विवादित बयानों के चक्रव्यूह में सियासत
चुनावी दौर में हेट स्पीच के मामलों पर चुनाव आयोग को नेताओं के चुनावी प्रचार पर रोक लगानी पड़ती है। ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी किए जाते हैं। सियासतदानों की हिकारत भरी बयानबाजी पर अदालतें चेतावनी जरूर पेश करती हैं, मगर बयानवीर अनसुना कर देते हैं…
मुल्क के इंतखाबी दौर में यदि बेतुकी बयानबाजी नहीं होगी तो सियासी हरारत का एक मजमून अधूरा रह जाएगा। सियासी रहनुमां की तकरीर में जहरीले बोल तथा जराफत भरे अंदाज का संगम नहीं होगा तो सियासी अंजुमन की आंखें उदास रह जाएंगी। चुनावी तशहीर में अपने मुखालिफ पर जुबान नहीं फिसलेगी या तोहमतों से भरे इल्जाम नहीं बरसेंगे तो सियासत की तबीयत नासाज हो जाएगी। इंतखाबी दौर में दहशतगर्दों की मौत का मातम नहीं मनाया जाएगा तो सियासत की तौहीन हो जाएगी। जम्हूरियत के महापर्व में यदि आब-ए-तल्ख की महफिल नहीं सजेगी तो सियासी बज्म का रंग फीका रह जाएगा। सियासी मुजाहिरों में यदि जाति, मजहब, आरक्षण, संविधान व पाकिस्तान का जिक्र नहीं होगा तो इंतखाब की तासीर बिगड़ जाएगी। चुनावी दौर में तोहमतों की आंधी से उपजे इल्जाम भी आदर्श बन जाते हैं। उन्हीं आदर्श इल्जामों से सियासत का तवाजुन बिगाड़ कर सत्ता के बड़े खिलाडिय़ों को पटखनी दी जाती है। खोया हुआ जनाधार वापस लाने में जाति, मजहब व आरक्षण की बैसाखियां मददगार साबित होती हैं।
दरअसल सियासी कश्तियों में यह कशमकश सत्ता की चौखट पर पहुंचने के लिए है। सत्ता के फलक पर बैठने के लिए अपने ही सियासी दल के खिलाफ विद्रोह या दलबदल को अंजाम देकर सियासी उलटफेर के मजमून लिखे जाते हैं। दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र भारत में जम्हूरियत की भाग्य विधाता आवाम है, लेकिन इख्तिदार हासिल होने के बाद सियासी रहनुमाओं के लफ्ज मगरूर हो जाते हैं। सत्ता की जद्दोजहद के लिए सियासी रहनुमाओं के बीच शब्दबाणों की जंग इंतखाबी दौर से लेकर जम्हूरियत की पंचायतों तक देखी व सुनी जा सकती है। सियासत की जुबानी जंग ने मर्यादा की सारी हदूद को तोड़ डाला है। एक सियासी रहनुमां के गैर-जिम्मेदाराना बयान तथा तल्ख तेवर अपने ही सियासी दल तथा समुदाय को उलझन में डाल देते हैं। न्यूज चैनलों पर दौरान-ए-गुफ्तगू में सियासी मुनाजिरों की अमर्यादित बयानबाजी से लोगों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाना आम बात हो चुकी है। बेतुके बयानों से सुर्खियां बटोरना जहां सियासत का मिजाज बन चुका है, तो वहीं विवादित बयानबाजी से लोगों की आस्था को आहत करके माजरत का इजहार करना सियासत का दांव बन चुका है। लेकिन इसके बावजूद लोग अपने बेशकीमती वोट की ताकत से सियासी रहनुमाओं को सत्ता के फलक तक पहुंचा कर लोकतंत्र को मजबूत कर रहे हैं, जबकि सियासत किसी की रवादार नहीं होती। धोखा, फरेब, छल, कपट, विश्वासघात, तोहमत, साम, दाम, दंड, भेद जैसे गुण व अवगुण सियासत में समाहित होते हैं। सन् 1990 के दशक में देश के सियासतदानों को चुनाव आयोग की ताकत का एहसास कराने वाले दबंग चुनाव आयुक्त रहे ‘टीएन शेषन’ ने हिंदोस्तान की सियासत तथा सियासी रहनुमाओं के चरित्र में आ रही गिरावट को अपनी पुस्तक ‘भारत पतन की ओर’ में तफसील से बयान करके सियासी निजाम के भविष्य पर चिंता जाहिर की थी। टीएन शेषन द्वारा सियासत के मुस्तकबिल पर किया गया आकलन वर्तमान में सही साबित हो रहा है। विवादित बयानबाजी के जरिए देश के महान विचारकों, दार्शनिकों, सेना तथा स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां की जाती हैं। चुनावी दौर में हेट स्पीच के मामलों पर चुनाव आयोग को नेताओं के चुनावी प्रचार पर रोक लगानी पड़ती है।
‘कारण बताओ नोटिस’ जारी किए जाते हैं। सियासतदानों की हिकारत भरी बयानबाजी तथा अपमानजनक टिप्पणियों पर देश की अदालतें चेतावनी जरूर पेश करती हैं, मगर चुनाव आयोग की नसीहत व अदालतों की चेतावनी को बयानवीर अनसुना कर देते हैं। सियासी रसूख के आगे सभी व्यवस्थाएं बौनी साबित हो रही हैं। कुदरत के अनमोल तोहफा जुबान से निकले अल्फाज यदि विनम्र लहजे में हों तो एक औषधि का काम करते हैं। अन्यथा लफ्जों के कोई हाथ या पांव नहीं होते बल्कि तीरनुमा तीखे लफ्जों से उपजे गहरे घाव एक मुद्दत गुजर जाने के बाद भी नहीं भरते। बेशक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सियासी मुस्तकबिल को महफूज रखने के लिए वोट बैंक ही मायने रखता है। मगर आपत्तिजनक व हिकारत भरी बयानबाजी से आम लोग, निर्वाचन आयोग व देश की अदालतें भी परेशान हो चुकी हैं। यदि अपने सियासी स्वार्थों के लिए नफरत भरी तकरीरों से लोगों के जज्बात आहत किए जाएंगे या सियासी मफाद के लिए मर्यादा व नौतिक आचरण को ताक पर रखकर लोगों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई जाएगी, तो जम्हूरी निजाम अस्थिरता की जद में आ जाएगा। ‘सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च’, हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या। नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च वाराग्ंनेव नृपनीतिरनेकरूपा। अर्थात सियासत कभी सच, कभी झूठ, कभी कठोर, कभी प्रियवादिनी, कभी हिंसात्मक, कभी दयालु, कभी लालची, कभी उदार, कभी खर्चीली, तो कभी धन संचय करने वाली वेश्या की भांति अनेक रूप धारण करने वाली होती है।
अवंतिका के राजा ‘भृर्तहरि’ ने इस श्लोक को सैंकड़ों वर्ष पूर्व अपने ‘नीतिशतक’ नामक ग्रंथ में लिपिबद्ध करके भविष्य में राजनीति के ऐसे ही किरदार की कल्पना की थी। प्रश्न यह है कि भृर्तहरि की परिकल्पना में यदि सियासत वेश्या है तो इसे सावित्री कौन बनाएगा? जम्हूरियत के चारों स्तम्भ, बुद्धिजीवी वर्ग, मतदाता तथा मुल्क के रहबर विचार करें। बहरहाल सियासत की बेतुकी बयानबाजी से शराफत, अखलाक, गैरत व अदब की परिभाषा ही बदल चुकी है। सियासत के किरदार से सदाकत की झलक तथा ईमानदारी की अलामतें रुखसत हो रही हैं। लिहाजा लोगों के जज्बात व एहसास को आहत करने वाले गैर जिम्मेदाराना अल्फाज का गुलाम बनने से बेहतर होगा कि खामोशी के हुक्मरान बन जाएं। कई रिश्तों की आबरू पर पर्दा डालने वाली खामोशी का रुतबा अलग होता है। अत: बेलगाम व भडक़ाऊ बयानबाजी पर लगाम लगनी चाहिए, ताकि लोकतांत्रिक प्रणाली में लोगों का विश्वास कायम रहे।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
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