छिलकों की छाबड़ी : नकली फानूस बनी दुनिया

By: Apr 4th, 2024 12:02 am

समय इतना बदल गया है कि अब इसकी सही से पहचान भी नहीं हो पाती। पहले बड़ी उम्र का हो जाना वरिष्ठता होती थी। पूरा नगर, पूरा गांव बड़े-बूढ़ों का सम्मान करता। अब बूढ़ा हो जाने का अर्थ है, बासी हो जाना। पुराने चावलों की आज कद्र नहीं होती, उनके माथे पर ‘बासी कढ़ी में उबाल आना’ जैसे मुहावरे चिपका दिए जाते हैं। आपने दिन-रात मेहनत करके खुद चना-चबेना खाकर अपनी दिन-रात की मेहनत से अपने बेटों, भतीजों को पढ़ाया, रोजगार करने के काबिल बनाया, और आज वे आपको आंखें दिखाते हुए कहते हैं, ‘यह आपका अपना चुनाव था, हम तो आपको कहने नहीं गए थे कि आप चना-चबेना खाकर अपने हक की रोटी खर्च हमें काबिल बनाओ।’ यह आपका अपना खुद किया गया चुनाव था। इसके बल पर हमसे किसी राहत-रियायत की उम्मीद न करना। आपकी यह फरियाद हमें टसुवे बहाने जैसी लगती है। फिर किस हक की कमाई करने की बात आप कहते हैं। आजकल हक या बिना हक की कमाई होती कहां है? फिर यह नौजवानों का देश है। देश की आधी आबादी पैंतीस की उम्र से नीचे है, और उनमें से अधिकतर बेकार हैं। देश के आंकड़ा शास्त्री कहते हैं कि समय बीतने के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान की तरक्की के साथ इस देश के लोगों की औसत उम्र बढ़ती जा रही है, अर्थात हर साल पहले से अधिक बूढ़ों की संख्या लोगों को नासूर की तरह परेशान करती रहती है। आप हक की कमाई की बात कहते हैं? जनाब किसी भी तरह कमाई होनी चाहिए, चाहे किसी नाजायज रास्ते से ही हो जाए। आजकल तो चौराहे पर भीख भी दीनता और आहत होने का आडम्बर किए बिना नहीं मिलती। खैरात मांगने-कमाने का यह फार्मूला नीचे से ऊपर तक चलता है। जरूरतमंद और दीनविहीन होने की नौटंकी जितनी कामयाबी से करो, उतना ही सफलता आपका माथा चूमेगी। वैसे आजकल खैरात भी सरकारी मुहर के साथ पेशेवाराना हो गई। इस देश की भूख, बेकारी, बीमारी का एक ही समाधान है, खैरात। रोटियों के फ्री कैम्प से लेकर औषधियों और टीकों के फ्री कैम्प लगाओ, अपनी फोटो अखबार में छपवाओ। चेहरा यूं बहुचर्चित हो जाओ, तो उसे किसी चुनाव की ओलम्पिक में दौड़ाओ।

रोशन मीनारों की नींव में इन पथमसीहाओं का बलिदान नहीं, नित्य नए मुहावरे गढ़ कर एक नई क्रांति का आभास पैदा कर सकने की सामथ्र्य होती है, क्योंकि ऐसी कोई सामथ्र्य बूढ़ों के पास नहीं रहती। वह तो नैतिकता और आदर्शों की दुहाई देते नजर आते हैं। इसलिए उन्हें जितनी जल्दी, वे असम्बद्ध करार देकर नकार दिया जाए, उतना ही अच्छा। पिछले दिनों जब महामारी का प्रकोप अनियंत्रित हो रहा था, तो न्याय पीठ से भी एक वचन मुखरित हुआ, ‘अरे औषधि कम है, टीके नहीं मिलते, तो पहले अपनी युवा शक्ति को इससे बचाओ। टीके लगाओ। बूढ़ों का क्या है?’ जी हां, बूढ़े से अधिक अनचाहा बोझ और कोई नहीं। बूढ़ों की दुर्दशा पर सियासत करने के लिए लोग तैयार हैं, लेकिन एक सेहतमंद बूढ़ा उन्हें दु:संवाद नजर आता है। यह सुनी-सुनाई बात नहीं, अभी किए गए पेंशन के कानून के संशोधन ने भी हमें समझाया है। अभी खबर मिली है कि भौतिकता से ललचाये और बौराये रिश्तदार पेंशन पाते बूढ़ों को मौत के घाट उतारने लगे हैं, ताकि उनकी पारिवारिक पेंशन से अपनी जेबें भर सकें, रिश्तेदारी में इसे लेने का अपना हक जता मुकद्दमे बरसों चलते हैं। इस बीच उनकी संतान को कोई कष्ट न हो और पेंशन का भुगतान बिना विलम्ब होता रहे। सरकार ने कानून बनाया। इसलिए नाबालिग बच्चों के संरक्षक अधिकारी बनेंगे। अब स्वाभाविक संरक्षक कौन है? इस पर झगड़े बढ़ेंगे। नए वेतन आयोग ने पेंशन बढ़ा दी है, तो ऐसी निर्मम हत्याएं और सामने आएंगी। जा रे जमाना, युगधर्म ने कैसी चाल बदल ली…?

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


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