सैन्य शहादतों पर सियासत की खामोशी

स्मरण रहे जब देश की सरहदें आतंक के मरकज पाकिस्तान तथा तोहमत व फरेब के तालिब-ए-इल्म चीन जैसे शातिर मुल्कों से लगती हों तो जरूरत से ज्यादा सहनशीलता तथा शांति का राग अलापना कायरता का प्रतीक साबित हो सकता है…

नौ जून 2024 को भारत की नवनिर्वाचित हुकूमत का शपथ समारोह चल रहा था। प्रधानमंत्री के साथ नई सरकार के मरकजी वजीर हलफ उठा रहे थे। उसी दिन पाक प्रशिक्षित आतंकियों ने जम्मू के रियासी क्षेत्र में श्रद्धालुओं से भरी एक बस पर गोलीबारी करके दस अकीदतमंदों को मौत के घाट उतार दिया था। जाहिर है उस आतंकी हमले के जरिए पाक खूफिया एजेंसी आईएसआई ने हिंदोस्तान की नई हुकूमत के साथ मुल्क के पूरे सियासी निजाम को पैगाम नसर कर दिया कि जम्मू कश्मीर राज्य में आतंकवाद अभी शांत नहीं हुआ है, बल्कि दहशतगर्द व आतंक के पैरोकार भारत को दहलाने के लिए सरहद के उस पार तैयार बैठे हैं। छह जुलाई 2024 को कश्मीर के कुलगाम में सेना की स्पेशल फोर्स के दो जवान आतंकी हमले में बलिदान हो गए। आठ जुलाई 2024 को कठुआ में आतंकियों ने सेना के वाहन पर हमला कर दिया जिसमें पांच जवान वीरगति को प्राप्त हो गए। 16 जुलाई 2024 को डोडा जिला में आतंकियों के साथ मुठभेड़ में राष्ट्रीय राइफल्स के एक अधिकारी सहित तीन जवानों की शहादत हो गई। गत जुलाई में जब जम्मू कश्मीर राज्य में सेना के जवान आतंकियों को जहन्नुम की परवाज पर भेजकर बलिदान हो रहे थे, उस वक्त मुल्क की सियासत देश के कई राज्यों में हो रहे उपचुनावों में मशगूल थी। सियासी रहनुमां जीत का जश्न मना रहे थे।

चुनावों में जीत व शिकस्त पर आकलन चल रहा था। देश में बड़े उद्योगपतियों के शादी समारोह मीडिया चैनलों की सुर्खियां बने थे। नतीजतन देश की सुरक्षा में मुस्तैद सैनिकों की शहादतें इंतखाबी शोर में दब कर रह गईं। 24 जुलाई 2024 को कुपवाड़ा सेक्टर में आतंकियों से मुठभेड़ के दौरान राष्ट्रीय राइफल्स के शहीद जवान दिलावर खान का संबंध हिमाचल से था। मजहब के नाम पर वजूद में आए पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर को हथियाने के लिए चार बड़े युद्धों को अंजाम दिया। मगर भारतीय सैन्य पराक्रम के आगे पाक सेना को चारों युद्धों में जिल्लत भरी शिकस्त झेलनी पड़ी। जम्मू कश्मीर को दहलाने के लिए पाकिस्तान आतंकी मंसूबों को लगातार अंजाम दे रहा है। राष्ट्र के स्वाभिमान के लिए देश के सैनिक एक मुद्दत से अपना सर्वस्व न्योछावर कर रहे हैं। सैनिकों की शहादतों का सिलसिला बद्दस्तूर जारी है। मगर पाकिस्तान के प्रति भारत की क्रिकेट खेलने की दीवानगी कम नहीं हो रही। गुजिस्ता जुलाई महीने में जम्मू कश्मीर में पाक परस्त आतंकियों से लोहा लेकर देश के जवान शहीद हो रहे थे। उसी दौरान भारत के सीनियर क्रिकेटर ‘वल्र्ड चैंपियनशिप ऑफ लीजेड्ंस’ में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने में मशगूल थे। यह कारकर्दगी पाक परस्त आतंक से लडक़र शहीद हो रहे सैनिकों के बलिदान का अपमान है। सवाल यह है कि क्रिकेट बड़ा है या राष्ट्र? आतंकवाद का निर्यात करने वाले मुल्क के साथ खेल व मुजाकरात कितना मुनासिब है? देश के हुक्मरानों को विचार करना होगा। दूसरी विडंबना यह है कि लोकतंत्र के नाम पर देश पर शासन करने वाले सियासी रहनुमाओं का मुल्क के सामरिक क्षेत्र में धरातल पर कोई योगदान नहीं है और न ही जमीनी स्तर पर कोई अनुभव। इसीलिए जम्मू कश्मीर, पूर्वोत्तर सहित देश के कई राज्यों में हो रही आतंकी घटनाओं तथा पाक पोषित आतंक पर संसद में कभी चर्चा नहीं होती। बल्कि जम्हूरियत की पंचायतों के तमाम इजलास हंगामे की भेंट चढ़ जाते हैं। हजारों फीट के फराज पर मौजूद दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर व अरुणाचल तथा सिक्किम जैसे राज्यों की संवेदनशील सरहदें सियासी नजर-ए-करम को मोहताज हैं। भारत द्वारा चार युद्धों में शिकस्त झेलकर आलमी सतह पर बेआबरू हो चुके पाक सिपाहसालारों ने भारत के खिलाफ आतंक को अपने मुल्क की कौमी पॉलिसी का हिस्सा बना लिया है।

पाकिस्तान की सियासी कयादत, सेना व ‘आईएसआई’ आतंकी रहनुमाओं की खादिम बन चुकी है। दुनिया के मोस्ट वांटेड आतंकियों के लिए सबसे महफूज पनाहगाह पाकिस्तान है। लेकिन सन् 1971 में पाकिस्तान को तकसीम करके पाक का भूगोल बदलने वाली विश्व की सर्वोत्तम भारतीय थलसेना उस तारीख को दोहराने की पूरी सलाहियत रखती है। बशर्ते चुनावी तशहीर के दौरान पाकिस्तान के टुकड़े करने वाले सियासी रहनुमां तथा जम्हूरियत की पंचायतों में जाति, मजहब व आरक्षण जैसे मुद्दों पर गर्जने वाली सियासी जमातें पाक परस्त आतंकवाद से निपटने में भी एकजुट होकर इच्छाशक्ति दिखाएं। आतंकी हमलों के एहतजाज में धरने-प्रदर्शन करना व मरकजी हुकूमत को तनकीद का निशाना बनाना या पाकिस्तान का पुतला जलाने से आतंकवाद नहीं थमेगा। जुबानी तौर पर आतंक की मजम्मत करना या पाकिस्तान को धमकी देने से दहशतगर्दी पर लगाम नहीं लगेगी। पाकिस्तान को उसी की भाषा में शिद्दत भरा जख्म-ए-जिगर देकर दर्द का एहसास कराना होगा। बेगुनाह सैनिकों के शव सरहदों से तिरंगे में लिपट कर ताबूतों में कब तक आते रहेंगे? देश के नागरिकों को महफूज रखने के लिए लोगों के घरों के चश्मो-चिराग कब तक बलिदान होते रहेंगे?

राष्ट्र के स्वाभिमान के लिए आगाज-ए-जवानी में अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले सैनिकों को कब तक श्रद्धांजलि दी जाती रहेगी? फिदा-ए-वतन हो रहे सैनिकों के परिजनों के धैर्य की परीक्षा कब तक होती रहेगी? राष्ट्रीय सुरक्षा में मुस्तैद सैन्य बलों के सब्र का इम्तिहान कब तक होता रहेगा? मुल्क के रहबर इन सवालों का जवाब दें। स्मरण रहे जब देश की सरहदें आतंक के मरकज पाकिस्तान तथा तोहमत व फरेब के तालिब-ए-इल्म चीन जैसे शातिर मुल्कों से लगती हों तो जरूरत से ज्यादा सहनशीलता तथा शांति का राग अलापना कायरता का प्रतीक साबित हो सकता है। अत: सैन्य विकल्प पर विचार करने का नहीं, बल्कि कार्रवाई करने का वक्त है। अलबत्ता जम्हूरियत के हुजरों में बैठकर सियासत की तशवीह घुमाने से मुल्क का दिफा नहीं होगा। पाक पोषित आतंक का फन कुचलने के लिए नियंत्रण रेखा के पार माकूल सैन्य कार्रवाई को अमल में लाना होगा। बलिदान हो रहे सैनिकों की शहादतों का रक्तरंजित इंतकाम ही शूरवीरों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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