ट्यूनश-कोचिंग जरूरी या मजबूरी

छात्रों को भी अपनी प्रतिभा पर आत्मविश्वास जगाना होगा ताकि ट्यूशन व कोचिंग की जरूरत न पड़े। शिक्षा व्यवस्था का परिदृश्य बदलने वाली ट्यूशन, कोचिंग तथा निजी व विदेशी शैक्षणिक संस्थानों की तरफ छात्रों का बढ़ता क्रेज चिंतनीय है…

देश की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी माध्यम का वर्चस्व तथा शिक्षा का निजीकरण होने के कारण कई वर्षों से बच्चों की पीठ पर शैक्षिक बोझ बढ़ चुका है। अंग्रेजी माध्यम की महंगी पढ़ाई व होमवर्क तथा ट्यूशन के बढ़ते मानसिक तनाव से छात्रों का बचपन व मासूमियत कहीं खो गए हैं। ट्यूशन व कोचिंग कल्चर से एक गंभीर मुद्दा बन चुकी शिक्षा के तनाव से छात्रों के चेहरे का नूर व तवस्सुम गायब हो चुके हैं। दरअसल शिक्षा अधिनियम 1835 के जरिए लार्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा पद्धति पर जो दबाव बनाया था, उसका परिणाम देश की करोड़ों प्रतिभाएं भुगत रही हैं। वर्तमान में बड़े पूंजीपति व कारोबारी लोग निजी तौर पर स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों का संचालन करके देश की शिक्षा व्यवस्था पर कब्जा जमा चुके हैं। ट्यूशन व कोचिंग इंडस्ट्री का वार्षिक कारोबार कई हजार करोड़ रुपए का है। अभिभावक अपने बच्चों को आईपीएस, आईएएस, राजस्व अधिकारी व डाक्टर बनाने की चाहत में कोचिंग सेंटरों में प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए की फीस अदा कर रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के आकर्षण से बच्चों को अंग्रेज बनाने की ख्वाहिश तथा परीक्षाओं में अंकों की चाहत के चलते देश में ट्यूशन व कोचिंग कल्चर की मांग बढऩे से शिक्षा का व्यापारीकरण शुरू हुआ। छात्रों पर बस्ते का बोझ बढ़ता गया। मासूमों पर बस्ते के बोझ को लेकर देश में कई वर्षों से चिंता जाहिर की जा रही है। सन् 1977 में ‘ईश्वर भाई पटेल’ की अध्यक्षता वाली समिति ने बस्ते का बोझ कम करने के लिए शिक्षा मंत्रालय को पहली बार रिपोर्ट पेश करके देश का ध्यान आकर्षित किया था।

देश के मशहूर लेखक व राज्यसभा सांसद आरके नारायण ने सन् 1991 में राज्यसभा में अपने पहले ही भाषण में बच्चों पर बस्ते के बोझ को लेकर चिंता जाहिर की थी। आरके नारायण का शिक्षा पर केंद्रित वो वक्तव्य देशव्यापी चर्चा का केन्द्र बना। नतीजतन केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय हरकत में आया तथा छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों पर स्कूल बैग का बोझ कम करने के मकसद से मार्च 1992 में प्रोफेसर ‘यशपाल’ की अध्यक्षता में देश के आठ शिक्षाविदों की समिति गठित की गई। डा. यशपाल समिति ने ‘बस्ते का बोझ’ नामक रिपोर्ट में कहा था कि ‘बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से ज्यादा बुरा है जो पढ़ाया जाता है, उसे न समझ पाने का बोझ’। सन् 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना था कि भारी स्कूल बैग के कारण छोटे बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। कोचिंग कल्चर पर लगाम लगाने के लिए भी सरकारें कई फरमान जारी कर चुकी हैं। सोलह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए कोचिंग की मनाही है।

मगर अंग्रेजी माध्यम के कारण एक बड़े बिजनेस का रूप ले चुकी शिक्षा व्यवस्था पर न्यायालयों के आदेशों व समितियों के सुझावों का कोई असर नहीं होता। महंगी फीस वसूल कर हर निजी शिक्षण संस्थान छात्रों को बेहतर शिक्षा प्रदान करने के दावे जरूर करते हैं, लेकिन इसके बावजूद लाखों छात्र ट्यूशन व कोचिंग सेंटरों की शरण में जाने को मजबूर हैं। बेशक बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों को अपने उज्ज्वल भविष्य की तलाश में शैक्षणिक मार्गदर्शन के लिए कोचिंग का सहारा लेना पड़ रहा हैं, परंतु हकीकत यह है कि निजी शिक्षण संस्थानों में महंगी फीस अदा करने के बाद ट्यूशन व कोचिंग संस्थानों में जाने से छात्रों का आत्मविश्वास प्रभावित हो रहा है। ज्यादातर छात्रों के जहन में बात बैठ चुकी है कि प्रतियोगी परीक्षा के लिए बिना कोचिंग से वे सक्षम नहीं होंगे। नतीजतन छात्रों में मानसिक तनाव व परीक्षाओं में असफलता के बाद आत्महत्या की प्रवृत्ति पैदा हो रही है। निजी शिक्षण संस्थानों में गाडिय़ों की सुविधा से छात्रों में शारीरिक गतिविधियां कम हो चुकी हैं। ट्यूशन व कोचिंग के बढ़ते प्रचलन से खेलकूद प्रतियोगिताओं का दायरा भी सीमित हो चुका है। सैन्य बलों में सामान्य सेवा के तौर पर भर्ती होने के इच्छुक नौजवान भी कोचिंग के मकडज़ाल में फंस चुके हैं। युवाओं को सशस्त्र बलों में भर्ती कराने के नाम पर देश में सैंकड़ों कोचिंग सेंटर चल रहे हैं। युवाओं को सैन्य बलों के प्रति आकर्षित करने के लिए कई भ्रामक विज्ञापन जारी किए जाते हैं। हैरत की बात है कि जिन लोगों का सैन्य बलों से दूर तक कोई नाता नहीं रहा, जो खुद सैन्य मापदंड प्रक्रिया को पूरा करने में असमर्थ हैं, ऐसे लोग भी कई कोचिंग अकादमियों का संचालन करके युवा वर्ग को सशस्त्र सेनाओं में अधिकारी बनने का ख्वाब दिखाकर महंगी फीस वसूल रहे हैं। यह सब अंग्रेजी तालीम का करिश्मा है। हिंदी व मातृभाषाओं के माध्यम में ट्यूशन व कोचिंग की जरूरत नहीं होती।

यदि देश में करोड़ों छात्र सरकारी स्कूलों से विमुख होकर निजी शिक्षण संस्थानों का रुख कर रहे हैं, अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देने से छात्रों की पीठ पर स्कूल बैग का भार बढ़ चुका है। निजी शिक्षण संस्थान, ट्यूशन व कोचिंग छात्रों के लिए जरूरी व मजबूरी बन चुके हैं। कोचिंग संस्थानों में लाखों रुपए की फीस भरने के बावजूद प्रतियोगी परीक्षाओं में असफलता के बाद प्रतिभाओं का विकल्प आत्महत्या है तो स्वीकार करना होगा कि देश में शिक्षा तंत्र के नीति निर्माता इस विषय पर गंभीर नहीं हैं। निजी विद्यालयों व कोचिंग संस्थानों में उच्च वर्गीय छात्र ही शिक्षा हासिल कर सकते हैं। आर्थिक तौर पर कमजोर अभिभावक अपने बच्चों को निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने तथा ट्यूशन व कोचिंग की महंगी फीस अदा करने में समर्थ नहीं हैं। अत: ट्यूशन व कोचिंग के मोहजाल से छुटकारा पाने के लिए सरकारी शिक्षा व्यवस्था का बुनियादी ढांचा मजबूत होना चाहिए। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो तो छात्रों में सीखने की प्रक्रिया अधिक प्रभावशाली हो सकती है। छात्रों को भी अपनी प्रतिभा पर आत्मविश्वास जगाना होगा ताकि ट्यूशन व कोचिंग की जरूरत न पड़े। बहरहाल देश की शिक्षा व्यवस्था का परिदृश्य बदलने वाली ट्यूशन, कोचिंग तथा निजी व विदेशी शैक्षणिक संस्थानों की तरफ छात्रों का बढ़ता क्रेज, कोचिंग संस्थानों में छात्रों द्वारा आत्महत्याओं के मसले पर शिद्दत भरे फिक्र-ए-फलक की जरूरत है। परीक्षाओं में असफलता के कारण प्रतिभाओं द्वारा आत्महत्याएं करना इंतशार पैदा करने वाला तनाजुर है।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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