्रगति न होने के अन्य बीसियों कारण हैं जिसमें जनसांख्यिकी प्रमुख है, लेकिन उसमें कम से कम अकाली दल नहीं है। पिछले कुछ अरसे से नरेन्द्र मोदी की रणनीति के चलते पंजाब की जनसांख्यिकी को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने कार्य विस्तार के प्रयत्न शुरू किए हैं। इस कार्य विस्तार के दो ही तरीके हैं। पहला नीचे धरातल पर कैडर निर्माण किया जाए और उसमें से नेतृत्व उभरे। यह लम्बा तरीका है और चुनाव सिर पर हैं। दूसरा तरीका है कि पंजाब की जनसांख्यिकी को ध्यान में रखते हुए उसी के अनुरूप नेतृत्व खड़ा कर लिया जाए और उसकी सहायता से कैडर निर्माण किया जाए। फिलहाल पंजाब में भाजपा ने यह दूसरा तरीका ही इस्तेमाल किया है। अन्य दलों से अनेक नेता भाजपा में आ रहे हैं। रवनीत बिट्टू नया चेहरा है। लेकिन उससे बहुत पहले कांग्रेस-अकाली दल से आने-जाने का सिलसिला शुरू हो गया था। मनप्रीत सिंह बादल उनमें बड़ा चेहरा था। अकाली दल के वरिष्ठ नेता सिकन्दर सिंह मलूका की पुत्रवधू परमपाल कौर सिद्धू ने तो भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र दे दिया है। उसकी चर्चा है कि वह भाजपा में शामिल हो रही है। ऐसे और भी उदाहरण हैं। भाजपा ने अभी जिन सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित किए हैं उनमें गुरदासपुर को छोड़ कर ज्यादा प्रत्याशी वही हैं जो दूसरे दलों को छोड़ कर भाजपा में आए हैं। अमृतसर के तरणजीत सिंह संधू को अपवाद कहा जा सकता है। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि इन इलाकों में भाजपा का अपना जनाधार उतना नहीं है कि अपने बलबूते चुनाव की लड़ाई लड़ सके। प्रत्याशी खड़े करने के दो उद्देश्य होते हैं, या तो प्रतीकात्मक लड़ाई या फिर जीतने के लिए रणनीति। भाजपा को लगता है कि जब चार सौ के पार का नारा दिया है तो लड़ाई प्रतीकात्मक नहीं हो सकती बल्कि जीतने की रणनीति ही बनानी होगी। पंजाब में शायद भाजपा इसी रणनीति के तहत काम कर रही है।

एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि पंजाब में भाजपा को पंजाबियों की प्रतिनिधि पार्टी बनना होगा, जनसंख्या में से किसी एक दो बिरादरियों की प्रतिनिधि पार्टी नहीं। भाजपा पंजाब में अब सभी पंजाबियों की पार्टी बनने की कोशिश कर रही है। अकाली दल ने शायद अब फिर से निर्णय कर लिया है कि उसे अन्तत: फिर से अपने पुराने खोल में ही सिमटना है। यही कारण है कि उसने हाल ही में पांथिक हितों और पंजाब के हितों में भेद करना शुरू कर दिया है। अब वह अपने आपको पांथिक हितों की पार्टी के तौर पर स्थापित करने के प्रयास में है। लेकिन अकाली दल यह स्पष्ट नहीं कर रहा कि पंजाब के हित और पांथिक हित आपस में विरोधी कैसे हैं या फिर अलग अलग कैसे हैं? दरअसल अकाली दल की दुविधा यह है कि वह सिख समुदाय को एक विशिष्ट राजनीतिक ईकाई के तौर पर देखता है। उसे लगता है कि जो सिख अकाली दल के साथ है, वह तो सिख है, लेकिन जो सिख कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस पार्टी, आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी या समाजवादी पार्टी के साथ है, वह सिख नहीं है। जो सिख अकाली दल के अतिरिक्त किसी दूसरे राजनीतिक दल के साथ चला जाता है वह उसकी दृष्टि में पांथिक हितों का विरोधी हो जाता है।

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार


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