सिरिजाप की जंग में धन सिंह थापा का पराक्रम

यदि मौजूदा दौर में पीएलए एलएसी पर सशस्त्र संघर्ष से बच रही है तो यह भारतीय सैन्य पराक्रम का खौफ है। अत: यह दौर विश्व को बुद्ध के शांति पैगाम देने का नहीं है। दुनिया के सामरिक समीकरण बदल चुके हैं। लिहाजा सशस्त्र बल अचूक मारक क्षमता वाले अत्याधुनिक हथियारों से लैस होने चाहिएं…

अक्तूबर 1949 को तोहमत व फरेब के तालिब-ए-इल्म ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ की स्थापना हुई थी। अप्रैल 1950 में भारत ने चीन को मान्यता देकर अपने राजनयिक संबंध स्थापित कर लिए तथा सन् 1954 में भारत-चीन के बीच ‘पचंशील’ नामक समझौता हुआ। लेकिन पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के संस्थापक चेयरमैन ‘माओत्से तुंग’ ने अपने प्राचीन सेनानायक व दार्शनिक ‘सुन त्जू’ द्वारा लिखित सैन्य ग्रंथ ‘आर्ट ऑफ वार’ के नक्शेकदम पर चलना शुरू कर दिया था। ‘सुन त्जू’ के 13 अध्यायों वाले उस ग्रंथ में कुछ सिद्धांत ये भी हैं कि ‘सेना की उचित तैनाती व सम्मान, सैनिकों तक हथियार व रसद पहुंचाने के लिए शानदार सडक़ें तथा युद्ध धोखे से ही जीते जाते हैं’। सुन त्जू के सैन्य सिद्धांत चीन की रक्षा अकादमी में आज भी पढ़ाए जाते हैं। चीन ने सन् 1950 में ‘विश्व की छत’ कहे जाने वाले तिब्बत पर सैन्य कार्रवाई से कब्जा करके अपने विस्तारवादी मंसूबों का पहला मजमून लिख दिया था। तिब्बत पर चीन के कब्जे की संगे बुनियाद भारत के लिए एक पैगाम था। भारत का सियासी नेतृत्व उस पैगाम को समझने में नाकाम रहा था। चीन ने तिब्बत में हिंदोस्तान से लगती सरहद पर सन् 1957 तक सडक़ंे बनाकर भारत को एक आसान लक्ष्य बनाकर लद्दाख, अरुणाचल व सिक्किम जैसे राज्यों के कई क्षेत्रों पर अधिकार जताकर अपने तल्ख तेवर दिखा दिए थे।

दरअसल 1947 में बर्तानिया से आजादी के बाद भारत का सियासी नेतृत्व अपनी अंतरराष्ट्रीय सरहदों को परिभाषित करने में विफल रहा था। चीन के हुक्मरानों ने औपनिवेशिक काल के सरहदी समझौतों को रद्द करके भारत के खिलाफ हमले की तैयारी शुरू कर दी थी। जब भारत ने सन् 1959 में अपनी ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ को लागू किया, तब तक चीन सरहद पर पेशकदमी को तैयार बैठा था। चीनी सेना ने 21 अक्तूबर 1959 को लद्दाख के ‘हॉट स्प्रिंग’ में गश्त कर रहे भारतीय ‘सीआरपीएफ’ के दस जवानों पर गोलीबारी करके उनकी हत्या कर दी थी लेकिन भारत में हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे लग रहे थे। चीन को गोली का जवाब गोली से देने के बजाय भारत की हुकूमत उन तनावपूर्ण हालात को कूटनीति व शांत तरीके से सुलझाना चाहती थी। भारत के उसी कमजोर पक्ष पर प्रहार करके चीन ने बीस अक्तूबर 1962 को लद्दाख व अरुणाचल पर हमला करके हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे की हवा निकाल कर पंचशील समझौते को भी आईना दिखा दिया था। चीन पर जरूरत से ज्यादा भरोसे के रद्देअमल में भारत को ऐसा धोखा मिला कि हिंदोस्तान का भूगोल तब्दील हो गया। कई वर्षों से भारत पर हमले की तैयारी कर रहे चीन ने अपनी ‘पीपल लिबरेशन आर्मी’ (पीएलए) को आधुनिक हथियारों से लैस कर दिया था। लेकिन सैन्य संसाधनों की कमी से जूझ रहे भारतीय सैनिक दूसरी जंगे अजीम के दौर के पुराने हथियारों से ही चीनी सेना पर शाहीन बनकर टूट पड़े थे। लद्दाख व अरुणाचल प्रदेश में हजारों फीट की बुलंदी पर भीषण ठंड में लड़ रहे भारतीय सैनिकों को वायुसेना की मदद भी नसीब नहीं हुई थी। लद्दाख सेक्टर में पैंगौंग त्सो झील के निकट ‘सिरिजाप’ की चौकियों पर मेजर ‘धन सिंह थापा’ के नेतृत्व में ‘आठवीं गोरखा राइफल्स’ के जवान तैनात थे। बीस अक्तूबर 1962 को चीन के हजारों सैनिकों ने सिरिजाप पर जोरदार हमला कर दिया था। दुश्मन के दो बड़े हमलों को नाकाम करके गोरखा सैनिकों ने पीएलए को काफी नुकसान पहुंचाया, मगर चीनी सेना ने तीसरे हमले को अपने टैंकों से अंजाम दिया था। अपनी खुखरियों से पीएलए को हलाक करके गोरखा सैनिक वतन-ए-अजीज के लिए बलिदान हो गए, मगर मैदान-ए-हर्ब को नहीं छोड़ा। शत्रु सैनिकों को जहन्नुम की परवाज पर भेज कर रणक्षेत्र में बुरी तरह जख्मी हो चुके धन सिंह थापा को पीएलए ने हिरासत में ले लिया था।

युद्धबंदी के तौर पर धन सिंह थापा को चीनी सेना ने कई यातनाएं व प्रलोभन दिए, मगर हिमाचली शूरवीर धन सिंह थापा के मजबूत इरादों के आगे चीन भी बेबस हो गया था। सिरीजाप की लड़ाई में चीन के हजारों सैनिकों का वीरतापूर्वक सामना करके उच्च दर्जे के सैन्य नेतृत्व की मिसाल कायम करने वाले मेजर धन सिंह थापा को भारतीय सेना ने सर्वोच्च सैन्य पदक ‘परमवीर चक्र’ से अलंकृत किया था। चीन युद्ध के विनाशकारी परिणाम को एक खुद्दार मुल्क कभी सहन नहीं कर सकता, लेकिन राष्ट्र के स्वाभिमान की जंग में परिणाम नहीं देखे जाते। दुश्मन को हलाक करने का जज्बा व जुनून भारतीय सेना के मिजाज में हमेशा मौजूद रहा है। 1962 की जंग में भी वही भारतीय सेना थी जिसने सन् 1965 की जंग में खेमकरण सेक्टर में पाक पैटन टैंकों का कब्रिस्तान बना डाला था। हाजीपीर, चविंडा व सियालकोट को फतह करके लाहौर में तिरंगा फहरा दिया था। 1967 में ‘नाथुला’ में चीन के चार सौ सैनिकों को मौत के घाट उतार डाला था। सन् 1971 में पाकिस्तान को तकसीम करके उसका भूगोल तब्दील कर दिया था। काश! 1962 की जंग में भारतीय सेना आधुनिक हथियारों व सैन्य संसाधनों से सुसज्जित होती तो हमारे रणबांकुरे जंग का रुख बदल कर डै्रगन के चेहरे से मक्कारी का नकाब नोच लेते या चीन सरहद लांघने की हिमाकत न करता।

1962 में चीन को मुंहतोड़ जवाब देने वाले भारतीय योद्धाओं पर हमेशा गर्व रहेगा। यदि मौजूदा दौर में पीएलए एलएसी पर सशस्त्र संघर्ष से बच रही है तो यह भारतीय सैन्य पराक्रम का खौफ है। अत: यह दौर विश्व को बुद्ध के शांति पैगाम देने का नहीं है। दुनिया के सामरिक समीकरण बदल चुके हैं। लिहाजा जब पड़ोस में खामोश तबीयत वाला चीन जैसा मुल्क मौजूद हो तो सशस्त्र बल अचूक मारक क्षमता वाले अत्याधुनिक हथियारों से लैस होने चाहिएं। पीओके को वापस लेने के बयान सियासी गलियारों में अक्सर चर्चा का मरकज बनते हैं, मगर चीन द्वारा कब्जाए गए ‘अक्साई चिन’ पर भी विचार होना चाहिए। मैदाने सियासत में मशगूल रहने वाले देश के हुक्मरानों को 1962 युद्ध के भयंकर नतीजों से मुखातिब होकर चीन के खिलाफ आक्रामक सैन्य रणनीति का मसौदा तैयार करना होगा।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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