नसीब में चुनावी खुमार
हिमाचल में टिकट आबंटन की सर्कस में कई पिंजरे, कई दीवारंे, कई मजमून और कई जमूरे करतब दिखा रहे हैं। आश्चर्य यह कि चार लोकसभा सीटों के हिसाब में भी हम राजनीति के खंभों पर टंगे हैं। जनता के नसीब में चुनावी खुमार का यह आलम कि यह सदी भी बंटी हुई गुजर रही है। सामाजिक विभाजन में राजनीति की चोंच इतनी लंबी हो गई है कि अपनी ही टेढ़ी कलों में उससे सीधा खड़ा नहीं हुआ जाता और फिर नेताओं का आयात इस शर्त पर कि किसी फैसले की हर घड़ी में हम उसी दौर में घिर रहे हैं, जो अतीत के पन्नों को बर्बाद करते रहे। आश्चर्य यह कि चुनाव के ऊंट उन्हीं प्राथमिकताओं में नेताओं को ढो रहे, जो न प्रदेश के काम आए और न समय में पहचाने गए। जिक्र अब यह कि कहां पंडित से पंडित लड़ाऊं या पंडित से राजपूत को भिड़ाऊं। फलां नेता के वर्चस्व में उसकी औलाद को आजमाऊं। हर रोज हिमाचल की सियासत जातिवाद, क्षेत्रवाद, अवसरवाद और परिवारवाद के पिंजरे में जाकर सोच रही है और जनता को भी भ्रम है कि इस तरह दीवारें टूटेंगी। हमारे नेता वे नहीं जो हम सोच रहे हैं, बल्कि वो हैं जो समाज को टुकड़ों में विभक्त कर सकते हैं। इसलिए टिकट आबंटन में जातियों के मंच ऊंचे और विचारधारा कहीं धरातल पर दब रही है। आश्चर्य यह कि विचारधारा की चिडिय़ा कम से कम हिमाचल में विलुप्त होती जा रही है। रोते हैं वे हार जो कभी तेरी गर्दन पे चढ़े थे, आज उन्हीं को झुका कर तूने विपक्ष को चूम लिया। हिमाचल की राजनीति में जिस तेजी से राजनीतिक प्राणी फडफ़ड़ा रहे हैं, उसे देखकर विचारधारा गौण हो जाती है। गगरेट की जनता जिस दृश्य में चुनाव देख रही है वहां पूर्व विधायक राकेश कालिया का कांग्रेस में आना, शोला है या शबनम, कौन जानता है। कब भाजपा में चले जाएं या लौट के कांग्रेस में आ जाएं, यह एक चुनाव भर का अंतर है। हर तरफ चुनाव की गोपियां नाच रही हैं, भंवरे गीत गा रहे हैं और कहीं मधुमक्खियों के छत्ते में शहद रखा है। कसौटी यही हैं कि भरे बाजार में उतर जाएं तो कुछ तो दाम या दान मिलेगा।
पार्टियों के टिकट के अभयदान में छह कांग्रेसी विधायक भाजपा के हो गए। छिक्के टूट रहे हैं और यह उस जनता के सामने हो रहा है जो स्वयं को सियासत की जागरूकता में पारंगत समझती है। जनता के पास कुछ टुकड़े, कुछ विवाद, कुछ जातिगत प्रयोग, कुछ गारंटियां, कुछ मुफ्तखोरी और कुछ स्वार्थी सपने। हम सीमा रेखा में रहकर बदलाव ढूंढ रहे हैं या अपने तूफानों से लडऩे के लिए चिराग खोज रहे हैं। आश्चर्य यह कि हिमाचल अपनी बोलियों में भाषा का सेतु नहीं जोड़ पाया और इसीलिए भाषावाद के सहारे समाज बोरियों में बंद है। हद तो यह कि यही एकमात्र राज्य है जहां ‘धामवाद’ भी चल रहा है। मेरी धाम उससे बेहतर के नारे पर मदरे झगड़ रहे हैं और पता नहीं उड़द की दाल उबलकर कितनी सूख गई है। प्रदेश के लिए सोचने की तासीर इतनी संकीर्ण रहेगी, तो फिर मंत्री बनकर भी नेता विधायक ही रहेंगे। ऐसे में क्या हमारे सांसद सत्रह विधानसभा क्षेत्रों के साथ न्याय कर पाएंगे। सत्रह विधानसभा क्षेत्रों में ही सही संस्कृति के सेतु पुष्ट करने होंगे। बोलियों से भाषा और खान-पान में धाम का चरित्र राज्य स्तरीय करना ही पड़ेगा। विडंबना यह है कि हिमाचल के गौरव की बात सैन्य बलिदानों में तो होती, लेकिन हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक उद्गार अभी भी क्षेत्रवाद में फंसे और यही क्षेत्रवाद अस्थिर सरकारों का मुखिया बनने की हिमाकत कर रहा है, जहां काम के बजाय राजनीतिक संतुलन में ही सरकारें समय और शक्ति बर्बाद कर रही हैं।
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