इतिहास में गुमनाम जंगे आजादी के योद्धा

उन क्रांतिवीरों के नाम पर कोई बड़ा शिक्षण संस्थान, खेल स्टेडियम या राष्ट्रीय राजमार्ग भी नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या बर्तानिया हुकूमत के खिलाफ लडऩे वाले वजीर राम सिंह पठानिया, मेजर दुर्गामल व कैप्टन दल बहादुर के बलिदान से युवा पीढ़ी परिचित है…
बर्तानिया सल्तनत की दो सौ वर्षों की गुलामी के बाद हिंदोस्तान की करोड़ों आवाम ने 15 अगस्त 1947 को जश्न-ए-आजादी का इजहार किस कदर किया था, आजादी की मंजर-ए-शब के उन खूबसूरत लम्हों को लफ्जों में बयान नहीं किया जा सकता। पंद्रह अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाएगा। यौम-ए-आजादी के मौके पर देश के सभी राज्यों में रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन होगा। देशभक्ति के नगमों की सरगम गूंजेगी। जंगे आजादी में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले कुछ इंकलाबी चेहरों तथा आजादी की तहरीक में शमूलियत अख्तियार करने वाले सियासी रहनुमाओं का जिक्र समाचार पत्रों से लेकर न्यूज चैनलों तक होगा। लेकिन सन् 1947 से पूर्व जब मुल्क की आवाम ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध आजादी के लिए जद्दोजहद कर रही थी, उस वक्त मौजूदा पाकिस्तान व बांग्लादेश भी हिंदोस्तान का ही हिस्सा थे। उस समय अविभाजित भारत की जनसंख्या लगभग चालीस करोड़ से अधिक थी। अत: विवेचना इस विषय पर भी होनी चाहिए कि बर्तानिया से तशरीफ लाए चंद अंग्रेजों ने अविभाजित भारत की लगभग 584 रियासतों तथा करोड़ों आवाम को अपना गुलाम कैसे बना लिया था। विश्व प्रसिद्ध भारतीय शिक्षा प्रणाली से लेकर तमाम व्यवस्थाओं पर अंग्रेजी निजाम किस तरीके से काबिज हो गया। हिंदोस्तान की सरजमीं पर बर्तानिया सल्तनत की संगे बुनियाद इतनी मजबूत कैसे हुई थी कि उसको उखाडऩे के लिए एक मुद्दत तक जद्दोजहद करनी पड़ी। गुलामी की उन जंजीरों को तोडऩे के लिए कई इंकलाबी तहरीकें चली, सैंकड़ों विद्रोह हुए। हजारों की तादाद में आजादी के परवानों ने शहादत को गले लगा लिया। अंग्रेजों के खिलाफ सन् 1857 का विद्रोह भी हुआ जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। वह आखिर असफल कैसे हुआ? देश के मुस्तकबिल युवा पीढ़ी को अपने मुल्क के उस निजाम की नाकामी से भी मुखातिब करवाना चाहिए।
भारत के लाखों सैनिकों ने ‘ब्रिटिश इंडियन आर्मी’ का हिस्सा बनकर अंग्रेज बादशाही के लिए पहला विश्व युद्ध (1914-1918) इस उम्मीद से लड़ा था कि जंगे अजीम में बैरूने मुल्कों के महाज पर अंग्रेजों को जीत दिलाकर बर्तानिया का परचम बुलंद करेंगे तो युद्ध समाप्ति के पश्चात शायद अंग्रेज हुकूमत से भारत आजाद हो जाएगा। प्रथम विश्व युद्ध में सत्तर हजार से अधिक भारतीय सैनिक विदेशी भूमि पर शहीद हुए। हजारों सैनिक बुरी तरह जख्मी हुए। ग्यारह भारतीय सैनिकों ने ‘विक्टोरिया क्रॉस’ जैसा सर्वोच्च वीरता पदक अपने नाम करके दुनिया को अपनी दास्तान-ए-सुजात से मुखातिब करवाया था। लेकिन लाखों सैनिकों की कुर्बानियों के बावजूद भारत को आजादी नसीब नहीं हुई। सन् 1939 में दूसरी जंगे अजीम का आगाज हो गया। ब्रिटिश साम्राज्य के परचम तले लाखों भारतीय सैनिक दोबारा उसी उम्मीद से रणभूमि में भेजे गए। मगर दूसरी जंगे अजीम के दौरान हजारों भारतीय सैनिक अंग्रेजों से बगावत करके ‘सुभाष चंद्र बोस’ के नेतृत्व में ‘आजाद हिंद फौज’ का हिस्सा बन गए। राष्ट्रवाद के जज्बात रखने वाले आजाद हिंद फौज के हजारों सैनिक वतन-ए-अजीज की आजादी के लिए बलिदान हुए, लेकिन आजाद हिंद फौज को देश की तत्कालीन सियासी जमातों का समर्थन हासिल नहीं हुआ। जंगे आजादी के लिए कोई तहरीक हो, सशस्त्र संघर्ष या आजाद हिंद फौज की कुर्बानियां, वीरभूमि हिमाचल प्रदेश के रणबांकुरों का जिक्र किए बिना आजादी का इतिहास भी अधूरा रहेगा। आजादी के लिए सन् 1857 के विद्रोह तथा सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ पर शैक्षिक पाठयक्रम से लेकर सियासत तक खूब चर्चा होती है, लेकिन क्या मुल्क की आवाम को इस बात का ईल्म है कि सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से दस वर्ष पूर्व ‘नूरपुर’ रियासत के वजीर ‘राम सिंह पठानिया’ ने सन् 1846 में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष को अंजाम देकर अपने फौलादी इरादे जाहिर कर दिए थे। राम सिंह पठानिया के नेतृत्व में नूरपुर रियासत के युवा सैनिकों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की उस चिंगारी ने भारत को मुस्तकबिल में आजादी की राह दिखाई थी। मगर अपनी ताकत-ए-परवाज से अंग्रेज हुकूमत की बुनियाद हिलाने वाले राम सिंह पठानिया की शूरवीरता का जिक्र किसी राष्ट्रीय न्यूज चैनल या राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर कभी नहीं हुआ। नतीजतन स्वतंत्रता का ध्वजारोहण करने वाले रणबांकुरे के शौर्य पराक्रम पर गुमनामी का तमस छा गया। जश्न-ए-आजादी के मौके पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का संबोधन हमेशा चर्चा का मरकज बनता है। मगर आजाद हिंद फौज के हिमाचली जांबाज मेजर ‘दुर्गामल’ तथा कैप्टन ‘दल बहादुर थापा’ को अंग्रेजों ने युद्धबंदी बनाकर इसी लाल किले में फांसी की सजा दी थी। अंग्रेजों के खिलाफ लडऩे वाले ‘सरदार-ए-जंग’ एजाज से सरफराज आजाद हिंद सेना के कर्नल ‘मेहर दास’ कैप्टन ‘राम सिंह ठाकुर’ व फांसी के फंदे को चूमने वाले दुर्गामल तथा दल बहादुर थापा को राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर उनके बलिदान के मुताबिक सम्मान भी नहीं मिला।
न ही सूबे के हुक्मरानों ने अपने आजादी के नायकों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने की काशिश की। नतीजतन सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले जिन जांबाजों ने मुल्क की आजादी के लिए मकतल को अपने रक्त से सुर्खरू कर दिया, वो योद्धा इतिहास में गुमनाम हो गए। उन क्रांतिवीरों के नाम पर राज्य या देश में कोई बड़ा शिक्षण संस्थान, खेल स्टेडियम या राष्ट्रीय राजमार्ग भी नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या हिंदोस्तान की आजादी के लिए बर्तानिया हुकूमत के खिलाफ लडऩे वाले वजीर राम सिंह पठानिया, मेजर दुर्गामल व कैप्टन दल बहादुर के बलिदान से युवा पीढ़ी परिचित है? अफसोस! जिनका मंजिल-ए-मकसूद आजादी था, वो इंकलाबी चेहरे तख्ता-ए-दार पर झूल गए, मगर मंजिल उन्हें मिली जो शरीक-ए-सफर न थे। आजादी के परवानों के शौर्य की विरासत सहेजने के लिए उनकी जीवनी शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल होनी चाहिए। ऐसे योद्धाओं के नाम पर स्मारकों का निर्माण किया जाना चाहिए तथा युवा पीढ़ी को शिक्षित किया जाना चाहिए।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
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