आंतरिक लोकतंत्र के बागी

By: Apr 27th, 2024 12:05 am

आम चुनाव, 2024 के संदर्भ में बागी उम्मीदवारों की भी चर्चा की जानी चाहिए। बागी उम्मीदवार किसी भी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव के संकेत होते हैं। राजनीतिक दल अपने ही नेताओं, प्रत्याशियों की राजनीतिक बगावत के कारण दोफाड़ तक हो जाते हैं। जनाधार विभाजित हो जाते हैं। काडर और समर्थक भी बंट जाते हैं, लेकिन कई बार यह बगावत अपरिहार्य लगती है। चुनाव लडऩे और सांसद, विधायक बनने की महत्वाकांक्षा औसत राजनीतिक कार्यकर्ता के भीतर होती है, नतीजतन लोकसभा चुनाव में भी 300 से अधिक बागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। यह आंकड़ा कम-ज्यादा भी हो सकता है, क्योंकि बागियों की अधिकृत सूचना चुनाव आयोग जारी नहीं करता। पार्टियों में बागी चेहरे तभी सामने आते हैं, जब पार्टियों की चुनाव समिति किसी और को उम्मीदवार घोषित करती है और कई बार स्थापित नेताओं और जनप्रतिनिधियों के भी टिकट काट दिए जाते हैं। भाजपा ने एक-तिहाई सांसदों को इस बार अधिकृत उम्मीदवार घोषित नहीं किया है, लेकिन पार्टी कर्नाटक की शिमोगा सीट को लेकर चिंतित है। कर्नाटक के प्रख्यात नेता येदियुरप्पा के पुत्र एवं प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विजयेन्द्र के सामने, शिमोगा सीट पर, के. एस. ईश्वरप्पा निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं।

कभी ईश्वरप्पा राज्य सरकार में उपमुख्यमंत्री एवं गृहमंत्री होते थे। वह आरएसएस के बहुत पुराने कार्यकर्ता रहे हैं। भाजपा ने उन्हें बदल कर विजयेन्द्र को अवसर देने का फैसला किया, लेकिन ईश्वरप्पा अचानक बागी हो गए। फिलहाल भाजपा नेतृत्व ने उन्हें 6 साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया है। मौजू सवाल यह है कि ऐसे बागी उम्मीदवार के कारण भाजपा को चुनावी नुकसान हुआ, तो क्या होगा? एक-एक सांसद बेहद कीमती होते हैं, तभी 370 या 400 की संख्या तक पहुंचना संभव होगा। राजस्थान की बाड़मेर सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार रवीन्द्र भाटी की खूब चर्चा है। उन्होंने निर्दलीय ही विधानसभा चुनाव, 2023 जीता था, तो वह भाजपा के करीब आए थे, लेकिन चुनाव समिति ने कैलाश चौधरी को टिकट दे दिया। अब रवीन्द्र भाटी निर्दलीय ही व्यापक जन-समूह को आकर्षित कर रहे हैं। स्थानीय मुद्दों से जनमत तैयार कर रहे हैं। उन्हें चुनावी चंदा भी खूब मिल रहा है। राजस्थान की चुरू सीट पर भी भाजपा में बागी पैदा हुआ है। वहां से भाजपा के राहुल कस्वां सांसद चुने गए थे। पार्टी ने इस बार पैरालंपिक के स्वर्ण पदक विजेता भाला फेंक खिलाड़ी देवेन्द्र झाझरिया को अधिकृत उम्मीदवार बनाया, तो राहुल बागी होकर कांग्रेस में चले गए और कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं। चुनाव नतीजे की भविष्यवाणी हम नहीं करते, लेकिन भाजपा को कुछ नुकसान जरूर हो सकता है। राजस्थान में ही कांग्रेस के कार्यकर्ता अपने ही गठबंधन नेता के खिलाफ अभियान क्यों चला रहे हैं। बांसवाड़ा-डूंगरपुर सीट ‘इंडिया’ गठबंधन के तहत बीएपी के हिस्से दी गई थी, लेकिन कांग्रेस के नाराज उम्मीदवार ने भी मैदान नहीं छोड़ा। अंजाम क्या होगा, सभी राजनीतिक विश्लेषक जानते हैं। महाराष्ट्र में अमरावती सीट पर 2019 में निर्दलीय उम्मीदवार नवनीत राणा जीती थी। इस बार भाजपा ने उन्हें अपना अधिकृत प्रत्याशी बना लिया। महायुति के स्थानीय नेता भी नाराज हैं और बागियों का उतरना भी तय है।

ऐसे बागियों की सूची लंबी है। बेशक पार्टियां बागी नेताओं को मनाती हैं। उन्हें नामांकन न भरने या उसे वापस लेने को पुचकारती हैं। पार्टी के भीतर कुछ देने का आश्वासन भी दिया जाता है। इस संदर्भ में सफलता-दर बहुत कम है। बागियों को इतने वोट तक मिल जाते हैं कि वे या तो जीत के फासले के करीब पहुंच जाते हैं अथवा अधिकृत प्रत्याशी को पराजित कर देते हैं। छत्तीसगढ़ की रायपुर उत्तर सीट पर विधानसभा चुनाव, 2023 में ऐसा ही हुआ कि कांग्रेस उम्मीदवार बागी चेहरे के कारण चुनाव हार गया। यदि बागी उम्मीदवार के बावजूद मूल पार्टी का अधिकृत चेहरा चुनाव जीत जाता है, जैसा कि राजस्थान के विधानसभा चुनाव, 2023 में हुआ, तो बागी नगण्य और अप्रासंगिक भी हो जाता है। सवाल है कि पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र बरकरार रखने की खातिर किस-किस की महत्वाकांक्षा को पूरा किया जा सकता है? यदि पार्टी है, तो संगठित रूप से चुनाव लडऩे का मौका सभी को मिलना चाहिए और यह निर्णय चुनाव समिति का ही मान्य होना चाहिए। वह भी लोकतंत्र है। बहरहाल, इस बार के लोकसभा चुनाव में देखना यह होगा कि बागी किस हद तक समीकरण बिगाड़ते हैं।


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