शव संवाद-40
गोल-गप्पा जबसे खुद को पुरुष मानने लगा है, उसका जीवन औरत के मुंह में फंस गया है। हर वक्त फूला फूला सा रहता है। ढेर सारा खाता है, फिर भी उदास रहता है। इसे निगलने को हर कोई तैयार रहता है। बुद्धिजीवी ने हर बार अपने हालात को गोल गप्पे के करीब पाया। जब भी कोई सेंकता है या गर्माहट के आंचल में उबालता है, यह फूल जाता है। बुद्धिजीवी कब नहीं फूला और कब फूला नहीं समाया। हर बार सरकार के परिवर्तन पर फूला फूला सा रहा। सच मानो यह तो इंदिरा की इमरजेंसी की घोषणा पर भी फूला था, लेकिन फिर इसके अंग, ढंग और रंग जिस तरह फुलाए गए, इसके सामने अपने खोट आ गए। हद यह कि इसने इमरजेंसी का पीछा नहीं छोड़ा। हटी तो भी खुशियां मनाई। इसके पास खुशियां मनाने के कई रिकार्ड हैं। स्वच्छता रैली के बाद या तो गोल गप्पा फूला या बुद्धिजीवी। वैसे स्वच्छता का संदेश गोल गप्पे से ज्यादा कौन देगा। किसी भी रेहड़ी पर जाइए तो देखेंगे कि भारतीय जनमानस गोल गप्पे पर जितना विश्वास करता है, उतना अपनी सरकार पर भी नहीं करता। गोल गप्पा बनाने व खिलाने वाले के हाथ पर तो इतना विश्वास है जितना चुनाव के बांड जारी करने वाले पर भी नहीं। न हम गोल गप्पे का कद देखते और न ही बेचने वाले के हाथ। जिस तरह इलेक्टोरल बांड पुलिंग है, उसी तरह गोल गप्पा भी पूरी तरह पुरुष, लेकिन इन दोनों का उपयोग स्रीलिंग ज्यादा करता है। औरतों ने गोल गप्पे की जात का सबसे ज्यादा उपयोग किया और इसी तरह राजनीतिक पार्टियों ने चुनावी बांड का इस्तेमाल किया। दोनों की तासीर में खाने वाले का ललचाना लिखा हुआ है। न बेचने वाले के पास और न खरीदने वाले के पास कभी गोल गप्पा बचा और अब यही स्थिति इलेक्टोरल बांड की है। जिन्होंने खरीदे, उन्हें यह भी पता नहीं कि रेहड़ी है किसकी और जिन्होंने बेचे उन्हें यह भी मालूम नहीं कि व्यापार है कितना।
खैर गोल गप्पों ने भारत में न समुदाय और न जातीय भेद के आधार पर स्वाद बदला। स्वाद इसकी अस्मिता है, लेकिन बेस्वादे इलेक्टोरल बांड की कोई अस्मिता नहीं। पहले यह जिंदा था तब इसकी ताकत का अंदाजा चुनाव आयोग को भी नहीं था। इसकी अस्मिता चुनाव पर भारी थी, बल्कि चुनाव की अस्मिता चुरा कर ही इलेक्टोरल बांड ताकतवर बना। खैर उस दिन गोल गप्पे खाकर बुद्धिजीवी ने जैसे ही पार्टी मुख्यालय के सामने खट्टी डकार ली, सामने एक नेता चीखने लगा अब अंगूर नहीं, खट्टे हो गए इलेक्टोरल बांड। वाकई वहां इलेक्टोरल बांड के स्वाद से कई नेता अब दांत खट्टे कराने से बचकर भाग रहे थे। आगे नेता, पीछे बांड, दोनों के पीछे बुद्धिजीवी और सबसे पीछे देश भाग रहा था। कौन किसके दांत खट्टे करने से बच रहा था, यह किसी को मालूम नहीं था। अंतत: सबसे पहले देश थक कर रुक गया, फिर बुद्धिजीवी थक कर हार गया और इसके बाद इलेक्टोरल बांड भी अपनी निर्लज्जता के आगे नहीं जा सका, लेकिन नेता इस परिदृश्य से गायब कह रहा था, ‘भाइयो-बहनो! मैं भ्रष्टाचार मिटाने के लिए भाग रहा हूं। मेरे हाथ की सफाई देखो, मैं अकेला रहा, जो ढह गए भ्रष्टाचारी थे।’ बुद्धिजीवी ने देश को समझाना चाहा कि उसका इरादा नेताओं से भिन्न है। यह सुनकर इलेक्टोरल बांड ने कांपते-कांपते और जान देते हुए कहा, ‘मैं इसलिए नहीं मरा कि मेरा कसूर गंदा था। मैं इसलिए मरा कि मेरा दस्तूर गंदा था।’ देश के लिए बुद्धिजीवी ने फिर एक प्रयास किया। सांत्वना दी कि भ्रष्टाचार के आरोप में चुनावी बांड मर गया, लेकिन देश दूर से राष्ट्र की बात कर रहे नेता से डर रहा था, क्योंकि इस बार भी उसकी ही जेब कटी थी। मरने से पहले इलेक्टोरल बांड ने देश की पोशाक से कफन छीन लिया था और भागते नेता ने अब राष्ट्र की बात पर उसी की जेब फाड़ दी थी। -क्रमश:
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
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