ट्रंप का जीतना और अरविंद केजरीवाल
अमेरिका के इन सात सूबों को छोडक़र शेष 43 सूबों में परम्परा से ही निश्चित है कि किस सूबे से डेमोक्रेटिक जीतेंगे और किस सूबे से रिपब्लिकन जीतेंगे। इसलिए सारा दारोमदार इन सात स्विंग स्टेट पर रहता है…
ऊपर से देखने पर यह शीर्षक कुछ अटपटा सा लगता है और सचमुच है भी। लेकिन इसका मात्र इतना ही स्पष्टीकरण पर्याप्त होगा कि इस बार के स्तम्भ में मैं ये दोनों विषय एक साथ ले रहा हूं। सबसे पहले अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प की बात। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर लगभग साल भर से घमासान मचा हुआ था। अभी वहां डैमोक्रेटिक पार्टी का राष्ट्रपति जो बाईडेन हैं। उनको चुनौती देने के लिए रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रम्प मैदान में थे। डैमोक्रेटिक पार्टी ने मैदान में उतारा तो जो बाईडेन को ही था, लेकिन उन्हें खराब सेहत के चलते मैदान छोडऩा पड़ा और उनके स्थान पर पार्टी ने वर्तमान उप राष्ट्रपति कमला हैरिस को प्रत्याशी बनाया। उसके बाद लोगों का मानस पढ़ लेने का दावा करने वाले सक्रिय हो गए। धीरे धीरे उन्होंने वहां के जनमानस के भीतर घुस कर दुनिया भर को बताना शुरू किया कि बाईडेन के मैदान से हटते ही कमला हैरिस का ग्राफ तेजी से बढऩे लगा है। अब वह धीरे धीरे ट्रम्प के बराबर पहुंच गई हैं। यदि बाईडेन मैदान में होते तो ट्रम्प का जीतना तय था, लेकिन कमला ने पासा पलट दिया है। अब कांटे की टक्कर हो गई है। इसके साथ साथ अमेरिकी मनोविज्ञान के विद्वान बराबर बताते रहे कि आम अमरीकी ट्रम्प को लोकतंत्र विरोधी मानता है। अमेरिका के लोग चिन्तित हैं कि ट्रम्प के जीतने से देश में लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। रिपब्लिकन पार्टी कैसी है, इसको छोडि़ए, इस पार्टी पर ट्रम्प की जुंडली ने कब्जा कर लिया है और यह जुंडली दुनिया का सत्ता संतुलन बिगाड़ कर दुनिया को नष्ट कर देगी। ट्रम्प फासिस्ट हैं।
वे अमेरिकी जीवन मूल्यों को नहीं जानते और जिन मूल्यों को जानते हैं, उनको नष्ट करने पर तुले हैं। बुद्धिजीवियों का एक समूह बराबर इस बात का दावा कर रहा था कि ट्रम्प इस्लाम विरोधी हैं। देश का युवा अमेरिका के विश्वविद्यालयों में फिलस्तीन के पक्ष में मोर्चे खोल कर बैठा है। ट्रम्प उस पीढ़ी का प्रतीक हैं जो आज के युवा मानस से कट गई है। युवा मानस का चिन्तन वैश्विक स्तर का है, लेकिन ट्रम्प पुराने दबड़े से बाहर निकलने को तैयार नहीं। वे अमेरिका को भी पीछे धकेलना चाहते हैं। चुनाव से कुछ दिन पहले ट्रम्प ने डेमोक्रेटिक पार्टी के गढ़ न्यूयार्क में एक विशाल जनसभा की। उसमें वक्ताओं ने नस्ली टिप्पणियां कीं। कमला हैरिस की हंसी उड़ाई। गली बाजार की भाषा का प्रयोग किया। इससे अमेरिका के मीडिया ने घोषणा कर दी कि यह तो ट्रम्प ने अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली है। अमेरिका के लोग सभ्य लोग हैं। वे इस प्रकार के व्यवहार को पसन्द नहीं करते। अंतिम क्षण तक अमेरिका के ये बुद्धिजीवी समझाते रहे कि अब अमेरिकी मानस कमला के साथ खड़ा हो गया है। संकट लगभग टल गया है। कमला हैरिस ने अमेरिकी लोगों को ट्रम्प के आने से उत्पन्न हो सकते खतरों से आगाह कर दिया है और वे अच्छी तरह समझ गए हैं। लेकिन चुनाव में ट्रम्प जीत गए। जीत ही नहीं गए, इतनी जोर से जीते कि उन्होंने अमेरिका के वे सात सूबे भी हिला दिए जिन्हें वहां स्विंग स्टेट कहा जाता है। अमेरिका के इन सात सूबों को छोडक़र शेष 43 सूबों में परम्परा से ही निश्चित है कि किस सूबे से डेमोक्रेटिक जीतेंगे और किस सूबे से रिपब्लिकन जीतेंगे। इसलिए सारा दारोमदार इन सात स्विंग स्टेट पर रहता है। राजनीति की रग रग से वाकिफ होने का दावा करने वाले अमेरिकी मीडिया मुगल कह रहे थे कि इस बार ये सात राज्य अमेरिका के भविष्य की रक्षा के लिए कमला के साथ आ गए हैं। लेकिन ट्रम्प इन सातों में ही जीत गए। संसद के दोनों सदनों में भी उनकी पार्टी जीत गई, ऐसा अमेरिका की राजनीति में कभी कभार ही होता है। लेकिन ट्रम्प जीत गए, यह हमारा विषय नहीं है। हमारा विषय है कि उनकी जीत के बाद, अमेरिका की जनता की धडक़न को भी पकड़ लेने का दावा करने वाले उत्तरी अमेरिका के विशेषज्ञ उन्हें किस प्रकार से अलग अलग गालियां दे रहे हैं। सबसे बड़ा रोना यह रोया जा रहा है कि ग्रामीण अनपढ़ जनता ने उन्हें वोट डाली है। पढ़े लिखे लोग इस बात पर दुखी हैं कि गांव के गंवार अशिक्षित लोग अमेरिका का भविष्य तय कर रहे हैं। अब मानव अधिकार, नारी अधिकार, बच्चों के अधिकार सभी खतरे में पड जाएंगे।
अंधकार युग आ जाएगा। किसी रैली में ट्रम्प ने कह दिया था कि परिवार को पुन: जीवित करना होगा। उससे वहां के बुद्धिजीवी हक्के बक्के हैं। उनके प्रगतिवादी चिन्तन के अनुसार परिवार ही तो ग़ुलामी का स्रोत है। इस लिहाज से भारत का भी उदाहरण लिया जा सकता है। यहां भी प्रगतिवाद के नाम पर कम्युनिजम की विदेशी गठड़ी कन्धे पर लाद कर रोना मचा रहता है, गांव के अनपढ़ लोगों को मताधिकार दे देने से देश का भविष्य खाते में पडृ गया है। दरअसल सांस्कृतिक मार्कसवाद जिस तेजी से यूरोप और अमेरिका में फैल रहा है और वहां से उसका प्रदूषण भारत में आ रहा है, उससे चिन्ता होना स्वाभाविक है। लेकिन इसका विपरीत भी उतना ही सच है। इस सबके बावजूद लोग अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं, जिसके कारण अनेक खिसियानी बिल्लियां भारत और अमेरिका में खम्बे नोच रही हैं। दूसरी बात अपने अरविन्द केजरीवाल की। क्या केजरीवाल पंजाब के मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं? यह प्रश्न पूर्वी पंजाब में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय है। अरविन्द केजरीवाल की अपनी एक पार्टी है। आम आदमी पार्टी। इस पार्टी का दिल्ली में राज स्थापित हो गया और केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए। उनका एक ही नारा था और एक ही दावा था कि वे कट्टर ईमानदार हैं। वे सदा ईमानदार के साथ कट्टर लगाते हैं। यह मामला कुछ कुछ उसी प्रकार का है जैसे आजकल कई दुकानदार अपनी दुकान पर बोर्ड लटकाते हैं कि यहां शुद्ध देसी घी मिलता है। देसी घी मिलता है, से भी काम चल सकता है, लेकिन उनका कहना है ग्राहक को शक बना ही रहता है। ग्राहक को उस शक से बाहर निकालने के लिए ‘शुद्ध देसी घी’ लिखना पड़ता है। लेकिन कट्टर ईमानदार का दावा करने के कुछ समय बाद ही केजरीवाल भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल चले गए। केवल वे ही नहीं बल्कि उनकी कट्टर ईमानदार पार्टी के दूसरे दो नेता भी। लम्बे अरसे तक जेल में रहने के बाद वे बड़ी मुश्किल से जमानत पर बाहर निकले हैं। लेकिन उन्होंने जेल से बाहर निकल कर, दिल्ली में सरकार तो अपनी पार्टी की बनी रहने दी, लेकिन खुद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उनको लगने लगा है कि एक शहर के मुख्यमंत्री का पद उनकी हैसियत के हिसाब से बहुत छोटा रह गया है। अब यह नहीं पता कि उनकी अपनी हैसियत उनके जेल जाने से बढ़ गई है या फिर उनके जेल जाने से दिल्ली के मुख्यमंत्री पद का भाव कम हो गया है? लेकिन मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद केजरीवाल की सक्रियता सचमुच बहुत बढ़ गई।
उनकी यह सक्रियता ही पंजाब के मुख्यमंत्री भगवन्त मान के लिए भारी पड़ती जा रही है। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री कार्यालय का लगभग सारा स्टाफ बदल दिया है। भगवन्त मान के खेमे के कुछ मंत्री भी रुखसत कर दिए गए हैं और उनकी जगह नए लोग लाए गए हैं। कहा जा रहा है कि अपने अनुभव के आधार पर केजरीवाल पंजाब के प्रशासन को चुस्त दुरुस्त करना चाह रहे हैं। दरअसल इस चुस्त दुरुस्त प्रशासन के बीच की गली में से ही वह शराब नीति प्रकट हुई थी जिसके कारण केजरीवाल अपने दो अन्य साथियों के साथ लम्बे अरसे तक जेल में रहे। शायद केजरीवाल की चुस्त प्रशासन के प्रति बढ़ती व्यग्रता देख कर ही भगवन्त मान की चुस्ती निकलती जा रही है। दिल्ली में यह चुस्ती मनीष सिसोदिया और सत्येन्द्र जैन को ले डूबी, क्या पंजाब में यह भगवन्त मान के भाग्य को ग्रसित करेगी? भगवन्त मान को पंजाब का मुख्यमंत्री बने लगभग अढाई साल हो गए हैं, लेकिन केजरीवाल ने पहले दिन से ही पंजाब की नौकरशाही की नकेल अपने हाथों में ले ली थी। इस तरह भगवंत मान नाम के ही मुख्यमंत्री हैं।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com
Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also, Download our Android App or iOS App