गोली मार भेजे में

By: Apr 16th, 2024 12:05 am

लोकतंत्र की गंदली और दिन पर दिन सूख रही नदी की मौज़ों में घंटों मौज करने के बाद एक चट्टान पर लेटे झुन्नू लाल विटामिन डी का आनन्द उठा रहे थे। हफ़्ते के छ: दिन, एक कारख़ाने में बारह घंटे, आठ हजार रुपये की मज़दूरी करने वाले झुन्नू को आज रविवार की छुट्टी थी। देश में मौज पूरी तरह उतरी नहीं थी। लोकतंत्र की नदी में अभी कुछ जीवन शेष था। नहीं तो हो सकता था कि वह हफ़्ते के सातों दिन कारख़ाने में मौज मारने के आदी हो जाते। कई दिनों से घर के सरकारी नल में पानी, बरसों से महंगाई से मिली राहत की तरह ग़ायब था। महंगाई से राहत न मिलने पर आदमी सालों किसी तरह जी लेता है। लेकिन बिना नहाए कितने दिन रह सकता है। मजबूरन, नहाने के लिए मुझे नदी पर जाना पड़ा। झुन्नू को देखते ही मैं चहक उठा। लगा कि कोई तो अपना है। सोचा कि लोकतंत्र की नदी में गहरे उतरते हुए पांव फिसलने पर कोई तो बचाने वाला होगा। नहीं तो डूबने वाले कितने लोग जमानत को तरस रहे हैं। झुन्नू के पास पहुंचा तो देखकर दंग रह गया। औंधे लेटे हुए अपने साथ लिटाए मगरमच्छ के बच्चे को थपकी देकर सुला रहे थे। मैंने नोट किया कि उनका सिर पारदर्शी लग रहा है। पूछा तो कहने लगे कि समाज में कुतर्क इतना बढ़ गया है कि भेजा निकाल कर घर की अलमारी में बंद कर दिया है। लेकिन ताला अलीगढिय़ा नहीं, गोदरेज का लगाया है। हो सकता है कि अलीगढ़ का ताला विधर्मी निकले। फिर गाने लगे, ‘गोली मार भेजे में, ढिचकियाऊं कि भेजा शोर करता है।’ उनके साथ-साथ मगरमच्छ का बच्चा भी अपने पंजे से ताल देने लगा।

लेकिन मेरी उत्सुकता शांत नहीं हुई। मैंने उनसे अनुनय करते हुए भेजा निकालने की वजह पूछी तो वह पालथी मार कर बैठ गए। मगरमच्छ के बच्चे को अपनी गोद में लेकर सहलाते हुए गाने लगे, ‘मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूं, काश पूछो कि मुद्दा क्या है?’ फिर आंखें बंद करके किसी गहरे में उतरते हुए बोले, ‘सिर में गोबर भरने से बेहतर है कि दिमाग़ निकाल कर अलमारी में रख दो। कम से कम सार्वजनिक जीवन में कुतर्क तो नहीं झेलने पड़ेंगे। अगर कोई सिर में गोली भी मारेगा तो आरपार हो जाएगी। नहीं तो सिर में गोबर होने पर गोली बीच में फंस सकती है। ऐसे में कोमा में जाने की पूरी संभावना है। कुतर्कों को देखकर भेजा शोर किए बिना रह नहीं सकता। बच्चे अभी छोटे हैं और बीवी ज़वान। फिर मुझ में देश सेवा का वह जज़्बा भी नहीं कि उन्हें छोड़ कर घर से भाग जाऊं। बाबू! तर्क के सहारे लडऩे पर मन तो मारा जा सकता है। लेकिन पेट कौन मारेगा? अढ़ाई फुट का यह गड्ढा तो खाना माँगता है, मुसलसल। अपने बौद्धिक विलास के लिए मैं अपने परिवार को ख़त्म नहीं कर सकता। पर यह समझ नहीं आता कि आदमी मगरमच्छ हो गया है या मगरमच्छ आदमी। लेकिन देखो! दोनों में कितना प्रेम बढ़ गया है। मेरी गोद में यह मगरमच्छु कितना पुरसुकूं महसूस कर रहा है। कोमा में जाने से बेहतर है कि आदमी ज़ोम्बी बन कर जीता रहे। फिर चाहे भेजा निकाल कर जिए या गोबर भर कर। कम से कम परिवार का साथ तो बना रहेगा।

हां, भेजा निकालने का इतना फायदा अवश्य होता है कि आदमी कुतर्कों में नहीं जीता। दिमाग़ में गोबर होने पर आदमी कुतर्की हो जाता है।’ उनके जवाब से मुत्तासिर होते मैंने उनसे भेजे को तिलांजलि देने की असली वजह जाननी चाही तो बोले कि जिस समाज में चुनावों में खड़े उम्मीदवार कुतर्कों के सहारे अपने आपको सही ठहराते हुए अपना चुनाव प्रचार करें और उनके समर्थक भी उनके पक्ष में मतदान करें, उसके पतन को कौन रोक सकता है। उनके जवाब से पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद, मैं उनकी गोद से मगरमच्छु को अपनी बांहों में लिए, बिना कुछ देखे और सोचे-समझे लोकतंत्र की नदी में नहाने के लिए कूद पड़ा।

पीए सिद्धार्थ

स्वतंत्र लेखक


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