लगेगी आग तो…

By: May 21st, 2024 12:05 am

राहत इन्दौरी साहिब ने जब अपनी गज़़ल में यह शे’र कहा होगा, ‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है’, तब शायद उनको यह एहसास नहीं रहा होगा कि विरोधाभासों से भरे इस देश में कभी लोगों की जान बचाने के लिए कोरोना के इंजेक्शन ही उनकी जान जाने का सबब बन जाएंगे। लेकिन जिस देश में दूध में पानी मिलाने वाली कहावतें न केवल सिर चढ़ कर बोलती हों, बल्कि आम जनमानस में फल-फूल भी रही हों, वहां अगर कोरोना से पार पाने वाले इंजेक्शन पानी साबित हों तो क्या आश्चर्य। इंग्लैंड में एस्ट्रेजेनेका कम्पनी के बने कोविशील्ड पर उठे विवाद के बाद विश्व गुरु देश में बना भारत बॉयोटेक का कोवैक्सीन कैसे पीछे रह सकता था। तू डाल-डाल मैं पात-पात। कुछ लोग कोरोना में टपक गए, जो बचे हैं, वे अब यह सोचकर परेशान हैं कि न जाने कब टपक पड़ें आम की तरह। यूँ भी आमों के मामले में दुनिया में भारत की तूती बोलती है। अपने आप टपकने वाले आमों को टपका कहा जाता है। बेचारा सामान्य आदमी, आदमी न हुआ, आम हो गया। जाने कब टपक पड़े। इसलिए उसे आम आदमी भी कहा जाता है। नाम रखने और बदलने में माहिर भारत सरकार चाहे तो चुनावों के बाद नई सरकार बनते ही आम आदमी को टपका घोषित कर सकती है। अभी हो सकता है कि ऐसा करने पर चुनाव आचार संहिता के बार-बार उल्लंघनों के बावजूद कुंभकरणी नींद में सोया चुनाव आयोग अचकचा कर जाग जाए और सरकार की इस अधिसूचना पर कइयों को चुनाव लडऩे के अयोग्य ठहरा दे।

बीमारी से बचाव भला। आम आदमी के लिए सरकार का इतना चिंतित और कल्याणकारी होना ठीक नहीं। अति सर्वत्र वर्जयेत। बस कुछ ही दिनों की बात है। हो सकता है तब तक कोविशील्ड और कोवैक्सीन और प्रभावी हो उठें। वैक्सीन की जद में आए लगाने और लगवाने वाले इतना इन्तज़ार तो कर ही सकते हैं। मुझे यह तो याद नहीं कि मैंने कौनसी वैक्सीन लगवाई है? कोविशील्ड या कोवैक्सीन? या इंजेक्शन को और प्रभावी बनाने के लिए दोनों का घालमेल करवाया था। लेकिन मुझे अपनी जान से ज़्यादा फिक्र बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के उन शोधकर्ताओं और टीम लीडर प्रो. शंख शुभ्र चक्रवर्ती की है, जिन्होंने अपनी रिसर्च में दावा किया है कि कोवैक्सीन लगवाने वाला हर तीसरा आदमी इस वैक्सीन के साइड इफेक्ट्स का मारा है। अशोका यूनिवर्सिटी के जिस प्रोफेसर सब्यसाची दास ने पिछले चुनावों में ईवीएम के नतीजों में सत्ता पक्ष द्वारा की गई हेरफेर की संभावना को लेकर अपना रिसर्च पेपर प्रकाशित किया था, उन्हें अपनी नौकरी छोडऩे के लिए मजबूर होना पड़ा था। मुझे तो इन दोनों रिसर्च में दीदी की साजि़श नजऱ आती है। दोनों बंगाली प्रोफेसर अपनी रिसर्च में सरकार के खिलाफ रिपोर्ट दे रहे हैं। रही अपनी बात तो जिस तरह दुनिया के सबसे बड़े फकीर कहते हैं कि हमारा क्या है जी, जब जी चाहा झोला उठा कर चल देंगे। वैसे ही मैं भी कहता हूँ, ‘हमारा क्या है जी, जब टपके दुनिया छोड़ कर चल देंगे।’ यूँ भी आम आदमी के पास होम लोन, कार लोन और दस तरह की किश्तों के अलावा होता भी क्या है जी।

लेकिन जब से कोविशील्ड और कोवैक्सीन के साइड इफेक्ट्स को लेकर रिपोर्ट सामने आई हैं, कभी छाती या सिर में दर्द हो, तो लगता है कि शरीर में ख़ून के थक्के बनने लगे हैं। अचानक हार्ट अटैक से हो रही मौतों की ख़बरों के बाद मैंने ट्रैड मिल पर भागने की बात तो छोड़ो, तेज़ चलने की क़वायद भी छोड़ दी है। अब मैं किसी गर्भवती गाय की तरह धीरे-धीरे संभल कर चलता हूँ। पर इसका यह मतलब नहीं कि मैं डरता हूँ। भले मेरी छाती 56 इंची न हो, मुझे अंधेरे में डर लगता हो। लेकिन मैं उनकी तरह बहादुर हूँ। जिस तरह वह अक्सर चीन को लाल आँखें दिखाते रहते हैं, उसी तरह मैं भी जब जी चाहे कोरोना के साइड इफेक्ट्स को लाल आँखें दिखाता रहता हूं।

पीए सिद्धार्थ

स्वतंत्र लेखक


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