सोशल मीडिया ने वैचारिक निष्पक्षता को छीन लिया

By: Apr 27th, 2024 12:15 am

जे.पी. शर्मा, मनोवैज्ञानिक
नीलकंठ, मेन बाजार ऊना मो. 9816168952

मीडिया यानी पत्रकारिता संबंधित सूचना व संचार माध्यम सदैव समाज में महत्त्वपूर्ण रोल निभाता आया है। व्यक्ति को रोजमर्रा की खबरों एवं सूचनाओं से जोडऩे का यह अहम माध्यम मर्दों में परस्पर गांव की चौपाल, नाई की दुकान, व गली-मोहल्लों की नुक्कड़ सभाओं से आरंभ हुआ एवं औरतों के त्रिझंण यानी उत्सवों व समाराहों के समूह से पनपता हुआ समाचार पत्रों तक पहुंचा। पहले के माध्यम में प्रिंट मीडिया यानी मात्र अखबार ही खबरों को प्रकाशित करते थे। व्यक्ति की दिनचर्या सुबह-सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढऩे से ही आरंभ होती थी। समय के साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी दूरदर्शन का आगमन हुआ। धीरे-धीरे टीवी में भी अनेक चैनलों का प्रवेश हुआ। तदोपरांत मोबाइल का जमाना आया। समाचार पत्रों एवं टीवी चैनलों से हटकर दर्शक मोबाइल से ही चिपकने लगे। अब तो मोबाइल इनसानी जीवनचर्या का अभिन्न अंग ही बन गया है। जहां देखो घर हो, शिक्षा संस्थान हो, कार्यालय हो या अन्य संस्थान हर जगह गरीब से अमीर तबके तक सभी मोबाइल के अभ्यस्त हो गए। खाना-पीना, सोना सभी मूलभूत आवश्यकताएं भुलाकर मोबाइल के नशे के व्यसनी हो गए। मोबाइल में असंख्य सोशल चैनल आने शुरू हो गए, जो दर्शकों के दिलो दिमाग पर छा गए।

उन पर एक जनून सा सवार हो गया। अब तो आलम यह है कि गमी, खुशी, के संदेश भी मोबाइल से भेजे जाने लगे हैं। दूरदराज बैठे व्यक्ति भी वीडियो काल के माध्यम से वार्तालाप एवं साक्षात्कार के आदी हो गए। काल न मिले, कोई तकनीकी या नेटवर्क की परेशानी हो तो वॉट्सऐप मेल, पर संदेशों का आदान प्रदान होने लगा। सारांश यह कि मोबाइल एक जनून बन सिर पर जादू चढ़ बोलने लगा एवं उसमें दिए गए सोशल साइट्स एक दुव्र्यसन बन कर रह गए। मनोविज्ञान में प्रसिद्ध मनोविशेषज्ञ सर पावलोव ने शिक्षा पद्धत्ति में एक थ्योरी दी है, जिसे ‘लर्निंग बाई कंडीशिनिंग’ कहते हैं, जिसके अनुसार यदि व्यक्ति के मन मस्तिष्क में कोई स्मृति डालनी हो, मिटानी हो या नई स्मृति डालनी हो तो वैचारिक मनोधारा स्मृति पटल को तीन चरणों में प्रभावित करती है, जो व्यक्ति के पूर्ण व्यक्तित्व का सृजन करती है। जिसे लर्निग कंडीशनिंग, डीकंडीशनिंग एवं रीकंडीशनिंग कहा जाता है। मीडिया के सभी माध्यम चाहे प्रिंट हो, इलेक्ट्रॉनिक हो या सोशल साइट्स यानी अखबार हो, टीवी हो या मोबाइल संचालित सोशल मीडिया ही दर्शकों की मानसिकता को प्रभावित कर वैचारिक निष्पक्षता को छीनने का दुश्कृत्य करने पर आमादा है। बेशक अपवाद स्वरूप कुछ अच्छे प्रभावशाली कार्यक्रम भी यदा कदा देखने को अवश्य मिल जाते हैं क्योंकि वर्तमान में सोशल मीडिया पर बंटते ज्ञान ने हमारी वैचारिक निष्पक्षता को छीनने का अधम एवं अमानवीय कुकृत्य किया है।


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