सियासी पोस्टमार्टम के लिए तैयार हिमाचली

By: Apr 10th, 2024 12:05 am

इस बार उपचुनावों के परिणामों के रूप में प्रदेशवासियों द्वारा दिया जाने वाला संदेश न केवल प्रदेश को, बल्कि पूरे देश को एक नई दिशा दिखाने वाला हो सकता है। हिमाचल प्रदेश लगभग पूर्ण शिक्षित राज्य है और यहां के निवासी बुद्धिमान हैं और तर्कशील स्वभाव रखते हैं। हिमाचल प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियां इस समय माहौल को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर अपने पूरे शबाब पर है। मतदाता भी सब देख रहा है और अपना फैसला देगा…

‘शतरंज के खिलाड़ी’ मुंशी प्रेमचंद जी द्वारा लिखित उनकी मशहूर कहानियों में से एक है, जिसमें दो दोस्त आपस में शतरंज खेलते-खेलते दुश्मन बन जाते हैं और जब उन पर बाहर से आक्रमण होता है तो वे अपनी तलवारें निकाल कर दुश्मनों से निपटने की बजाय एक-दूसरे पर हमला कर देते हैं और एक-दूसरे की जान ले लेते हैं। इस कहानी के माध्यम से बड़ी सरल सी सीख मुंशी जी ने दी है कि आपसी कलह से हमेशा अपना पक्ष कमजोर और दूसरा पक्ष मजबूत होता है। यह सीख हमारे समाज के हर क्षेत्र में समान रूप से लागू होती है। शतरंज के खेल की तुलना अकसर राजनीति से की जाती है, क्योंकि दोनों में ही बढिय़ा से बढिय़ा चालें चल कर खुद को सामने वाले की अपेक्षा ज्यादा मजबूत करने की कोशिश की जाती है। लेकिन इन दोनों में सबसे बड़ी विषमता यह है कि शतरंज में अपनों पर वार नहीं किया जाता, जबकि राजनीति में ज्यादा खतरा अपनों से ही होता है। वर्तमान परिदृश्य में भी प्रदेश की राजनीति का आकलन किया जाए तो कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिल रहा है। पिछले लगभग डेढ़ महीने से प्रदेश में तेजी से चल रही सियासी हवाएं अभी शांत होने का नाम नहीं ले रही हैं। सियासत की इतनी गहरी चालों और कानूनी पेचीदगियों से अभी तक प्रदेशवासी भी अनजान थे क्योंकि यहां के मतदाताओं ने पांच सालों तक सरकार चुनकर और अगले पांच सालों के बाद सरकार बदलने के काम तक खुद को सीमित कर रखा था।

इस बार प्रदेश में पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता से इस शांत पहाड़ पर पहली बार इतनी अधिक हलचल देखने को मिल रही है। राज्यसभा के चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग के बाद विधायकों के द्वारा व्हिप का उल्लंघन और दलबदल रोधी कानून के प्रयोग द्वारा विधायकों का निष्कासन, इस्तीफे और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाए जाने तक बहुत सी घटनाओं ने प्रदेश के सियासी तापमान को लगातार बढ़ाए रखा है । अब आखिरकार चुनाव आयोग ने इस सारे मसले का निपटारा करने के लिए इसे जनता के दरबार में रख दिया है। राजनीति में दवाब बनाकर काम निकलवाना राजनीतिज्ञों का एक बहुत पसंदीदा नुस्खा है। इस बार भी शायद समूह के दबाव की राजनीति को सहारा बनाने की कोशिश की गई और इसमें निर्दलीय विधायकों को भी साथ में ले लिया गया। लेकिन दबाव की इस राजनीति के परिणाम प्रदेश को उपचुनाव तक ले जाएंगे, यह न तो दोनों दलों ने सोचा होगा और न ही विधायकों ने। हालांकि निर्दलीय विधायकों का निष्कासन दलबदल रोधी कानून के अधीन नहीं किया गया, लेकिन वे स्वयं ही अपने त्यागपत्र देकर इस चुनावी मौसम में चुनावी वैतरणी को देश की सबसे बड़ी पार्टी के कंधों पर बैठकर पार करने को आतुर हैं। फिलहाल उनके त्यागपत्र मंजूर न होने के कारण आने वाले कुछ समय के बाद तीन और विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनावों की आहट सुनाई देने लगी है। लोकतंत्र में चुनावों का महत्व सबसे अधिक है क्योंकि चुनाव मतदाताओं को मत का अधिकार देता है और मत के प्रयोग से देश और प्रदेशों में सरकारों के बनने का मार्ग प्रशस्त होता है। चुनावों के अतिरिक्त लोकतंत्र में संख्या बल का भी बहुत अधिक महत्व है, क्योंकि सरकारों को बनाने और गिराने में संख्या ही एक निर्णायक भूमिका अदा करती है।

इसी संख्या की तलाश में आजकल प्रदेश के दोनों दल एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। जितनी भी राजनीतिक चालें चली जा रही हैं, वे सब संख्या को अपने पक्ष में करने के लिए हैं। अब हिमाचल प्रदेश में आम चुनावों के साथ-साथ फिलहाल छह विधानसभा की सीटों पर उपचुनाव भी होने जा रहे हैं। इस बात की कल्पना शायद ही किसी प्रदेशवासी ने की होगी कि सरकार के चौदह महीने के कार्यकाल के भीतर ही प्रदेश को इतने बड़े स्तर पर राजनीतिक अस्थिरता का सामना करना पड़ेगा और आम चुनावों के साथ ही विधानसभा के उपचुनावों के लिए भी मतदान करना पड़ेगा। हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में आज तक कभी भी इतनी बड़ी उठापठक नहीं हुई है। इतिहास पर अगर नजर डाली जाए तो 1998 के विधानसभा चुनावों के बाद पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता को उस समय के राजनीतिक धुरंधरों ने अपनी राजनीतिक परिपक्वता और सूझबूझ का परिचय देते हुए समय पर निपटा लिया गया था और प्रदेश को दोबारा से चुनावी रण में जाने से बचा लिया गया था। अब क्योंकि बात जनता के दरबार में है तो प्रदेश की जनता इस सारे घटनाक्रम का पोस्टमार्टम करते हुए नजर आ रही है। हालांकि पहाडिय़ों द्वारा किया जाने वाला इस तरह का यह पहला पोस्टमार्टम है लेकिन अपने स्वभाव के अनुसार प्रदेशवासी शांति और सादगी से इस सारे काम को अंजाम देने में लगे हुए हैं। हिमाचल प्रदेश के चार जिलों के छह विधानसभा क्षेत्रों में भले ही चुनावी शोर सबसे अधिक हो, लेकिन कहीं न कहीं इसकी जकड़ में पूरा हिमाचल आ चुका है। आम चुनावों की चर्चा को उपचुनावों के शोर ने पूरी तरह से ढक लिया है।

इस बार उपचुनावों के परिणामों के रूप में प्रदेशवासियों द्वारा दिया जाने वाला संदेश न केवल प्रदेश को, बल्कि पूरे देश को एक नई दिशा दिखाने वाला हो सकता है। हिमाचल प्रदेश लगभग पूर्ण शिक्षित राज्य है और यहां के निवासी बुद्धिमान हैं और तर्कशील स्वभाव रखते हैं। हिमाचल प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियां इस समय माहौल को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर अपने पूरे शबाब पर है। इसलिए मतदाता दोनों दलों की बातों को ध्यान से सुन रहा है और अपने निर्णय की ओर आगे बढ़ रहा है।

राकेश शर्मा

स्वतंत्र लेखक


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