शव संवाद-37

By: Apr 1st, 2024 12:05 am

एक उड़ता हुआ पोस्टर बुद्धिजीवी के करीब आया और उसके साथ ही चलने लग पड़ा। पोस्टर पहले भी बुद्धिजीवी के आसपास से गुजरे हैं, लेकिन इस बार यह अति गतिशील था। बुद्धिजीवी आज तक वहीं का वहीं है, लेकिन तरह-तरह के पोस्टर उससे कहीं आगे निकल गए। पोस्टर की अपनी देह भाषा रही है, जिसे बुद्धिजीवी समझकर भी नहीं समझ सका। बुद्धिजीवी ने तय किया कि इस बार वह दौड़ते पोस्टर को पकड़ कर पूछ ही लेगा कि तेरी रजा क्या है। बुद्धिजीवी न देश की गति और न ही पोस्टर की प्रगति समझ पाया। वह बड़े ही आदर से पोस्टर से विनती करने लगा, ‘एक पल के लिए रुक जाओ। हम आपके सेवक-आपके प्रशंसक हैं। हमारी सारी औकात लिए यूं मत भागो। हमारे पास जीने के सारे सबूत और देश का विश्वासपात्र होने का सारा जज्बा लिए यूं मत भागो।’ पहली बार पोस्टर के कान खुले उसे बुद्धिजीवी की फरियाद से लगा कि उसका भी अपना साम्राज्य है। दरअसल वह भी साम्राज्यवाद की औलाद ही है। दूसरे क्षण उसे याद आया कि वह भले ही सोच ले या सोच बदल दे, लेकिन अपने ही कहे का अनुसरण नहीं कर सकता। उसे याद है कि उसके परिवार के जिन सदस्यों ने स्वच्छता का संदेश दिया, वे सारे बस स्टॉप, ऊंची इमारतों, बाजारों और गलियारों में चस्पां होकर भी नहीं बचे। धूम्रपान न करने की हिदायत देने वाले उसके सगे संबंधी पोस्टर सिगरेट सुलगाते सुलगाते मर गए। उसने कहना जारी रखा, ‘हम लोगों की दुश्मनी में मर रहे हैं। कभी एक पार्टी आकर फाड़ जाती, तो कभी दूसरी उखाड़ देती। हमारे टूटते बाजू किसने देखे। किसने देखीं हमारी नम आंखें। कभी पोस्टर की चीख सुनना। हर बार हारती सरकारों के जख्म हमने सहे। बुजदिल लोग सरकार को तो कुछ नहीं कहते, लेकिन हम पर गुस्से से जूते बरसाते हैं। मुझे राजनीति ने बार-बार जन्म देकर मारा। व्यापार ने पुचकार कर एतबार किया, लेकिन अपनी सफलता का कभी भी मेरे साथ इजहार नहीं किया। मैंने अमिताभ बच्चन को कलेजे से लगाया, विश्व सुंदरियों को चमकाया। लोग मेरे खुरदरे शरीर पर भी सौंदर्य देखते रहे, लेकिन मैंने एतराज नहीं किया। मैं आज भी जगराते की घंटी की तरह किसी दीवार पर खड़ा रहता हूं।

रावण बार-बार मेरी छाती पर मरता है, लेकिन हर बार कोई न कोई नेता दशहरा उत्सव में आकर पाप-पुण्य की गिनती में खुद को बड़ा कर जाता। मैं थक गया सरकारों की गारंटियां ढोते-ढोते। ‘मेरी गारंटी’ कहने वालों के झूठ को सहना कितना तकलीफदेह होता है, यह मेरे जैसे पोस्टर के पास आकर कभी महसूस करना। लोग अपनी कथनी और करनी के फरेब को जब मेरे भीतर छुपाते हैं, तो मैं पशुओं की खुराक बनकर भी आह नहीं भरता। हद तो यह कि मुझसे मजदूरी करवाकर नेता पोस्टर पर भगवान बन रहे हैं और मैं देश की तरह फटेहाली में ‘जय श्री राम’ कह कर भी परेशान हूं।’ पोस्टर बतियाता जा रहा था। बुद्धिजीवी हैरान था कि उससे भी ज्यादा ज्ञान अब केवल पोस्टरों के अस्तित्व से जुड़ा है। पोस्टर हताशा के बावजूद सारे विश्व को वह बता पा रहा है कि भारत उसके कारण ‘विश्व गुरु’ कैसे बना। तभी बुद्धिजीवी ने देखा कि पीछे से एक भीड़ भागती हुई करीब आ रही है। सभी के हाथों में अनेक पोस्टर थे। वे सभी पोस्टर प्रतियोगिता में जीतना चाहते थे। वे केवल भाग नहीं रहे थे, बल्कि एक-दूसरे के पोस्टर फाडऩे का प्रयास भी कर रहे थे। यह देख कर बुद्धिजीवी से बतिया रहे पोस्टर ने भी यकायक भागना शुरू किया, लेकिन जनता के पोस्टरों के बीच वह कुचला गया। खींचतान में इस पोस्टर के दो टुकड़े हो गए। बड़ा टुकड़ा खुद को बहुसंख्यक तो अदना अल्पसंख्यक मानने लगा। पोस्टरों के जरिए लोकतंत्र को भगाने की हवा भी बहने लगी, लेकिन बुद्धिजीवी से संवाद करते-करते पोस्टर का एक टुकड़ा समीप के शमशानघाट की आग में जल गया, जबकि दूसरा कब्रिस्तान की ताजी कब्र में दफन हो गया। पोस्टरों के साथ दौड़ रही जनता भी यह देखकर चिंतित हो गई। पहली बार जनता को भय हुआ कि हाथ आए पोस्टर कहीं उसे भी अपनी तरह जला या दफना न दें।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक


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