अपने-अपने मुगालते

By: Apr 2nd, 2024 12:05 am

हिमाचल विधानसभा का आचरण पहले जनादेश की काबिलीयत में प्रतिबिंबित होता था, वही अब अकालग्रस्त सियासी चरित्र की परिक्रमा में व्यस्त है। छोटे से प्रदेश में आखिर इतने बड़े नखरे क्यों सुशोभित होने लगे। आश्चर्य यह कि तीन निर्दलीय विधायकों के इस्तीफे अब खुराफाती मंजर की दुहाई देने लगे। न चैन की बांसुरी पहले विधानसभा चुनाव में बजी और न अब उपचुनाव की संगत में मुंह छुपाने की होड़ असरदार दिखाई देती है। मुगालते में लोकतंत्र को यह भी मालूम नहीं कि नैतिकता के इस्तीफे किस करवट सही और किसके कसूर से गलत। कांग्रेस के छह विधायक इस्तीफों के परचम से उपचुनाव में मापे जाएंगे, तो यही दस्तूर निर्दलीय विधायकों को कौन सा पाठ पढ़ा रहा है। बहरहाल घोषित उपचुनाव का कारवां विधानसभा के अध्यक्ष की दहलीज पर थमा है। बाईस मार्च को तीन निर्दलीय विधायकों के इस्तीफे पर कुंडली मार कर बैठी लोकतंत्र की लाज की व्याख्या स्पीकर कर रहे हैं या खिचड़ी पका कर ही फैसला होगा कि ये कदम कब किस पर भारी पड़ेंगे। पहली बार तीन निर्दलीय विधायक अपने इस्तीफों की इज्जत बचाना चाहते हैं, जो लोकतांत्रिक प्रणाली के अनिश्चित व्यवहार में फंसी है। जाहिर है राजनीतिक घटनाक्रम के दरिया अभी सूखे नहीं और न ही सियासी गणित में इस्तीफों का जहाज डूबा है। लोकतांत्रिक अधिकारों की व्याख्या में समीक्षा है ही कहां। विधानसभा अध्यक्ष का दायित्व इस खोजबीन में है कि कहीं किसी दबाव में निर्दलीय अपनी विधायकी न छोड़ रहे हों, लेकिन दबाव है कहां, अभी तक मालूम नहीं। जिस तरह से विधायक सदन में आए, उससे बड़ी वजह खोजी जा रही है। कारणों की भी लड़ाई कई बार इस तरह होती है, जहां नैतिकता का हवाला भी एक कारण है। कारण समझने के बजाय अपने कारणों से विधानसभा के पात्र एक दूसरे के खिलाफ इतना आगे बढ़ गए हैं कि अब जो इस्तीफा देना चाहते हैं, उन्हें इससे दूर रखने की वजह दिखाई दे रही है। पहली बार विधानसभा परिसर में ऐसा भी एक सदन लगा है, जहां तीन विधायक अपनी विधायकी को खोना चाहते हैं।

यहां सत्ता बनाम विपक्ष देखा जा सकता है, लेकिन उससे भी आगे निकल कर निर्दलीय विधायक फिर से चुनाव को आजमाना चाहते हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार ये भाजपा के रंग में मतदान को भुनाना चाहते हैं। बावजूद इसके इस्तीफों को मंजूर कराने के लिए अगर विधायक धरने पर बैठे हैं, तो यह बदलती राजनीति को भी प्रमाणित करता है। विधायक पुन: परीक्षा में उतरने के लिए मान मनौव्वल कर रहे हैं, तो यह जनादेश का अंतिम प्रश्र नहीं। जनादेश को पलटने की शिरकत में देश की गलियां खामोश रहेंगी या इंकलाब जनता के परिवेश में भी आएगा। विधायकों का धरना उस अवधारणा को जन्म दे रहा है कि अब सियासत की रात हमेशा उजालों से लड़ेगी या कब नेताओं की बारात अपना रास्ता बदल लेगी। देहरा, नालागढ़ और हमीरपुर की जनता ने दो प्रमुख दलों को ठुकरा कर क्यों निर्दलीयों को आजमाया, यह विषय जानने के लिए सियासत फिर इन्हीं इलाकों में लौट रही है। इस बार निर्दलीयों ने भाजपा का दामन थाम कर चुनाव की बोली लगाई है। यह खेल कांग्रेस और भाजपा के बीच कितना लंबा चलेगा और अंतत: क्या फैसला होता है, इससे कहीं अलग जनता की अदालत को भी तो यह सदमा हो सकता है। बैठे-बिठाए प्रदेश की नब्ज पर उपचुनाव का हाथ आखिर टटोल किसे रहा है। जाहिर तौर पर निर्दलीय भाजपा के लिए कुर्बान हुए, लेकिन इनके साथ कुर्बान हुआ एक आम चुनाव और जनता के कुछ साल। बहरहाल नौ विधायकों ने राजनीति का एक चमन छोड़ा है, लेकिन अमन के लिए भाजपा का रक्षा कवच पहना है। भाजपा रक्षा कवच के प्रदर्शन में जो भी हासिल करेगी, उससे पार्टी का दायरा बढ़ेगा, लेकिन इस पूरी कसरत ने सियासत की चवन्नियों को भी उछलने का मौका दिया है। दोनों ही प्रमुख दलों में नए आगाज की सुबह के बावजूद कहीं ग्रहण लगने का अंदेशा है।


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