कश्मीर युद्ध के गुमनाम नायक शेर जंग थापा

मौजूदा दौर में जम्मू-कश्मीर राज्य के सियासी रहनुमां जश्न-ए-जम्हूरिया मना रहे हैं, मगर 1947-48 के युद्ध में कश्मीर के मुहाफिज शेर जंग थापा, कमान सिंह पठानिया, अनंत सिंह पठानिया, ठाकुर पृथी चंद व खुशाल ठाकुर की शूरवीरता पर गुमनामी का तमस छा चुका है…

बाईस अक्तूबर 1947 को पाक सेना ने हजारों कबायली लड़ाकों के साथ जम्मू-कश्मीर रियासत पर हमला कर दिया था। जम्मू-कश्मीर के शासक ‘हरि सिंह’ के लिए परिस्थितियां गंभीर हो चुकी थीं। 26 अक्तूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में इलहाक हुआ तो रियासत की स्टेट फोर्सेज भितरघात का शिकार हो गई। गिलगित व बलोचिस्तान की सुरक्षा में तैनात जम्मू-कश्मीर राज्य की फोर्स ‘गिलगित स्काउट’ तथा सैंकड़ों मुस्लिम सैनिक विद्रोह करके पाक सेना से जा मिले थे। गिलगित स्काउट के कमांडर मेजर ‘विलियम ए ब्राउन’ ने गिलगित के गवर्नर ब्रिगेडियर ‘घनसारा सिंह’ को कैद करके एक नवंबर 1947 को अपने मुख्यालय पर पाकिस्तान का परचम फहरा दिया था। गिलगित एजेंसी की सीमा पर ‘बुंजी’ में तैनात ‘जम्मू कश्मीर इन्फैंट्री’ की ‘छठी’ बटालियन के कर्नल ‘अब्दुल मजीद खान’ को भी कैद कर लिया गया था। उसी बटालियन के कैप्टन ‘मिर्जा हसन खान’ ने सैंकड़ों मुस्लिम सैनिकों के साथ मिलकर बगावत को अंजाम देकर बुंजी के निकट ‘जंगलोट’ में तैनात अपनी ही सिख कंपनी पर हमला करके कई सिखों को हलाक कर दिया तथा पाक सेना से जा मिले थे। उसी छठी जम्मू कश्मीर इन्फैंट्री में सेवारत हिमाचल के ‘शेर जंग थापा’ उस समय अपनी एक कंपनी के साथ लद्दाख सेक्टर में तैनात थे।

शेर जंग थापा को कर्नल पद पर पदोन्नत करके स्कर्दू में अपनी बटालियन की कमान संभालने का आदेश मिला। लद्दाख से स्कर्दू तक का सफर पैदल तय करके शेर जंग तीन दिसंबर 1947 को स्कर्दू पहुंचे। शेर जंग ने कैप्टन कृष्ण सिंह के नेतृत्व में सिख सैनिकों को ‘त्सारी’ तथा कैप्टन ‘गंगा सिंह’ के नेतृत्व में एक सैन्य दस्ता ‘कारगिल’ में तैनात किया। मात्र साठ सैनिकों के साथ शेर जंग ने स्कर्दू में मोर्चा संभाला। दस फरवरी 1948 को कैप्टन प्रभात सिंह दो कंपनियों के साथ शेर जंग की सहायता के लिए स्कर्दू पहुंचे, मगर शेर जंग की बटालियन के कैप्टन ‘नेक आलम’ ने अपने मुस्लिम सैनिकों के साथ पाक फौज से मिलकर दस फरवरी 1948 को स्कर्दू के त्सारी में तैनात सिख कंपनी पर हमला करके कैप्टन कृष्ण सिंह सहित लगभग पूरी कंपनी को हलाक करके पाक सेना में शामिल हो गया। 12 फरवरी 1948 को पाक फौज ने स्कर्दू किले की घेराबंदी करके हमले शुरू कर दिए। शेर जंग के नेतृत्व में सैनिक पाक फौज के हमलों को नाकाम करते रहे, लेकिन पाक फौज की उस बड़े पैमाने की घेराबंदी के बाद शेर जंग को सैन्य सहायता नसीब नहीं हुई थी। जम्मू-कश्मीर राज्य बलों से बगावत करके पाक सेना से जा मिले कर्नल बुरहानुद्दीन, मोहम्मद खान व बाबर खान गिलगित स्काउट की कमान संभाल कर स्कर्दू किले को घेर चुके थे। शेर जंग की बटालियन के भगोड़े कर्नल ’ एहसान अली’ की कयादत में ‘आईबेक्स फोर्स’ तथा चित्राल रियासत के ‘चित्राल स्काउट व चित्राल बाडीगार्ड’ के साथ सैंकड़ों कबाइली व पश्तून लड़ाकों को कर्नल मताउल मुल्क की कमान में पाक सिपाहसालारों ने स्कूर्द किले की घेराबंदी में तैनात किया था। मिर्जा हसन खान को बुंजी सेक्टर का गर्वनर तथा कर्नल ‘असलम खान’ ‘पाशा’ को गिलगित स्काउट का कमांडर नियुक्त कर दिया था। शेर जंग की मदद के लिए ब्रिगेडियर ‘फकीर सिंह’ तथा कर्नल संपूर्ण बचन सिंह की कमान में दो बड़े सैन्य दल श्रीनगर से सैंकड़ों मीलों का पैदल सफर तय करके स्कर्दू के लिए जरूर निकले थे। मगर उसी गिलगित स्काउट के सैनिकों ने उन सैन्य दस्तों पर घात लगाकर हमले किए जिसमें बड़ी संख्या में सैनिक शहीद हुए। नतीजतन कोई भी सैन्य दल स्कर्दू तक नहीं पहुंच सका।

दरअसल जम्मू से श्रीनगर, जोजिला, कारगिल, द्रास से स्कर्दू तक का सैंकड़ों मीलों का पैदल सफर, भीषण ठंड, बेहद दुर्गम क्षेत्र हमारे सैनिकों के लिए चुनौती बन चुका था। पाक सेना सभी रास्तों पर किलेबंदी कर चुकी थी। जम्मू कश्मीर रियासत के सैंकड़ों मुस्लिम सैनिक पाक सेना का हिस्सा बनकर कश्मीर के स्कर्दू व लद्दाख के महाज पर लड़ रहे थे। स्कर्दू के बचाव के लिए जितनी सेना व हथियारों की जरूरत थी, उतनी तादाद में सैनिक व असलाह शेर जंग तक नहीं पहुंचा। 17 जून 1948 को पाक फौज ने शेर जंग को आत्मसमर्पण का पैगाम भेजा जिसे शेर जंग ने ठुकरा दिया था। 12 अगस्त 1948 को पाक फौज ने स्कर्दू किले पर जोरदार हमला किया। शेर जंग के सैनिकों ने पलटवार करके कई पाक सैनिकों को हलाक करके वो हमला नाकाम किया, मगर स्कर्दू किले में गोला बारूद व खाद्य आपूर्ति समाप्त हो चुकी थी। आखिर भारतीय सेना के श्रीनगर डिवीजन के कमांडर के अनुरोध पर कर्नल शेर जंग थापा ने स्कर्दू किले को छोडऩे का फैसला लिया। 14 अगस्त 1948 को शेर जंग थापा व सिपाही कल्याण सिंह ही जीवित बचे थे, बाकी निहत्थे सैनिकों को पाक फौज ने हलाक कर दिया था। पाक सेना ने जिस रणनीति से कश्मीर पर हमला करके कत्लोगारत को अंजाम देकर पीओके पर कब्जा किया था, भारत की सियासी कयादत ने पाकिस्तान को उसी भाषा में जवाब देने में इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, अन्यथा पूरा कश्मीर भारत का हिस्सा अवश्य होता।

बिना किसी सैन्य सहायता से अपने कुछ सैनिकों के साथ भूखे-प्यासे रहकर शेर जंग ने छह महीने तक स्कर्दू किले पर कब्जा जमाए रखा, जो कि सैन्य इतिहास में सबसे लंबी घेराबंदी थी। उस दास्तान-ए-सुजात के लिए ‘हीरो ऑफ स्कर्दू’ कर्नल शेर जंग थापा को भारतीय सेना ने ‘महावीर चक्र’ से अलंकृत किया था। सन् 1961 में शेर जंग थापा ब्रिगेडियर रैंक में सेवानिवृत्त हुए थे। मौजूदा दौर में जम्मू कश्मीर राज्य के सियासी रहनुमां जश्न-ए-जम्हूरिया मना रहे हैं। मगर 1947-48 के युद्ध में कश्मीर के मुहाफिज शेर जंग थापा, कमान सिंह पठानिया, अनंत सिंह पठानिया, ठाकुर पृथी चंद व खुशाल ठाकुर हिमाचल प्रदेश के पांच ‘महावीर चक्र’ विजेताओं की शूरवीरता पर गुमनामी का तमस छा चुका है। उन योद्धाओं का गौरवशाली सैन्य इतिहास अध्ययन का विषय है, जो कि शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए। ऐसा करना उनके लिए सच्ची आदरांजलि होगी।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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