हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : 53

By: Apr 27th, 2024 7:38 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-53

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘बिस्तर गोल’ में राजनीतिक हस्तक्षेप से होने वाले स्थानांतरणों को सामने लाया है। ‘सर्वेंट’ में राम सिंह के जीवन के संघर्ष के माध्यम से बेटे का पिता के प्रति दृष्टिकोण और मानसिकता को उद्घाटित किया है। बचपन में राम सिंह विषम परिस्थितियों के कारण रामू से सर्वेंट तक का संघर्ष करता है। विषम परिस्थितियों के कारण वह स्वयं तो नहीं पढ़ सका, परंतु अपने बेटे को कठिनाइयों में भी उच्च शिक्षा देता है। परंतु वही बेटा जब कॉलेज में पढ़ता है तो उसे अपने पिता की साधारण वेशभूषा अपने धनी सहपाठियों के मध्य अपनी शान विरुद्ध प्रतीत होती है। वह अपने साथियों को पिता का परिचय एक सर्वेंट के रूप में ही देता है। कहानी माता-पिता के प्रति आधुनिक जीवन जीने वाली संतति की मूल्यहीनता की तस्वीर सामने लाती है। केआर भारती की संदर्भित संग्रह की कहानियां सामान्य जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों को जिस सहजता से सरल भाषा में कलात्मक रूप में विन्यस्त कर मानव जीवन के गहरे सामाजिक सरोकारों का साक्षात्कार करवाती हैं, वह पाठक को अभिभूत करता है। कहानियों में ग्रामीण जीवन के संताप और नगरीय जीवन के घुटन भरे परिवेश में दो पीढिय़ों के चरित्रों की सृष्टि के माध्यम से मूल्यगत बदलाव और विघटन को निरूपित किया है।

संतोष शैलजा का ‘मेरी प्रतिनिधि कहानियां’ (2010) शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित है। इसमें उनकी कुछ प्रतिनिधि कहानियां संकलित हैं। संदर्भित संग्रह में दस कहानियां- सोसन, पीले पत्तों से झरती चांदनी, जात्रि यामि ओरे, फुलमा, स्वेटर, गंगोत्री की जलधार में, टाहलियां, फ्रेम में जड़ा एक चेहरा, रज्जो काकी और ‘अब जाने दो मुझे’ संगृहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियों के संबंध में कहानीकार संतोष शैलजा ‘आत्मकथ्य’ में कहानी सृजन के उद्देश्य को उद्घाटित करती हैं, ‘लिखती हूं, क्योंकि लेखन मेरी जिंदगी है। जीवन और प्रकृति के साथ गहरा लगाव और प्रेम का विस्तृत आकाश मेरी रचनाओं के प्रेरणा स्रोत हैं। यद्यपि लेखन कार्य आनंद के लिए है, फिर भी इसे मैं सामाजिक दायित्व मानती हूं। अत: मेरा साहित्य सुंदर के साथ सत्यं एवं शिवं का संगम है।’ प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में लोक जीवन सुंदर पृष्ठभूमि में सृजित है। इनमें ग्रामीण जीवन की मिट्टी की महक अनुभूत होती है। विवेच्य अवधि में नरेश कुमार उदास का ‘अंतिम इच्छा’ (2003), आचार्य भगवान देव चैतन्य का ‘शिखर शेष है’ (2004) और ‘परिवेश’ (2010), जोगेंद्र यादव का ‘मां का बलिदान’ (2010) कहानी संग्रह प्रकाशित हैं।

इक्कीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक पर्याप्त समृद्ध है। इस शताब्दी के दूसरे दशक में जयदेव विद्रोही, आचार्य भगवान देव चैतन्य, बद्रीसिंह भाटिया, गंगाराम राजी, सुशील कुमार फुल्ल, नरेश कुमार उदास, शांता कुमार, संतोष शैलजा, अरुण भारती, कैलाश आहलूवालिया, उमेश कुमार अश्क, सुमन शेखर, जयवंती डिमरी, योगेश्वर शर्मा, रामदास मंडोत्रा, भानु प्रताप कुठियाला, रतन चंद रत्नेश, सुशील गौतम, डा. देवेंद्र गुप्ता, आशा शैली, राजकुमार राकेश, साधुराम दर्शक, एसआर हरनोट, सुषमा कौशल, कृष्णा अवस्थी, सुदर्शन वशिष्ठ, मुरारी शर्मा, अतुल अंशुमाली, सत्यपाल शर्मा, तारा नेगी, गौतम व्यथित, मृदुला श्रीवास्तव, पदम गुप्त अमिताभ, राजेंद्र राजन, गुरमीत बेदी, गुप्तेश्वर उपाध्याय, चंद्ररेखा ढडवाल, महेश चंद्र सक्सेना, विक्रम गथानिया, रजनीकांत, ओम भारद्वाज, श्याम सिंह घुना, हेमेंद्र बाली हिम, त्रिलोक मेहरा, प्रत्यूष गुलेरी, डा. हेमराज कौशिक, डा. राजकुमार, केशव, शंकर लाल शर्मा, अजय पाराशर, नेमचंद ठाकुर, राजेंद्र पालमपुरी, पीसीके प्रेम, डा. ओम प्रकाश सारस्वत, कुंवर दिनेश, संदीप शर्मा, दीनदयाल वर्मा, देवकन्या ठाकुर, शक्ति चंद राणा, हेमराज ठाकुर, राममूर्ति वासुदेव प्रशांत, भारती कुठियाला व गुरुदत्त शर्मा के कहानी संग्रह प्रकाशित हैं।

सदी के दूसरे दशक में जयदेव विद्रोही का ‘एक सिसकी दो आंसू’ शीर्षक कहानी संग्रह 2011 में प्रकाशित है। इसमें उनकी तेईस कहानियां संगृहीत हैं। संदर्भित संग्रह की कहानियों में कहानीकार जयदेव विद्रोही ने जीवन के अर्थाभाव, माननीय मूल्य के विघटन से उत्पन्न स्थितियां, पारिवारिक और सामाजिक संबंधों में रागात्मकता का अभाव और संवेदन शून्यता, वृद्धों के प्रति संतति का उपेक्षा भाव, नारी नियति, राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, राजनेताओं की वोट संस्कृति, आम आदमी का उत्पीडऩ, जाति विधान, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, अवसरवादिता, भ्रष्टाचार और नैतिक मूल्यों का पतन आदि बहुविध विषयों से संबद्ध सामाजिक प्रश्नों और ज्वलंत मुद्दों को उठाया है। ‘बेचारी’ शीर्षक कहानी में एक ऐसी युवती की करुण कहानी है जिसकी मां लंबी बीमारी के अनंतर मर जाती है और पिता कैंसर पीडि़त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है और मंगेतर जब उसे प्रशिक्षण के दौरान छात्रावास में लेने पहुंचता है तो रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त होकर उसकी भी मृत्यु हो जाती है। मातृ-पितृ विहीन युवती को मंगेतर का आश्रय होता है, वह भी दुर्घटनाग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त करता है। ऐसी विषादपूर्ण परिस्थिति में एक युवती की मनोस्थिति और उसके अंतर्मन को लेखक ने रूपायित किया है। ‘टुकड़े-टुकड़े एक चूड़ी’ दांपत्य संबंधों में विघटन के निरर्थक आधारों पर प्रकाश डालती है। ‘अंतहीन अंत’ में अव्यक्त निश्छल प्रेम की अभिव्यंजना है। ‘तर्पण’ में मध्यवर्गीय नारियों की प्रदर्शन वृत्ति, मिथ्याचार, अहंकार, ईष्र्या-द्वेष, सहानुभूति, करुणा, मिथ्या अभिनय आदि का चित्रण है। ‘लहू की सफेदी’ में यह प्रतिपादित किया है कि भौतिकता की अंधी दौड़ में सारे संबंध अर्थ केंद्रित हो गए हैं। आज की संस्कृति में लहू की सफेदी आ गई है।

‘नववर्ष की डायरी’ में मनुष्य की अवसरवादिता को रेखांकित किया गया है। ‘वृद्धाश्रम’ में देव, उसके पुत्र निरंजन और पुत्रवधू के माध्यम से पीढ़ीगत सोच में अंतर, आधुनिकता की चकाचौंध, मिथ्या प्रदर्शन, नई पीढ़ी की मूल्यहीनता और संस्कारहीनता मूर्तिमान की है। ‘यथार्थ से रूबरू’ कहानी में पेंटर बांकू राम की दारुण दशा का चित्रण है। राजनेता अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए चुनाव के अवसर पर श्रमिकों, मजदूरों और अन्य लोगों की प्रतिभा और कला का भरपूर उपयोग करते हैं। चुनाव के समय रात-दिन कार्य करने वाले लोगों को राजनेता चुनाव जीतने के पश्चात न केवल पूरी तरह विस्मृत करते हैं, अपितु उनकी मजदूरी तक नहीं देते। ‘झुकी हुई नजर’ में यह प्रतिपादित किया है कि पैतृक संस्कारों का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य होता है। यही कारण है कि कहानी में एक उच्च पद पर आसीन व्यक्ति अधम संस्कारों के कारण भ्रष्ट कृतित्व से मुक्त नहीं हो पाता। ‘ऐच्छिक निधि’ उर्फ ‘गपौड़ शंख’ एक लघु कहानी है जिसमें राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी के अंतर को स्वयं संसद सदस्य के कथन के माध्यम से व्यंजित किया है। ‘एक नटवर लाल यह भी’ में लेखक विद्रोही ने यह निरूपित किया है कि धन्नशाह जैसे अनेक सफेदपोश और धार्मिक वृत्ति के दिखाई देने वाले व्यक्ति हैं जो अवैध रूप में शराब की तस्करी कर धनार्जन करते हैं। ‘एक था गोविंद’ प्रशासन तंत्र में व्याप्त रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार पर केंद्रित है। ‘एक सिसकी दो आंसू’ मार्मिक कहानी है जिसमें कैंसर पीडि़त बालक की निर्धन अवस्था के कारण उपचार की कठिनाइयों का चित्रण है।

‘रमजान से ईद तक’ राष्ट्रीय एकता, भावात्मक एकता और हिंदू-मुस्लिम सौहार्द की कहानी है। यह कहानी सभी धर्म और संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता, सद्व्यवहार, आस्था और श्रद्धा जैसे मूल्यों को आत्मसात करती है। ‘कथानक की खोज में’ में कहानीकार ने यह प्रतिपादित किया है कि कहानीकार को कहानी के विषय अपने निकट परिवेश में विविध रूपों में मिलते हैं। ‘और जोड़ी बिछुड़ गई’ जाति विधान की दीवारों के अनेक पक्षों को अनावृत्त करती है। ‘दुष्ट की मानवता’ में यह चित्रित किया है कि किसी कत्र्तव्यनिष्ठ अधिकारी में सामाजिक विकृतियों, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, तस्करी जैसी बुराइयों को दूर करने का दृढ़संकल्प और प्रभावोत्पादक आदर्श व्यक्तित्व हो तो वह अपनी युक्तियों और आदर्श व्यवहार से दिग्भ्रमित लोगों के हृदय में परिवर्तन कर उन्हें आदर्शोन्मुखी कर सकते हैं। जयदेव विद्रोही की चिंता और रचनाशीलता के आधारभूत बिंदु उत्पीडऩ आमजन है। वे जीवन में घटने वाली सामान्य घटनाओं में जीवन सत्य की तलाश करते हैं। समाज में व्याप्त घटनाएं एवं मुद्दे उनकी कथा भूमि के आधार रहे हैं। बिना किसी कृत्रिम आवरण के सहज, सरल और स्वाभाविक भाषा में विन्यस्त यथार्थपरक कहानियां पाठकों के हृदय में गहरी उतर जाती हैं और निकट परिवेश को आत्मसात करते हुए पाठक अभिभूत होकर इन कहानियों में जीने लगते हैं।

आचार्य भगवान देव चैतन्य का ‘मुखाग्नि’ (2011) शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित है। संदर्भित संग्रह में तेरह कहानियां संगृहीत हैं। उनकी कहानियां सामाजिक यथार्थ की बहुरंगी छवियों का सर्जनात्मक आख्यान हैं। एक जागरूक कहानीकार के रूप में वह समाज में घटित घटनाओं के प्रति पैनी दृष्टि रखते हैं और सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में परिस्थितिगत उपजी छोटी-छोटी घटनाओं एवं कड़वी सच्चाइयों को परत दर परत खोलते हैं। ‘विनाश लीला’ में नदी तट पर बसे पहाड़ी गांव की भीषण वर्षा से उत्पन्न विनाश लीला का चित्रण है। गांव के निकट प्रवाहित होने वाली नदी जो ग्रामीणों के लिए वरदान थी, वही भीषण वर्षा से अभिशप्त स्थिति उत्पन्न करती है। नदी का बढ़ता जल जमीन, संपत्ति और मकान सभी को बहा ले जाता है। कहानीकार ने रामू के परिवार के संदर्भ में इस त्रासद स्थिति को मूर्तिमान किया है। ‘पहाड़ के नीचे’ कहानी में कार्यालय में व्याप्त रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का चित्रण है। कहानीकार ने यह प्रतिपादित किया है कि ईमानदार और कत्र्तव्यनिष्ठ अधिकारी जब इस तरह के भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के वातावरण को सुधारने के लिए प्रयत्न करते हैं तो भ्रष्टाचार में संलिप्त अधिकारी और कर्मचारी इस ताक में रहते हैं कि कब इनको किसी न किसी प्रकार षड्यंत्र में फंसा कर इनका अहित किया जाए। ‘आठवां फेरा’ में संतान के माता-पिता के प्रति उपेक्षापूर्ण, कत्र्तव्यविमुख और अमानवीय दृष्टिकोण का चित्रण है। भौतिकता की अंधी दौड़ में व्यक्ति स्वार्थकेंद्रित हो गया है और सारे रक्त संबंध अर्थहीन हो गए हैं। ‘निर्णय’ शीर्षक कहानी में भारतीय युवा पीढ़ी की परिस्थितियों के वशीभूत परिवर्तित मानसिकता का चित्रण है। प्रतिभा संपन्न अनंत अपनी टैलेंट का उपयोग देश के गौरव को बढ़ाने के लिए करना चाहता है, परंतु देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, रिश्वतखोरी और आरक्षण उसे अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचने देता। ‘पगडंडी’ में राजा नाहर सिंह और घसियारन के प्रेम संबंध और कालांतर में घासियारन से बनी पटरानी के वजीर शोभा सिंह के साथ अवैध संबंध का चित्रण है। इसी भांति कहानी में मंघरु और गंगी के प्रेम संबंध का चित्रण है। रोमेंटिक बोध की इस कहानी में प्रेम और घृणा की स्थितियों का चित्रण है।                                                                                                                               -(शेष भाग अगले अंक में)

‘प्रेम में होना’ में प्रेमसिक्त कविताएं

राजीव कुमार त्रिगर्ती का नया काव्य संग्रह ‘प्रेम में होना’ प्रेमसिक्त कविताएं लेकर आया है। इस काव्य संग्रह में छोटी-छोटी 81 कविताएं संकलित हैं। कविताएं छोटी होने के कारण पाठक इनको पढ़ते हुए ऊबता नहीं है। अंत तक रोचकता बनी रहती है। विविध भाव-विभाव लिए ये कविताएं पाठकों को रसास्वादन कराती हैं। पीपी पब्लिशिंग, भारत (गाजियाबाद) से प्रकाशित यह कविता संग्रह 205 रुपए मूल्य का है। भूमिका में पीयूष कुमार कहते हैं कि ‘राजीव कुमार त्रिगर्ती की इन कविताओं में प्रेम किसी अपेक्षा में नहीं दिखाई देता। प्रेम के सघन भावलोक में कहीं-कहीं यह एकालाप प्रतीत होता है जिसमें किसी तरह की कोई चाहना नहीं है। अपनी इस विशेषता के कारण मन का एक ऐसा अधूरापन हमारे सामने प्रस्तुत होता है जिसमें प्रेम की पूर्णता है। प्रकृति संबद्ध दृश्यों और कहीं-कहीं भाषा में तत्समता के कारण यह कविताएं हिंदी के छायावादी युग की याद दिलाती हैं। राजीव की यह कविताएं विशुद्ध प्रेम कविताएं हैं जिनमें रमकर पाठक का हृदय प्रेमिल हो जाता है। प्रेम की यह निजता अपने केंद्र से विस्तृत होकर सकल संसार को प्रेमिल बनाए, यह कामना है।’ पहली कविता मदनोत्सव का भाव देखिए, ‘पूरे जीवन में/किसी एक पल तो/स्मरण करोगी तुम/हां, उसी पल/तुम्हारे हृदय में/परिवर्तित होगी ऋतु/तुम्हारे पोर-पोर में/छाएगी मादकता/तुम्हारे स्मितहास से/झडऩे लगेंगे/वासंतिक पुष्प/तुम्हारे शब्द/सने होंगे/मादक गंध में/मेरे लिए यही/मदनोत्सव होगा।’ एक अन्य कविता ‘अनंतकाल तक प्रेम के लिए’ का भाव भी मन को आह्लादित करता है, ‘एक बार सोचता हूं/कि तुम मुझसे कोई चाह न रखो/मैं भी तुमसे कोई चाह न रखूं/दोनों तरफ पलता रहे प्रेम/बिना किसी औपचारिकता के/लेता रहे हमेशा हमारे भीतर अपनी सांसें/पर लगता नहीं/कि संभव है ऐसा/तुम कुछ चाह रखो मुझसे/मैं कुछ चाह रखूं तुमसे/इन चाहतों के पूरा न हो पाने के प्रति आश्वस्त/हम बनाए रखें अपने प्रेम को लंबा/इतना लंबा कि अनंतकाल तक खिंच जाए/हमारे अनेकों जन्मों के बाद भी मिले वैसा ही/उन्हीं चाहतों के साथ/ये पूरी न होती चाहतें ही तो हैं/जो बनाए रखेंगी/प्रेम को अनंतकाल तक!’ संग्रह की अन्य कविताएं भी पाठकों को पसंद आएंगी।

फीचर डेस्क

पुस्तक समीक्षा : साहित्य में पसरी काहिलता को अनावृत्त करता व्यंग्य संग्रह

सूर्यबाला व अन्य महिला व्यंग्यकार व्यंग्य के क्षेत्र में अरसे से मोर्चा संभाले हुए हैं। उन्होंने सक्रियता से तीखे और मारक व्यंग्य लिखे और यह साबित कर दिखाया कि पुरुषों को ही व्यंग्य की समझ नहीं है और वे भी अच्छा व्यंग्य लिख सकती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि महिला व्यंग्य लेखन में विट, ह्यूमर, आइरनी, कटाक्ष आदि तत्व व्यंग्य को समृद्ध कर रहे हैं जो यह बताने के लिए काफी हैं कि व्यंग्य विधा केवल पुरुषों का एकाधिकार नहीं है। व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप और अवदान पर शोध ग्रंथ लिखे जा सकते हैं और लिखे जा रहे हैं, तथापि महिला व्यंग्य लेखन स्वतंत्र रूप से संभावनाओं सहित विकसित हो गया है। सूर्यबाला के व्यंग्य लेखन को भी इसी कड़ी में जांचा और परखा जाना चाहिए। सूर्यबाला मूलत: कथाकार और उपन्यासकार हैं और व्यंग्य के क्षेत्र में वह बाद में आई हैं। उन्होंने कथा और उपन्यास विधा में नाम तो कमाया ही, पर आज वो व्यंग्य के क्षेत्र में सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षर हैं। ‘धृतराष्ट्र टाइम्स’ और ‘भगवान ने कहा था’ व्यंग्य संग्रहों ने उनके नाम का डंका बजा दिया है।

वरिष्ठ साहित्यकार सूर्यबाला के अब तक चार व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और चर्चित पत्रिकाओं में व्यंग्य लेख जब-तब सामाजिक असमानताओं, कुरीतियों, विसंगतियों, विद्रूपताओं पर सटीक टिप्पणी के साथ पाठकों को आंदोलित करते हैं। इस सबके लिए वह अपनी तरकश से भाषा की व्यंजना शैली का इस्तेमाल करना बखूबी जानती हैं। सूर्यबाला के व्यंग्य संग्रह ‘भगवान ने कहा था’ को हम सुविधा की दृष्टि से तीन-चार प्रकोष्ठों या विषयों में बांट कर देख सकते हैं। पहला भ्रष्टाचार, दूसरा व्यंग्य को लेकर लिखे गए व्यंग्य लेख, तीसरा साहित्य, पाठक, सम्पादक, प्रकाशक के अंत:सम्बन्धों पर और चौथा नारी विमर्श पर व्यंग्य लेख। विवेच्य व्यंग्य संग्रह ‘भगवान ने कहा था’ शीर्षक से हिंदी साहित्य की विश्व विख्यात कहानी ‘उसने कहा था’ शीर्षक की प्रतिध्वनि आभासित होती है। परंतु यह सूर्यबाला की लेखकीय परिकल्पना का परिचायक है कि पुस्तक का शीर्षक धवन्यात्मक भी है और व्यंग्यार्थ को स्पष्ट करता है। पाठकों को सहज अनुमान लगाने में सुविधा हो जाती है कि पुस्तक में क्या सामग्री परोसी जा रही है। भावार्थ यह कि शीर्षक से पाठक ग्रिफ्त में आ जाता है और सहजता के साथ पाठ पढऩे या प्रवेश के लिए तत्पर और प्रेरित हो जाता है। पुस्तक के शीर्षक लेख ‘भगवान ने कहा था’ में हिंदू मंदिरों के सरकारीकरण से उपजी अव्यवस्था, चारों तरफ फैली गंदगी, होने वाली आय पर और उसके दुरुपयोग पर भगवान हतप्रभ है और चकित भी। सांस्कृतिक सचिव महोदय के विजिट पर मंदिर के व्यवस्थापक ऐसी चाक चौबंद सफाई और व्यवस्था करते हैं कि स्वयं भगवान को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह उनके मंदिर का प्रांगण है।

सचिव महोदय का आगमन और प्रचार, सत्ता और पैसे के गणित को आसानी से समझा जा सकता है। जिन मंदिरों की पब्लिसिटी ज्यादा होती है, उन मंदिरों में चढ़ावा और नकदी भी, जाहिर है ज्यादा पहुंचता है …और जहां नकदी चढ़वा ज्यादा अर्पण किए जाएंगे, महात्मय महिमा भी उन्हीं की गाई जाएगी न! ऐसा माहौल बनता या बनाया जाता है कि जैसे सचिव महोदय ही भगवान रूप में अभी अभी मंदिर पधारे हैं। भगवान का कद याचक के रूप में और सचिव का पद प्रतिष्ठा और शक्ति का द्योतक बन जाता है। सूर्यबाला ने इस व्यंग्य लेख के माध्यम से हमें बताया कि हम इतने चेतनाविहीन और अंधभक्त होते जा रहे हैं कि मंदिरों को अब भक्ति टूरिज्म का पर्याय और व्यवसाय मात्र समझने लगे हैं और भक्ति कारीडोर को विकास का प्रतीक, जो रोजगार देगा और संस्कृति का संरक्षण करेगा! इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लेखिका ने अपने ही कर्मक्षेत्र ‘साहित्य’ पर अनेक व्यंग्य लेख लिख कर साहित्य जगत के लोगों को चेताने का महती कार्य किया है। यथा ‘समकालीन लेखक को पत्रोतर’, ‘पुरुस्कार मेले की उत्तर आधुनिकता’, ‘यात्रा एक सम्मलेन की’, ‘हिंदी साहित्य और पचास के हुए लेखक’, ‘साहित्य में शालीनता का अर्थ’, ‘साठ के हुए लेखक’ आदि में व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्य बाणों से साहित्य जीवन में पसरी काहिलता को उजागर/अनावृत्त करने का जोखिम और साहस दिखाया है। ‘साहित्य में शालीनता का अर्थ’ संपादकों-प्रकाशकों, लघु पत्रिकाओं और लेखकों के पारिश्रमिक आदि मुद्दों पर हास्य या चुहलबाजी से कहीं अधिक पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है और यही सच्चे व्यंग्य की निशानी है। आलोच्य संग्रह में कुछ लेख ‘व्यंग्य’ को लेकर भी व्यंग्यात्मक शैली में लिखे गए अनूठे प्रयोग हैं। सूर्यबाला के व्यंग्य लेखों में शब्द की व्यंजना शक्ति का सफल प्रयोग किया गया है। शब्दों के अर्थ की अपूर्वता इस व्यंग्य कृति को सौंदर्य प्रदान करती है। समकालीन महत्वपूर्ण व्यंग्यकार सूर्यबाला की व्यंग्य की भाषा समाज में विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं के यथार्थ को सामने लाकर पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है। हम कह सकते हैं कि अभिधात्मक भाषा की अपेक्षा अभिव्यंजना की स्फूर्त शैली यूं ही नहीं व्यंग्य को सर्वाधिक पठनीय विधा बनाती है। यही भाषागत श्रेष्ठता सूर्यबाला को प्रथम पंक्ति का व्यंग्यकार बनाती है। ग्रंथ अकादमी, नई दिल्ली से प्रकाशित इस व्यंग्य संग्रह की कीमत 250 रुपए है।

-डा देवेंद्र गुप्ता

कविता

मौसम बदलते देर नहीं लगती
मुख्तसर सी जिंदगी
वक्त कम और काम ज्यादा
सुनो! सब कुछ छोड़ कर
जो जरूरी हैं काम
उन्हें जितना जल्दी हो सके निपटा लो
मौसम बदलते देर नहीं लगती।

मौसम से याद आया
पहाड़ का मौसम
सुबह धूप
शाम को बादल
रात को बर्फ की चादर
और अब चिलचिलाती धूप
काम और घर में दूरी
अचानक बदल गया है सब कुछ।

ना कोई नारा
ना जुलूस
चुपचाप भीतर
घर कर गया है एक भय
खूनी पंजों ने लांघ दी हैं
जंगल की सभी हदें
बस्ती में छिपा है भेडिय़ा।

हर तरफ खतरा है
इससे पहले कि तुम्हारे बुलाने पर
मैं लौट आऊं यह कह कर कि
अभी कहां खत्म हुआ
मोहब्बत का सिलसिला
बेहतर है
जितना जल्दी हो सके
निपटा लो सारे काम
मौसम बदलते देर नहीं लगती।
-सतीश धर


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