विष्णु के अनन्य भक्त हैं नारद मुनि

By: May 25th, 2024 12:30 am

नारद मुनि हिंदू शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माने गए हैं। ये भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। ये प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप ‘महती’ के नाम से विख्यात है। उससे ‘नारायण-नारायण’ की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर-अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गों में नारद जी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है…

जन्म कथा

पूर्व कल्प में नारद ‘उपबर्हण’ नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएं और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्स्रष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ शृंगार भाव से वहां आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गए और उन्होंने उसे ‘शूद्र योनि’ में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप के फलस्वरूप वह ‘शूद्रा दासी’ का पुत्र हुआ। माता-पुत्र साधु-संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पांच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गए। बालक की सेवा से प्रसन्न होकर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गई। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गए। उस समय इनकी अवस्था मात्र पांच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिए चल पड़े।

एक दिन वह बालक एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था कि उसके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भांति दिखाई दी और तत्काल अदृश्य हो गई। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई, ‘हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।’ समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया। समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अंत में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।

पौराणिक उल्लेख

खड़ी शिखा, हाथ में वीणा, मुख से नारायण शब्द का जाप, पवन पादुका पर मनचाहे वहां विचरण करने वाले नारद से सभी परिचित हैं। श्रीकृष्ण देवर्षियों में नारद को अपनी विभूति बताते हैं। वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियां, सभी शास्त्रों में कहीं न कहीं नारद का निर्देश निश्चित रूप से होता ही है। ऋग्वेद मंडल में 8-9 के कई सूक्तों के दृष्टा नारद हैं। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिता आदि में नारद का उल्लेख है।

व्यक्तित्व

नारद श्रुति-स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किए हुए मन वाले नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, कवि, प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे।

विष्णु के अनन्य भक्त

देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिए अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद-गुणों का गान करते हुए निरंतर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुंदर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिए ही है।

नारद जयंती

पुराणों के अनुसार हर साल ज्येष्ठ के महीने की कृष्ण पक्ष द्वितीया को नारद जयंती मनाई जाती है। नारद को ब्रह्मदेव का मानस पुत्र माना जाता है। इनका जन्म ब्रह्मा जी की गोद से हुआ था। ब्रह्मा जी ने नारद को सृष्टि कार्य का आदेश दिया था, लेकिन नारद ने ब्रह्मा जी का ये आदेश मानने से इनकार कर दिया। नारद देवताओं के ऋषि हैं, इसी कारण उनको देवर्षि नाम से भी पुकारा जाता है। कहा जाता है कि कठिन तपस्या के बाद नारद को ब्रह्मर्षि पद प्राप्त हुआ था। नारद बहुत ज्ञानी थे, इसी कारण दैत्य हो या देवी-देवता, सभी वर्गों में उनको बेहद आदर और सत्कार किया जाता था। कहते हैं नारद मुनि के श्राप के कारण ही राम को देवी सीता से वियोग सहना पड़ा था। पुराणों में ऐसा भी लिखा गया है कि राजा प्रजापति दक्ष ने नारद को श्राप दिया था कि वह दो मिनट से ज्यादा कहीं रुक नहीं पाएंगे। यही कारण है कि नारद अक्सर यात्रा करते रहते थे, कभी इस देवी-देवता तो कभी दूसरे देवी-देवता के पास।

कार्य

नारद के अगणित कार्य हैं। उन्होंने भृगु कन्या लक्ष्मी का विवाह विष्णु के साथ करवाया। इंद्र को समझा-बुझाकर उर्वशी का पुरुरवा के साथ परिणय सूत्र कराया। महादेव द्वारा जलंधर का विनाश करवाया। कंस को आकाशवाणी का अर्थ समझाया। वाल्मीकि को रामायण की रचना करने की प्रेरणा दी। व्यास जी से भागवत की रचना करवाई। प्रह्लाद और ध्रुव को उपदेश देकर महान् भक्त बनाया। बृहस्पति और शुकदेव जैसों को उपदेश दिया और उनकी शंकाओं का समाधान किया। इंद्र, चंद्र, विष्णु, शंकर, युधिष्ठिर, राम, कृष्ण आदि को उपदेश देकर कत्र्तव्याभिमुख किया। भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। ये भगवान के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं। इनका जीवन मंगल के लिए ही है।


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