तेरा मंगल होये रे…

By: May 9th, 2024 12:05 am

हमारे पिछले जन्मों के कर्मों के कारण इस जन्म के बहुत से काम या तो खुद ब खुद बनते चले जाते हैं या फिर बनते-बनते भी अचानक बिगड़ जाते हैं। यह हमारे संचित कर्मों का फल है, संचित कर्मों का परिणाम है। सहज संन्यास में हम अपने शुभ कर्मों से अपने पिछले जन्मों के पापों को धो लेते हैं और यह हमारे दुखों, चिंताओं, परेशानियों के अंत का कारण बन जाता है। सहज संन्यास परंपरा में दिखावे के कर्मकांड नहीं हैं, कठिन तंत्र-मंत्र नहीं हैं, पर साथ ही यह भी मान्यता है कि परमात्मा चाहे एक है, पर उस तक पहुंचने के रास्ते कई हैं और कोई दूसरा रास्ता भी गलत नहीं है। सहज संन्यास परंपरा किसी दूसरे रास्ते की आलोचना नहीं है, यह सिर्फ एक और रास्ता है जो जरा ज्यादा आसान है, ज्यादा मकबूल है और थोड़ा ज्यादा प्रभावी भी है…

गुरू नानक देव जी की लिखी आरती ‘गगन मै थालु, रवि चंदु दीपक बने’ मेरी मनपंसद आरती है और इसी तरह ‘तेरा मंगल, तेरा मंगल, तेरा मंगल होये रे’ मेरा मनपसंद भजन। इस भजन की खासियत यह है कि यह सबसे पहले सामने वाले के मंगल की प्रार्थना है, फिर सबके मंगल की प्रार्थना है और उसके बाद, गुरू, माता, पिता आदि के मंगल की कामना के बाद सबसे आखिर में खुद के मंगल की प्रार्थना है। इस भजन में सबके लिए निस्वार्थ भाव से प्रेममय हो जाने का भाव, सबको बिना किसी लालच के, बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी जान-पहचान के देने का भाव, सबके लिए सेवा का भाव निहित है, जो मुझे इसलिए भी पसंद है क्योंकि सहज संन्यास मिशन हम लोग इसी ध्येय के साथ काम करते हैं। अध्यात्म की सीढिय़ां नामक सीरीज की इस लेख माला में मैंने बार-बार यही बताने की कोशिश की है कि परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण, ब्रह्मांड की हर जड़-चेतन वस्तु और प्राणी के लिए प्रेम, सम्मान और सेवा का भाव ही असली आध्यात्मिकता है। हम ऐसा कर लें तो हमारी सोच बदल जाती है, शिकायतें खत्म हो जाती हैं, चुनौतियां परेशान नहीं करतीं, और मन में असीम कृतज्ञता का सुखदायी भाव आ जाता है। इस भजन की पहली दो पंक्तियां ही बड़ी प्रेरणादायक हैं जिनमें कहा गया है – ‘तेरा मंगल, तेरा मंगल, तेरा मंगल होये रे- सबका मंगल, सबका मंगल, सबका मंगल होये रे।’ ऐसी शुद्ध भावना, ऐसा निस्वार्थ प्रेम जब हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है तो अध्यात्म के रास्ते की सारी अड़चनें खत्म हो जाती हैं, हम और ब्रह्मांड एकाकार हो जाते हैं, हम मंदिर हो जाते हैं, हम परमेश्वर हो जाते हैं। भजन में आगे अपने गुरुदेव का मंगल, फिर माता का मंगल और उसके बाद पिता का भी मंगल मांगा गया है।

और आगे चलें तो भजन में जगत के हर दुखियारे प्राणी का मंगल और जल, थल और गगन के हर प्राणी के मंगल की प्रार्थना है। तब कहीं जाकर अपने लिए कुछ कहा गया है और वो भी ये कि हे प्रभु, मेरे अंतर्मन की गांठें टूट जाएं, मेरा अंतर्मन निर्मल हो जाए, मेरे मन में राग-द्वेष न रहे, मोह मिट जाए और मैं हमेशा शील समाधि की अवस्था में रह सकूं। इसके बाद फिर से इस धरती के लिए, पूरे समाज के लिए, इस धरती के सभी प्राणियों के लिए दुआ की गई है कि यहां धर्म की पुनस्र्थापना हो और धरती के कण-कण में धर्म समाए, जन-जन में धर्म की भावना उदित हो और हर घर में शांति हो। अंत में फिर से कहा गया है – ‘तेरा मंगल, मेरा मंगल, सबका मंगल होये रे।’ इस भजन के माध्यम से हम खुद को समाज से, ब्रह्मांड से और परमात्मा से जोड़ लेते हैं। यह भजन हमें सिखाता है कि हम खुद को समाज से अलग या समाज से बड़ा नहीं मानते और पूरे समाज की भलाई की कामना के बाद, खुद को समाज के अंग के रूप में ही अपने लिए कुछ मांगते हैं। यह अध्यात्म की सीढ़ी की पहली, परंतु आवश्यक पायदान है। इस भावना के बिना हम अध्यात्म की सीढिय़ों पर आगे नहीं चढ़ सकते। फिर भी यह समझना जरूरी है कि यह एक सात्विक गृहस्थ की प्रार्थना है, क्योंकि इच्छा अभी बाकी है, मांग अभी बाकी है, समर्पण है पर पूरा समर्पण नहीं हो पाया। इसीलिए यह सिर्फ पहली पायदान है। इस पायदान को पार कर लेने के बाद अगली पायदान में हम पूर्ण समर्पण की स्थिति में पहुंच जाते हैं जहां हमारी अपनी कोई इच्छा, कोई महत्वाकांक्षा बाकी नहीं रह जाती। जीवन हमें जो कुछ देता है, हम उसे अहो भाव से स्वीकार करते चलते हैं।

कुछ भी हमें विचलित नहीं करता, परेशान नहीं करता, चिंतित नहीं करता, दुखी नहीं करता, हम आत्मग्लानि के शिकार नहीं होते और हम समभाव में रहना सीख लेते हैं। हमारा जीवन ही पूजा बन जाता है, वंदना बन जाता है, उपासना बन जाता है, बंदगी बन जाता है और हमारा हर काम परमात्मा के प्रति समर्पण के भाव से पूरा होता है। जब ऐसा हो जाए तो हमें सचमुच फल की चिंता नहीं रह जाती और हम दुनियादारी की अपनी सभी जिम्मेदारियां निभाते हुए भी भगवान श्री कृष्ण की सीख के अनुसार निष्काम कर्म के साक्षी होते चलते हैं। यही कारण है कि यह भजन सहज संन्यास मिशन की भावना का प्रतिनिधि भजन बन गया है और हर सहज संन्यासी पूरी श्रद्धा से इसका गायन करता है। सहज संन्यास मिशन एक ऐसी संन्यास परंपरा है जिसमें संन्यासी न अपना परिवार छोड़ते हैं, न घर छोड़ते हैं, न दुनिया छोड़ते हैं, न ही अपनी नौकरी या व्यवसाय से किनारा करते हैं। इसी तरह न वे कपड़े रंगवाते हैं, न सिर मुंडाते हैं, न जटा बढ़ाते हैं। वे अपने जाने-पहचाने प्राकृतिक स्वरूप में ही रहते हैं, बस उनके सोचने और काम करने का तरीका बदल जाता है। संन्यास शरीर का नहीं, मन का भाव है, आत्मा का भाव है। इसलिए सहज संन्यास मिशन में किसी भी दिखावे का निर्देश नहीं है, किसी अलग पहचान का निर्देश नहीं है। निर्देश सिर्फ यही है कि परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव के साथ मन में एक, एक और केवल एक सेवा का भाव होना चाहिए।

सबका सम्मान, सबसे प्रेम, सबकी सेवा। जैसे ही मन में इस भावना का उदय होता है, मन की चिंताएं, मन के संघर्ष, आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं आदि खुद ब खुद तिरोहित हो जाते हैं। मन निर्मल हो जाता है और जीवन मुक्त हो जाता है। एक ज्ञानी बंदर के बच्चे की तरह होता है जो छुटपन में अपनी मां के पेट के साथ खुद चिपटा रहता है, लेकिन भक्ति मार्ग का साधक एक सहज संन्यासी अपने समर्पण भाव के कारण बिल्ली के बच्चे की तरह हो जाता है जिसे उसकी मां, बिल्ली खुद उठा कर इधर-उधर ले जाती है। मां उसका ध्यान रखती है, मां उसका संरक्षण करती है। भक्त सिर्फ समर्पण कर देता है, परमात्मा खुद उसे अपने सुरक्षा कवच में ले लेते हैं। हमारे पिछले जन्मों के कर्म इस जन्म में हमारा भाग्य हैं, हमारी किस्मत हैं। हमारे पिछले जन्मों के कर्मों के कारण इस जन्म के बहुत से काम या तो खुद ब खुद बनते चले जाते हैं या फिर बनते-बनते भी अचानक बिगड़ जाते हैं। यह हमारे संचित कर्मों का फल है, संचित कर्मों का परिणाम है। सहज संन्यास में हम अपने शुभ कर्मों से अपने पिछले जन्मों के पापों को धो लेते हैं और यह हमारे दुखों, चिंताओं, परेशानियों के अंत का कारण बन जाता है। सहज संन्यास परंपरा में दिखावे के कर्मकांड नहीं हैं, कठिन तंत्र-मंत्र नहीं हैं, पर साथ ही यह भी मान्यता है कि परमात्मा चाहे एक है, पर उस तक पहुंचने के रास्ते कई हैं और कोई दूसरा रास्ता भी गलत नहीं है। सहज संन्यास परंपरा किसी दूसरे रास्ते की आलोचना नहीं है, यह सिर्फ एक और रास्ता है जो जरा ज्यादा आसान है, ज्यादा मकबूल है और थोड़ा ज्यादा प्रभावी भी है।

स्पिरिचुअल हीलर

सिद्धगुरु प्रमोद जी, गिन्नीज विश्व रिकार्ड विजेता लेखक

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com


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