लोकतंत्र पर हावी हो रहा अलगाववाद

यदि अलगाववाद व कट्टरपंथ की पैरवी करने वाली जहनियत भी जम्हूरियत की सबसे बड़ी पंचायत में तशरीफ ले जाएगी तो ऐसी विचारधाराओं का संगम राष्ट्र के लिए गंभीर खतरा बनेगा। सियासत का मकसद केवल सत्ता की दहलीज पर पहुंचने के लिए ही रह गया है…
चार जून 2024 को 18वीं लोकसभा के लिए मतदाताओं के जनादेश ने देश-दुनिया के सियासी पंडितों के अनुमान को ध्वस्त करके मुल्क की सियासत को हैरत में डाल दिया था। चुनावी समर में सियासी दुर्ग फतह करने के लिए कई तरह के लोकलुभावन वादों की बिसात बिछाई जाती है। ज्यादातर सियासी जमातों की सियासत जाति-मजहब, क्षेत्रवाद व वंशवाद की सदारत करती है। चुनावों के दौरान लोगों को मुफ्तखोरी के प्रलोभन देना सियासत की फितरत बन चुका है। मगर जागरूक व सतर्क मतदाता शिक्षित व साफ छवि वाले जनप्रतिनिधि को लोकतंत्र का भाग्य विधाता चुनने की कोशिश करते हैं, ताकि लोकतंत्र की संस्थाओं में आम लोगों के हितों की पैरवी हो तथा सत्तापक्ष द्वारा निर्धारित की गई नीतियों पर सकारात्मक बहस हो सके। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सियासत का मिजाज बदल रहा है। जब जम्हूरियत के निजाम में आवाम कुछ बातों को अपनी जुबान से बयान नहीं कर पाती तो खामोशी से अपने वोट के जरिए सियासी रहनुमां का चुनाव करके अपने जज्बातों का इजहार किया जाता है। मौजूदा लोकसभा चुनावों के दौरान विपक्षी दलों ने महंगाई व बेरोजगारी पर जोरदार ताकीद पेश करके देश के आईन को बचाने का हवाला भी दिया था। मगर कुछ सीटों पर लोगों का जनादेश हैरतअंगेज करने वाला रहा है।
मतदाताओं ने ऐसे जनप्रतिनिधियों को देश की संसद में भेजने का फरमान जारी कर दिया है जो अलगाववाद की खुलेआम हिमायत करते हैं तथा ‘राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम’ के तहत जेलों में बंद हैं। भारत में रहकर अपने ही मुल्क को खंडित करने वाली मनोग्रंथी से पीडि़त होकर ‘टेरर फंडिग’ व आतंकी गतिविधियों के मामले में सलाखों के पीछे हैं। विडम्बना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन चुके तथा गैंगेस्टर व आम्र्स एक्ट जैसे संगीन मामलों में जेलों में बंद माफियाओं को देश का संविधान चुनाव लडऩे की अनुमति देता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या चरमपंथ व अलगाववाद की हिमायत करने वाले प्रतिनिधि संविधान के प्रति आस्था व विश्वास रखते हैं, संवैधानिक सिद्धांतों को तसलीम करते हैं। यदि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन चुके प्रत्याशी जेलों में बैठ कर चुनाव जीत जाएं तथा मर्डर व आम्र्स एक्ट जैसी संगीन वारदातों में मुल्लविस सियासी रहनुमाओं को मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजेंगे तो जम्हूरी निजाम के साथ मुल्क के आईन पर भी सवाल उठेंगे। लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति इस कारकर्दगी को मतदाताओं की नाराजगी समझें या मतदान के प्रति जागरूकता का अभाव। लेकिन मतदाताओं ने कट्टरवाद के हिमायती कुछ सियासी रहनुमाओं को प्रतिनिधि चुन कर मुल्क की सियासत को जो पैगाम दिया है, उस नजरिए को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। देश में ऐसे कई सियासी रहनुमां हैं जिनके नाम के साथ माफिया, डॉन व बाहुबली जैसे लफ्ज जुड़े हैं। सलाखों के पीछे बैठकर चुनाव लडक़र अपने सियासी रुतबे की नुमाईश करना भी देश में एक फैशन बन चुका है। सियासत की यह कारगुजारी सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहाली के लिए राजा-महाराजाओं ने अपनी रियासतों का हिंदोस्तान में इलहाक करके जिस प्रजातंत्र की कल्पना की थी, क्या वो लोकतंत्र कायम हुआ।
यदि अलगाववाद व कट्टरपंथ की पैरवी करने वाली जहनियत भी जम्हूरियत की सबसे बड़ी पंचायत में तशरीफ ले जाएगी तो ऐसी विचारधाराओं का संगम राष्ट्र के लिए गंभीर खतरा बनेगा। कई जनप्रतिनिधि फरमाते हैं कि सियासत समाज के कल्याण व आवाम की खिदमत का माध्यम है, लेकिन सियासतदानों की कार्यशैली दर्शाती है कि सियासत का मकसद केवल सत्ता की दहलीज पर पहुंचने के लिए ही रह गया है। जम्हूरियत की बुलंदी पर पहुंचने की लालसा हर जनप्रतिनिधि के जहन में कायम है। ज्यादातर सियासी रहनुमाओं पर सियासी रसूख की हनक, अक्सरियत का खुमार व इक्तदार का गुमान हावी रहता है। धनबल, बाहुबल, मौकापरस्ती व अलगाववाद जैसी विचारधाराओं के मिलन से सियासत विवशता का खेल बन चुकी है। चुनाव विश्लेषण करने वाली संस्था ‘एसोसिएशन ऑफ डैमोक्रेटिक रिफार्म’ (एडीआर) के अनुसार नब्बे प्रतिशत से अधिक सांसद करोड़पति की फेहरिस्त में शामिल हैं। जाहिर है हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति के वारिस प्रतिनिधि गुरबत से जूझ रही आवाम की मजबूरी नहीं समझ सकते।
बेरोजगारी की गर्दिश में फंसे युवा वर्ग के हिज्र का दर्द महसूस नहीं कर सकते। भ्रष्टाचार से लेकर बेहद संगीन जुर्म तक ऐसा कोई अपराध नहीं जिसके तार सियासत से न जुड़े हों। सियासतदानों की कारगुजारियों से निर्वाचन आयोग व प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियां भी परेशान हो चुकी हैं, मगर माफिया, बाहुबली व अलगाववादी जैसे सियासी एजाज हासिल होने के बावजूद सियासी रहनुमाओं के प्रति आवाम का नजरिया अदब का ही रहता है। इसीलिए सियासत अपराध से मुक्त नहीं हो रही। तोहमत, फरेब व दलबदल से लबरेज सियासत सियासी रहनुमाओं के लिए एक इबादत का विषय बन चुकी है। अलगाववाद की असबियत तथा आपराधिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाले प्रतिनिधि यदि देश के नीति निर्माता बनकर संसद में मौजूद होंगे, तो रक्षा क्षेत्र जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सियासी नजर-ए-करम की उम्मीद नहीं की जा सकती।
चूंकि हिंदोस्तान की सलामती के खिलाफ मंसूबे बनाने वाले बैरूने मुल्क भी अलगाववादियों की पुरजोर हिमायत करते हैं, यदि लोकतंत्र के मुख्य स्तम्भ विधायिका व कार्यपालिका भी अलगाववाद व चरमपंथ की गिरफ्त में आ जाएंगे, तो सबसे बेहतर शासन व्यवस्था प्रजातंत्र में अदब, एहतराम व सादगी जैसे गुणों की गुंजाइश नहीं रहेगी। बहरहाल जम्हूरियत की सबसे बड़ी पंचायत में चरमपंथ व अलगाववाद की रफाकत लोकतंत्र के लिए नदामत का सबब बनेगी। अत: संवैधानिक लोकतंत्र में अलगाववादी मानसिकता मंजूर नहीं होनी चाहिए। प्रजातंत्र को महफूज रखने के लिए आपराधिक छवि वाले सियासी रहनुमाओं के प्रति हमदर्दी से परहेज करना होगा। उन्हें चुनाव लडऩे से रोकना होगा।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
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