वजूद तलाशती भारतीय भाषाएं

अंग्रेजी भाषा की हुकूमत से यदि भारतीय भाषाएं बहरों की अंजुमन में दर्द की गजल पेश करके अपने वजूद पर अश्क बहा रही हैं तो मैकाले का तस्सवुर यही था। अत: अपनी शिक्षा-संस्कृति का वजूद बचाने के लिए भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता अवश्य देनी होगी…

किसी राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था व संस्कृति का स्वरूप बिगाड़ कर राष्ट्र के भविष्य युवावेग को अपने गौरववशाली अतीत के ज्ञान से महरूम कर दिया जाए तो देश के युवावेग का दिशाहीन होना तय है। युवावर्ग में राष्ट्रवाद के इंकलाबी जज्बात पैदा करने की ताकत व गुण मातृभाषा की शिक्षा में समाहित होते हैं। मातृभाषा व सांस्कृतिक परंपराओं को दरकिनार करके समृद्ध राष्ट्र की परिकल्पना नहीं की जा सकती। भारत पर हमले करने वाले आक्रांताओं तथा दो सौ वर्षों तक हुक्मरानी करने वाले अंग्रेजों को इस बात का पूरा इल्म था कि विश्व प्रसिद्ध भारतीय संस्कृति व कई भाषाओं की जननी ‘संस्कृत’, वैदिक साहित्य तथा उत्तम शिक्षा व्यवस्था ‘गुरुकुल’ पद्धति भारतवर्ष की वास्तविक ताकत है। आक्रांताओं ने विश्व के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा केंद्रों व धार्मिक स्थलों पर हमले करके भारत के वैदिक ज्ञान भंडारों को नेस्तनाबूद कर दिया। बर्तानिया हुकूमत के दौर में ‘चाल्र्स ग्रांट व थामस बैबिंगटन मैकाले’ जैसे अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर अंग्रेजी विषय को थोपकर भारत की पारंपरिक शिक्षा पद्धति का स्वरूप बिगाड़ दिया। नतीजतन हिंदोस्तान के फलक पर आफताब का उदय ‘गुड मॉर्निंग’ से हुआ।

मैकाले की सोच थी कि अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से भारत में ऐसा वर्ग तैयार होगा जो रंग-रूप से भारतीय होगा, मगर नैतिकता, विचारों व बुद्धिमता से अंग्रेज होगा। सन् 1860 में भारतीय दंड विधान के ग्रंथ ‘द इंडियन पीनल कोड’ की तम्हीद तैयार करने वाले मशहूर बैरिस्टर लार्ड मैकाले का अंग्रेजी भाषा के पक्ष में तर्क इतने दमदार व प्रभावशाली थे कि भारतीय शिक्षा पद्धति की बुनियाद गरुकुल, वैदिक साहित्य व कई भाषाएं हाशिए पर चली गर्इं। अंग्रेजी मीडियम के नाम पर देश में निजी स्कूलों की संख्या में इजाफा होने से सरकारी स्कूल बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं। गांव, देहात व दूरदराज के क्षेत्रों की प्रतिभाएं उच्च शिक्षा से महरूम रह रही हैं। मुल्क के जम्हूरी निजाम पर हुक्मरानी करने वाले सियासी रहनुमाओं व धनाढ्य वर्ग के बच्चों की शिक्षा का मरकज विदेशी शिक्षण संस्थान हैं। विदेशों में पढ़ाई करने वाले भारतीय छात्रों पर नस्लीय हमले व हत्याएं होने के बावजूद विदेशों से डिग्रियां लाने की होड़ मची है। हजारों वर्ष पूर्व भारतीय शिक्षा के आधार स्तम्भ रहे महान आचार्य ‘बहुश्रुती’ ने शिक्षा के संदर्भ में कहा था कि ‘शिक्षा वही जो शिक्षार्थी के आचरण में समा जाए। यदि छात्रों के आचरण में विदेशी शिक्षा का समावेश हो रहा है तो मैकाले का आकलन सही था। हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में वीणावादिनी ‘सरस्वती जी’ को विद्या व संगीत शास्त्र की अधिष्ठात्री देवी माना गया है। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी दिवस व मातृभाषा दिवस भी मनाए जाते हैं। लेकिन देश में शिक्षा को लेकर ऐसा तनाजुर पैदा हो चुका है कि ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेज बनाने की चाहत में अपने गांव, देहात को छोडक़र शहरों में कयाम बनाकर महंगी फीस अदा करके निजी शिक्षण संस्थानों की मइशत को मजबूत कर रहे हैं।

कई विदेशी शिक्षण संस्थानों के अर्थतंत्र का वजूद वहां पढ़ रहे भारतीय छात्रों की फीस पर निर्भर है। हैरत की बात है कि कुछ राज्यों की सरकारें शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने के लिए अपने शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए सिंगापुर, फिनलैंड व ब्रिटेन जैसे देशों में भेजकर अपने तालीमी निजाम में इंकलाब लाने के दावे कर रही हैं, जबकि देश के भविष्य की मजबूत बुनियाद मातृभाषा की शिक्षा पर निर्भर करती है। मासूमों के दिमाग पर अंग्रेजी माध्यम के बोझ को महसूस करके बिहार के शिक्षा मंत्री रहे ‘कर्पूरी ठाकुर’ ने सन् 1967 में अपने राज्य के शिक्षा बोर्ड से अंग्रेजी विषय की अनिवार्यता को मैट्रिक तक समाप्त कर दिया था। कर्पूरी ठाकुर की कोशिश के बाद मिशनरी स्कूल हिंदी विषय पढ़ाने को मजबूर हुए। संविधान सभा पैनल की एकमात्र महिला सदस्य व सन् 1958 में ‘राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद’ की प्रथम अध्यक्ष बनी ‘दुर्गाबाई देशमुख’ ने शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम के विरोध में सन् 1922 में आंध्र प्रदेश के काकीनाडा में बालिका हिंदी पाठशाला का शुभारंभ कर दिया था। दक्षिण भारत से संबंध रखने वाली मशहूर वकील दुर्गाबाई देशमुख ने शिक्षा में हिंदी माध्यम की पुरजोर पैरवी की थी। ‘मेरे सपनों का भारत’ नामक किताब में गांधी जी ने अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पर चिंता व्यक्त की थी। गांधी जी का तर्क था कि भारत जितनी जल्दी खुद को अंग्रेजी माध्यम के सम्मोहक जादू से मुक्त कर लेगा, देश के लिए उतना ही बेहतर होगा। यदि आजादी के सात दशक बाद भी देश में जम्हूरियत की पंचायतों में सियासी रहनुमां अंग्रेजी में तकरीर पेश करते हैं। अदालतों में दलीलें अंग्रेजी में पेश की जाती हैं। कई राज्यों में हिंदी विषय का विरोध होता है। अंग्रेजी को पूरे अदब से तसलीम किया जाता है। अफसरशाही का व्यवहार अंग्रेजियत पर केंद्रित होने से अफसरशाही व जनसाधारण लोगों के बीच एक खाई पैदा हो चुकी है। तो ये लार्ड मैकाले की दूरदर्शी सोच का करिश्मा है। इस विषय पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

अंग्रेजी विषय की पढ़ाई में कोई बुराई नहीं है, मगर यूनेस्को के अनुसार 197 भारतीय भाषाओं का वजूद मिट चुका है जिसका कारण अंग्रेजी है। अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व से एक बड़े बिजनेस में तब्दील हो चुकी शिक्षा व्यवस्था के चलते वैश्विक शिक्षा का केंद्र रहे तक्षशिला, नालंदा व विक्रमशिला जैसे प्रतिष्ठित शिक्षा केन्द्र अपने गौरवशाली अतीत पर अश्क बहा रहे हैं, मगर दीक्षांत समारोहों में डिग्रियां प्रदान करते वक्त जब काला गाउन पहना जाता है तो लार्ड मैकाले की आत्मा आज भी सुकून महसूस करती है। स्मरण रहे अंग्रेजी के जरिए भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने में शिद्दत भरी मुद्दत-ए-मुलाजमत के लिए ही थामस बैबिंगटन मैकाले को बर्तानिया बादशाही ने ‘लार्ड’ की उपाधि से सरफराज किया था। अंग्रेजी भाषा की हुकूमत से यदि भारतीय भाषाएं बहरों की अंजुमन में दर्द की गजल पेश करके अपने वजूद पर अश्क बहा रही हैं तो मैकाले का तस्सवुर यही था। अत: अपनी शिक्षा और संस्कृति का वजूद बचाने के लिए भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता अवश्य देनी होगी।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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