क्या पाया और क्या खोया

By: May 25th, 2024 12:22 am

राजयोगी ब्रह्मकुमार निकुंज जी

हाल में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में आने वाले दशक में बुजुर्गों की जनसंख्या 320 मिलियन होने की संभावनाएं जताई गई हैं जो सबके लिए बड़े चिंता का विषय बन गया है। परंतु इसमें चिंता की क्या बात है? बात है, क्योंकि तेजी से बदल रहे भारत में आज बुजुर्गों के लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीना एक बड़ी चुनौती समान हो गया है। क्योंकि आज हर कोई प्रतिस्पर्धात्मक प्रकृति के वश अपने जीवन की आवश्यकताओं में परिवर्तन ला रहा है, जिसके चलते बुजुर्गों की अहमियत निम्नतम स्तर की हो गई हैं। आज आपके ऊपर कितने आश्रितों की जिम्मेदारी है उस अनुसार आपकी जीवन शैली बनती है अत: आधुनिक मनुष्य के जीवन का मूल मंत्र है ‘जितने कम आश्रित उतना सुखी जीवन’। जरा सोचिए उन माता-पिता के बारे में जिन्होंने अपने परिवार के खातिर अपना सारा जीवन कुर्बान कर दिया और आज उन्हें यह सोचना पड़े कि इतना सब करके हमने क्या पाया और क्या खोया? सचमुच ही यह कितनी निराशाजनक स्थिति है। जिन्होंने परिवार की खुशी के लिए अपनी हर इच्छा का दम घोट लिया फिर भी उन्हें किसी की तरफ से एहसान या कृतज्ञता के दो बोल भी सुनने को नहीं मिले और ऊपर से सीना चीरने वाली तलवार तो तब चलती है जब अपनी ही संतानों से यह कड़वे बोल सुनने पड़ते हैं कि आपने हमारे लिए किया ही क्या है? या आपने हम पर कोई मेहरबानी नहीं की है। परिवार द्वारा मिल रही ऐसी उपेक्षा का जिम्मेदार कौन? जिम्मेदार है हमारा अपना मोह। जी हां! यही मोह कारण बना, माता कैकई को राजा दशरथ के द्वारा श्री राम को वनवास में भेजने के लिए और यही मोह कारण बना इतिहास के सबसे बड़े युद्ध महाभारत का।

परिवार के मोह में हम यह भूल जाते है कि जिन्हें सारा जीवन हम मेरा-मेरा कहते रहे ऐसे मेरेपन से भरे संबंध छुईमुई के पौधे के समान होते हैं, जिसे स्पर्श करते ही उसमें मुरझाहट आ जाती है। हम तो उसे बड़े प्यार से सहलाते हैं पर वह प्यार उसे रास नहीं आता और वह पौधा अपनी ताजगी त्याग देता है। ताजगी की वापसी के लिए पुन: पुन: सहलाने का जब प्रयास किया जाता है, तो उसका परिणाम बद से बदतर होता जाता है। ठीक इसी तरह मेरेपन और मोह से भरे संबंधों में भी ऐसा ही होता है। हम अपने मोह और मेरेपन से जितना उनको छूते हैं, खिलाते हैं, पिलाते हैं, वे उतने ही ज्यादा मुरझाते जाते हैं और हमसे दूर होते जाते हैं। हमें फिर बड़ा अचरज होता है कि हम इनके लिए इतना सब कुछ करते हैं फिर भी ये खुश क्यों नहीं रहते? पर हम यह भूल जाते हैं कि वह इसलिए खुश नहीं रहते है क्योंकि उनका हाल छुईमुई जैसा हो जाता है और यह तो हम जानते ही हैं की छुईमुई को ठीक करने के लिए हमें उससे न्यारा होना पड़ता है अर्थात थोड़ा दूर होना पड़ता है। ज्यों ही हम उससे न्यारे हो जाते हैं, उसकी ताजगी वापस लौट आती है। ठीक इसी प्रकार से संबंधों में भी न्यारापन आने से स्वाभाविक रूप से प्यारापन आ जाता है और हम संबंध में रहते हुए निर्बन्धन अवस्था को अनुभव कर पाते हैं। स्मरण रहे! इस विशाल सृष्टिरूपी रंगमंच के ऊपर हमारा पार्ट भी निमित्त मात्र है। अत: यहां मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ अस्थायी और नश्वर है। अब जो चीज है ही अस्थायी, उससे स्थायित्व की आशा क्यों लगाएं? यदि कुछ स्थायी है, तो वह है हम आत्मा और सर्व आत्माओं के पिता परमात्मा। तो क्यों न उस स्थायी सत्ता में हम अपना मन लगाएं।


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