चलते सिक्कों के नाम

By: May 10th, 2024 7:21 pm

उम्र की गलियों में जो तसदीक हो गए, वो चिनार अब पतझड़ के लिए ही हैं। राजनीति चलते सिक्कों का नाम है और यही राष्ट्र से प्रदेश तक के चुनावों में देखा जा रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में हिमाचल में लोकसभा से विधानसभा के उपचुनावों में कांग्रेस व भाजपा के उम्मीदवारों के चयन में प्रयास और कयास रहा। संगठन के कारण भाजपा ने अपने सिक्के जल्दी उछाले, जबकि कांग्रेस के लिए उपचुनावों में संगठन की तफतीश हो गई। यही वजह है कि भाजपा ने उपचुनावों में अपना सिक्का जमाने के लिए मूल कांग्रेसियों का भाजपा में अवतरण का महोत्सव बना डाला। बेशक यह दांव मुश्किल व चुनौती से भरा नजर आया, लेकिन भाजपा ने कांग्रेस के कुछ सिक्के छीन कर चुनावी आकाश में उछाल दिए। कम से कम कांग्रेस इन्हें खोटा नहीं कह सकी, भले ही इन्हें बागी कहे या इनके बीच सरगना खोजती रहे। कांग्रेस से छिटक कर भाजपा के उम्मीदवार बने नेताओं ने सियासत का मनोविज्ञान बदला है और इसका असर उनके भविष्य व पार्टियों के परिदृश्य को नए सिरे से पढ़ रहा है। टिकट आबंटन के चक्रब्यूह में भाजपा ने सियासत की शतरंज को भी हैरान किया है, लेकिन कल इसी बिसात पर चुनावी परिणाम की अपनी एक हैसियत होगी। उपचुनाव में एक भी सीट जीतने पर भाजपा की सफलता का परिणाम सोलह प्रतिशत का लाभ देगा। जाहिर है इस हानि का भागीदार वक्त कांग्रेस के लिए महंगा साबित हो सकता है।

इसलिए भाजपा के पास कांग्रेस के सिक्के हैं, तो दूसरी ओर कांग्रेस ने भी भाजपा के दो सिक्के आजमाते हुए डा. राम लाल मार्कंडेय को उछाल कर फेंक दिया। ऐसे में अनुराधा राणा का लाहुल-स्पीति से उम्मीदवार बनना नई करवटों का संगम है। सियासत के शिखर और सियासत के सिफर में अंतर केवल वक्त, विमर्श, वकालत और बगावत का है। हिमाचल में बागी या बगावत न होती, तो छह उपचुनाव या निर्दलयों के इस्तीफे अदालत में न होते। बहरहाल चुनावों की देहरी पर आकर राजनीतिक पार्टियों का व्यवहार असामान्य होने की वजह सत्ता की अंगुलियां चलाने जैसा हो जाता है। ऐसे में हर चुनाव को उम्मीदवारों की ताजगी चाहिए, लेकिन यह असंभव होता जा रहा है। जिस तरह चुनावी पांव से पाजेब लंबी होती जा रही है, उसी तरह कोई भी वरिष्ठ नेता अपनी विरासत नहीं छोडऩा चाहता। भाजपा ने मार्गदर्शक मंडल बना कर प्रेम कुमार धूमल व शांता कुमार सरीखे नेताओं के योगदान को पिंजरे में बंद कर दिया, लेकिन कांग्रेस अपनी सरकार की काबिलीयत में चंद्र कुमार या धनी राम शांडिल की उम्र पर गौर नहीं करती। इसी संदर्भ में डा. राम लाल मार्कंडेय भी खुद को राजनीतिक उम्र में संभालने के लिए भाजपा से दूर, कांग्रेस से मजबूर होकर अब निर्दलीय होकर जौहर दिखाना चाहते हैं। क्या राजनीति लोकतंत्र के लिए चुनाव का व्यवहार ओढ़ती है या सत्ता के निष्कर्ष में खुद को संभालती है। जो भी हो, हिमाचल इस समय केवल दो राजनीतिक पार्टियों में ही नहीं बंटा, बल्कि जनता के उसूल, सत्ता के कबूल और उम्मीदवारों के रसूख पर भी मत विभाजन होगा। राजनीतिक शिथिलता अगर जनता को पसंद नहीं, तो सत्ता के संघर्ष में नेताओं के प्रदर्शन पर भी वोटों की मंडी बंटी हुई नजर आती है। कमोबेश इन चुनावों में हिमाचल दो सरकारों के बीच कहीं प्रधानमंत्री के आभामंडल से उम्मीद कर रहा है, तो कहीं मुख्यमंत्री की तस्वीर से खुद को नत्थी कर रहा। मुख्यमंत्री की सफलता को प्रमाणित करती नई टीम-नई कांग्रेस अगर जीत के लाभांश में आगे आती है, तो यकीनन इसके संदेश राजनीति का कौल बदल देंगे। दूसरी ओर अगर परिस्थितियों व संभावनाओं के साथ प्रधानमंत्री का जादू भी चल गया, तो भाजपा केंद्र के साथ, हिमाचल के आकार में भी अपने केंद्र बिंदु पर आकर सुखद फैसले ले पाएगी।


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