सियासत में उपेक्षित वीरभूमि का सैन्य बलिदान

हुक्मरानों को हिमाचल प्रदेश के सैन्य बलिदान से मुखातिब होना होगा। सशस्त्र सेनाओं में वीरभूमि के दमदार सैन्य इतिहास के मद्देनजर राज्य के सैन्य भर्ती कोटे में बढ़ोतरी होनी चाहिए। युवाओं के मुस्तकबिल से जुड़े इस मुद्दे पर सूबे की लीडरशिप को राष्ट्रीय स्तर पर राज्य का पक्ष पूरी शिद्दत से रखना होगा…

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हिमाचल प्रदेश के गौरवशाली सैन्य पराक्रम व देश के लिए सैकड़ों सैनिकों के सर्वोच्च बलिदान ने राज्य को ‘वीरभूमि’ का सम्मान दिलाया है। वतन-ए-अजीज के स्वाभिमान के लिए जंग का मैदान हो या देश को मजबूत सियासी नेतृत्व प्रदान करने के लिए सत्ता का संग्राम, राज्य के लाखों सैनिक दोनों मोर्चों पर अपनी अहम भूमिका अदा करते आए हैं, मगर विडंबना है कि सैन्य परिवारों तथा सामरिक विषयों से जुड़े कई महत्वपूर्ण मुद्दे किसी भी सियासी दल के चुनावी घोषणापत्र में शामिल नहीं होते। प्रदेश के पूर्व सैनिक कई वर्षों से भारतीय सेना में अपने राज्य की अलग पहचान के लिए हिमाचल रेजिमेंट के गठन की मांग करते आ रहे हैं, मगर राज्य की प्रतिष्ठा से जुड़े इस मुद्दे की आवाज सियासी तौर पर उस शिद्दत से बुलंद नहीं हुई कि मरकजी हुकूमत के सियासी गलियारों में सुनाई दे सके। नतीजतन यह मुद्दा उपेक्षा का शिकार हो गया। सैन्य परिवारों की संख्या के मद्देनजर राज्य में ‘पूर्व सैनिक अंशदान स्वास्थ्य योजना’ (ईसीएचएस) व आर्मी कैंटीनों का विस्तार होना चाहिए। सीएसडी डिपो, सैन्य अकादमी व सैनिक स्कूल खोलने की मांग भी लंबे वक्त से हो रही है।

पहाड़ की विषम परिस्थितियों के मद्देनजर राज्य में रोजगार के सीमित साधन होने के कारण ज्यादातर युवा अपने कैरियर के लिए सशस्त्र सेनाओं का रुख करते हैं, लेकिन हमारे देश में सेना में जवानों की नियुक्ति का पैमाना ‘रिक्रूटेबल मेल पापुलेशन’ (आरएमपी) इंडेक्स सिस्टम पर आधारित है। बड़ी आबादी वाले राज्यों को सैन्य भर्ती की वैकेंसी जनसंख्या के आधार पर प्रदान की जाती है। यानी शौर्य पराक्रम के इतिहास व योग्यता से ज्यादा आबादी को तरजीह दी जाती है। प्रश्न यह है कि यदि किसी सूबे में किसी समुदाय की आबादी तेज रफ्तार से बढ़ रही है तो क्या जनसंख्या को आधार बनाकर उस राज्य की सैन्य भर्ती की वैकेंसी में इजाफा कर दिया जाएगा? भारत में जनसंख्या विस्फोट एक बड़ी चुनौती बन चुका है। यदि कोई राज्य जनसंख्या संतुलन को बरकरार रखने के लिए देशहित में राष्ट्रवादी नजरिए की मिसाल कायम कर रहा है तो क्या कम आबादी का हवाला देकर उस राज्य की सेना में वैकेंसी घटा दी जाएगी? किसी राज्य के कुर्बानियों से लबरेज सैन्य इतिहास को नजरअंदाज कर दिया जाएगा? बेशक जम्हूरियत के निजाम में इक्तदार हासिल करने के लिए आबादी का अंकगणित एक महत्वपूर्ण फैक्टर है। परंतु जनंसख्या की अहमियत व जाति-मजहब के समीकरण तथा सियासी मंचों से जज्बाती तकरीरें केवल वोट बैंक साधने के लिए मुफीद हो सकते हैं। जब पड़ोस में जम्हूरियत को रक्तरंजित करने वाले चीन व पाकिस्तान जैसे नामुराद मुल्क सरहद पर हरदम भारत को दहलाने का मंसूबा तैयार करके बैठे हों तो आरएमपी सिस्टम या जनसंख्या कोई मायने नहीं रखते। दुश्मन देशों से निपटने के लिए फिदा-ए-वतन के जज्बात रखने वाले रणबांकुरों की जरूरत होती है। वीरभूमि के सैन्य पराक्रम की विरासत पर हर प्रदेशवासी गर्व महसूस करता है।

बड़े राज्यों की अपेक्षा आबादी व क्षेत्रफल में छोटा राज्य हिमाचल सैन्य वीरता पदकों की संख्या में शीर्ष पर काबिज है। देशरक्षा के मोर्चे पर राज्य के सपूतों का बलिदान बाकी राज्यों की अपेक्षा कहीं अधिक है। दो विश्व युद्ध, आजाद हिंद फौज, देश के लिए पांच बड़े युद्ध, यूएनओ मिशन के तहत विदेशी भूमि पर शांति सैन्य अभियान तथा कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों तक आतंक विरोधी सैन्य आपरेशनों में वीरभूमि के सैनिकों ने अदम्य साहस के कई सुनहरे मजमून लिखे हैं। जंगे अजीम में दो ‘विक्टोरिया क्रॉस’, आजादी के बाद चार ‘परमवीर चक्र’, तीन ‘अशोक चक्र’ तथा तेरह ‘महावीर चक्र’ रणभूमि में दुश्मन के समक्ष शूरवीरता के ये आलातरीन सैन्य पदक वीरभूमि के सैनिकों की दास्तान-ए-शुजात की तस्दीक करते हैं। आजाद हिंद फौज के सैन्य एजाज से सरफराज जांबाज कर्नल ‘मेहर दास’, ‘सरदार-ए-जंग’ कै. ‘बख्शी प्रताप सिंह’, ‘तगमा-ए-शत्रुनाश’ लेफ्टिनेंट ‘अमर चंद’, ‘तगमा-ए-बहादुरी’ कै. ‘हरि सिंह’, ‘शेर-ए-हिंद’ लेफ्टिनेंट ‘सुखदेव चौधरी’, ‘वीर-ए-हिंद’ कै. ठाकुर राम सिंह तथा तख्ता-ए-दार पर झूलने वाले क्रांतिकारी मेजर दुर्गामल व कै. दल बहादुर थापा। भले ही वर्तमान में पहाड़ की सैन्य पृष्ठभूमि के ये नाम गुमनामी के अंधेरे में जा चुके हैं, मगर देश की आजादी के लिए अंग्रेजों की सफ्फाक हुकूमत से लडऩे वाले उन इंकलाबी चेहरों की कर्मभूमि हिमाचल प्रदेश ही था। दरअसल जाति-मजहब की सदारत करने वाले सियासी रहनुमाओं व सियासी जमातों की देश में कोई कमी नहीं है। आजादी के बाद से देश के लाखों भूतपूर्व सैनिक व उनके परिवार सियासी रहनुमाओं को सत्ता के सिंहासन पर विराजमान करने में अपना योगदान दे रहे हैं। भूतपूर्व सैनिकों के लिए सरकारी नौकरियों में कोटा जरूर निर्धारित हुआ है। उसका भी अक्सर विरोध होता है, मगर देश के तमाम इदारों पर नियंत्रण सियासी व्यवस्था का ही होता है।

राज्यसभा में कला, साहित्य व मायानगरी से ताल्लुक रखने वाले बारह सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किए जाते हैं, लेकिन ‘स्वयं से पहले राष्ट्र’ के सिद्धांत पर काम करने वाली भारतीय सेना के अनुभवी भूतपूर्व सैनिकों की सियासी व्यवस्था में भागीदारी सुनिश्चित नहीं हुई। नतीजतन राष्ट्रीय सुरक्षा व सैनिकों तथा आजादी के परवानों से जुड़े मुद्दे जम्हूरियत की पंचायतों में चर्चा का मरकज नहीं बनते। सियासी इच्छाशक्ति के अभाव में कारगिल के बलिदानी कै. सौरभ कालिया की पाक सेना द्वारा की गई हत्या का मुकद्दमा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक नहीं पहुंच पाया। ‘वन रैंक वन पेंशन’ का मुद्दा दशकों तक लंबित रहा। इन विषयों पर तफसील से तब्सिरा पेश होना चाहिए। बहरहाल देश के हुक्मरानों को हिमाचल प्रदेश के सैन्य बलिदान से मुखातिब होना होगा। सशस्त्र सेनाओं में वीरभूमि के दमदार सैन्य इतिहास के मद्देनजर राज्य के सैन्य भर्ती कोटे में बढ़ोतरी होनी चाहिए। युवाओं के मुस्तकबिल से जुड़े इस मुद्दे पर सूबे की लीडरशिप को राष्ट्रीय स्तर पर राज्य का पक्ष पूरी शिद्दत से रखना होगा। इस मुद्दे को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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