चुनावी समय में सोशल मीडिया बना चाणक्य

By: May 4th, 2024 12:05 am

इसका ताजा उदाहरण रणवीर सिंह एवं आमिर खान के साथ हुई घटना से पता लगता है। इन दुविधाओं का समाधान जनता की तार्किक सावधानी ही है, क्योंकि कोई सूचना जब अत्यधिक वेग, हिंसा व उत्तेजना पैदा करे तो शंकित होना लाजिमी है। कुछ देर ठहरिए और मन को शांत कर सोचिए। क्योंकि जनता के जुड़ाव के लिए असंख्य सूचना का ऐसा समुद्र खड़ा कर दिया गया है जिसमें तैरना स्वयं सीखना पड़ेगा। क्योंकि जनता इस समय एंग ली द्वारा निर्देशित फिल्म लाइफ ऑफ पाई के मुख्य किरदार पाई की भांति खड़ी है जहां उसे सूचना के बवंडर से स्वयं बचना होगा…

आज के समय में वही उम्मीदवार जनता का पसंदीदा बन जाता है जो सोशल मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंच बनाता है क्योंकि जो दिखाता है वही बिकता है, इसी बाजार की रणनीति को आज सभी राजनीतिक पार्टियां अपना रही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि विज्ञापन को जांचने व परखने के लिए कई जांच एजेंसियां व प्रतियोगी कंपनियां अन्य कंपनियों के खिलाफ भ्रामकता के आधार पर कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती हैं। इसका हालिया उदाहरण देखने को मिला कि सुप्रीम कोर्ट ने पतंजलि को भ्रामक विज्ञापन देने के लिए फटकार लगाई और इसके साथ-साथ इस कंपनी के खिलाफ याचिकाकर्ता इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को भी आड़े हाथों लिया। कोर्ट ने एलोपैथी डॉक्टरों द्वारा मरीजों को कथित तौर पर महंगी और गैर जरूरी दवाएं लिखने पर नाराजगी जताई है। इस मुद्दे से कोर्ट का जनता के शरीर पर पडऩे वाले नकारात्मक असर का चिंतन तो उजागर होता है, लेकिन हर दिन सोशल मीडिया पर दिखाए जाने वाले कटेंट का लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभाव की जिम्मेवारी कौन लेगा? इन दिनों चुनावी समय में तो हर राजनीतिक पार्टी स्वयं भी और इंफलुएंसर के माध्यम से देश के हर तबके तक पहुंचने के लिए प्रभावी सामग्री का प्रयोग अनिवार्य रूप से कर रही है।

यह सामग्री कितनी सही है और कितनी गलत, इसके लिए न तो कोई सरकारी मशीनरी है और न ही कोई एजेंसी। हालांकि चुनाव आयोग सोशल मीडिया के माध्यम से चुनाव प्रसार संबंधित सामग्री को जांचने के लिए हर जिले व राज्य स्तर पर बनाए गए कंट्रोल रूम के माध्यम से मॉनिटरिंग कर रहा है, लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में सामग्री साधारण न होकर अब आर्टिफिशियल इंटेलिजैंस से भी बनाई जा रही है जिससे निपटना बेहद चुनौतीपूर्ण है। इसके अलावा चुनाव आयोग तो आचार संहिता लागू होने के बाद से ही एक्टिव हुआ है, लेकिन राजनीतिक पार्टियां पिछले एक साल से अपने प्रचार-प्रसार में जुट गई हैं। यह बात इससे सिद्ध होती है कि यह वर्ष शुरू होते ही चुनावों को देखते हुए देश की राजनीतिक पार्टियों ने पहले 2 से 3 महीनों में मेटा एवं गूगल विज्ञापन में 102.7 करोड़ खर्च कर दिए। वहीं भाजपा पिछले एक साल से सरल नाम की ऐप के जरिए जनता से संपर्क बनाने में लगी हुई है, जिसे लगभग 2.9 मिलियन लोग गूगल प्ले स्टोर के जरिए डाउनलोड कर चुके हैं। वहीं विपक्षी गठबंधन भी सामाजिक न्याय, किसान, युवा व बेरोजगारी जैसे मुद्दों को सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म से उठाकर बड़ा अभियान चला रहा है। लेकिन फिर सवाल सिर्फ इतना है कि इन पार्टियों द्वारा दी जा रही सूचना कितनी विश्वसनीय है? सोशल मीडिया के प्रति दीवानगी इतनी है कि डिजिटल सलाहकार फर्म केपियोस के मुताबिक दुनिया भर में 520 करोड़ लोग सोशल मीडिया की अलग-अलग साइट्स का प्रयोग करते हैं जिनकी संख्या सालाना 3 से 4 प्रतिशत बढ़ रही है। वहीं हमारे देश में आईआईएस रोहतक के एक अध्ययन के मुताबिक लगभग 62 प्रतिशत युवा जानकारी के लिए सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म उपयोग करते हैं जिनमें से एक पुरुष औसतन स्क्रीन पर 6 घंटे 45 मिनट और महिला 7 घंटे 5 मिनट व्यतीत करती है। यानी कि सोशल मीडिया ही सूचना का मुख्य स्त्रोत बन चुका है।

इस संदर्भ में सूचना का प्रवाह और उसकी संरचना मानवीय व्यवहार पर प्रभाव डाल रही है। चुनावी समय में पार्टियां अन्य समय से दुगनी रफ्तार के साथ अपने ऑनलाइन सामग्री के माध्यम से जनता को जोडऩे की कोशिश करती हैं। जिस पार्टी की गति जितनी नवनीतम और तेज होती है वो उसी गति से नए वोटर व समर्थन हासिल करने में कामयाब हो जाती है। खास बात यह है कि इन सोशल मीडिया साइट्स के मालिक इस समय में नियंत्रण करने के बजाय मूकदर्शक बन जाते हैं क्योंकि यह समय पैसा बनाने का है। इस बिंदु पर न तो कोई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय कानून उन्हें नियंत्रण कर सकने में सक्षम है। इस मौके का फायदा उठाकर पार्टियां अनियंत्रित तरीके से नियोजित वर्ग में किसी भी तरीके से अपनी पहुंच बढ़ाती हैं और उनके आईटी सैल जनता की भावनाओं को अपने पक्ष में करने की पूरी कोशिश करते हैं।

सोशल मीडिया की एल्गोरिदम के कारण आपका हल्का सा भी झुकाव फेक न्यूज के जंजाल में फंसा देता है और जनता इको चैम्बर से बाहर ही नहीं निकल पाती। वो अभेद्य चक्रव्यूह बन जाता है जिसमें जनता बिना कुछ सोचे-समझे बस फंसती ही चली जाती है और रही-सही कसर डीपफेक वीडियो ने पूरी कर दी है जहां प्रसिद्ध व्यक्तियों को ढाल बनाकर कुछ गलत तत्व अपने उद्देश्यों को पूरा करने में लगे हुए हैं। इसका ताजा उदाहरण रणवीर सिंह एवं आमिर खान के साथ हुई घटना से पता लगता है। इन दुविधाओं का समाधान जनता की तार्किक सावधानी ही है, क्योंकि कोई सूचना जब अत्यधिक वेग, हिंसा व उत्तेजना पैदा करे तो शंकित होना लाजिमी है। कुछ देर ठहरिए और मन को शांत कर सोचिए। क्योंकि जनता के जुड़ाव के लिए असंख्य सूचना का ऐसा समुद्र खड़ा कर दिया गया है जिसमें तैरना स्वयं सीखना पड़ेगा। क्योंकि जनता इस समय एंग ली द्वारा निर्देशित फिल्म लाइफ ऑफ पाई के मुख्य किरदार पाई की भांति खड़ी है जहां उसे सूचना के बवंडर से स्वयं बचना होगा और अपने मानसिक विकास व उत्तरजीविता के लिए स्वयं सोचना होगा।

डा. निधि शर्मा

स्वतंत्र लेखिका


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