धर्मपरायण देश में गौधन की दुर्दशा क्यों?
सागर मंथन से उत्पन्न विलक्षण गुणों वाली ‘कामधेनु’ जैसी मुकद्दस गाय के धर्मपरायण देश भारत में हरदम विनम्र स्वभाव की दुधारू गाय पालने से मोहभंग होना तथा गौधन की दुर्दशा का कारण क्या पश्चिमी शिक्षा व तहजीब का प्रभाव है, यह मंथन का विषय है…
‘अपने गोविंद सा कोई गौपालक तलाशती हंू। मैं सुभद्रा, सुनंदा, कपिला, सुरभि, नंदनी व कान्हा की प्रिय ‘पद्मा’ अब बेसहारा होकर गली, चौक चौराहे पर आशियाना तलाशती हूं’। शायद बेसहारा होकर दर-दर की ठोकरें खाकर अपमानित हो रहे गौधन के दिल की यही आवाज होगी, मगर सडक़ों पर भाग्य तलाश रहे बेजुबान गोवंश की जुबान को समझेगा कौन? यदि मां के बाद किसी दूध की महिमा व महत्त्व है, तो वह केवल गाय का दूध है। इसीलिए अनादिकाल से भारतीय संस्कृति में एकमात्र प्राणी गाय को ‘गौमाता’ का दर्जा प्राप्त है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जाने वाला पर्व ‘गोपाष्टमी’ गौधन को समर्पित है। पौराणिक मान्यता है कि भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्रीकृष्ण ने इस दिन गौचारण लीला आरंभ की थी। चंद्रवंशी क्षत्रिय श्रीकृष्ण गोपाल बने। गोरक्षक के रूप में श्रीकृष्ण का नाम ‘गोविंद’ पड़ा। ‘गावो ममाग्रत: सन्तुगावो मे सन्तु पृष्ठत: गावों मे हृदय सन्तु गवा मध्ये वसाम्यहम्’ अर्थात गायें मेरे आगे, पीछे व हृदय में स्थित रहे, गायों के बीच ही मैं सदा निवास करूं। गऊओं के संदर्भ में श्रीकृष्ण के इस प्रसंग का उल्लेख ‘भविष्यपुराण’ के उत्तरपर्व में हुआ है। धार्मिक ग्रंथों में जमदग्नि, भारद्वाज, वशिष्ठ, असित तथा गौतम जैसे महान ऋषियों के आश्रमों में नंदा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला व बहुला जैसी गऊओं का उल्लेख हुआ है। सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद, उपनिषद व पुराणों में ऋषियों ने गौधन की महिमा को लिपिबद्ध करके दुनिया को गाय के समस्त गुणों से परिचित करवाया था। मगर ऋषि-मुनियों द्वारा गौधन के संदर्भ में लिखे ज्ञान तथा उपदेशों को भारत में तीलांजलि दी जा चुकी है।
शिवरात्रि के अवसर पर भगवान शंकर के साथ ‘नंदी’ की पूजा भी होती है। जिस देश में सुख समृद्धि की कामना के लिए ‘बलिवैश्वदेव यज्ञ’ के द्वारा घर की पहली रोटी दिव्य गुणों की स्वामिनी गाय को खिलाई जाती हो, वहां हर घर आंगन की शोभा रही गोविंद की प्रिय गाय तथा भगवान शिव के प्रिय नंदी को बेसहारा होकर सडक़ों पर दुर्दशा, तशद्दुद व तस्करी का शिकार होकर बूचडख़ानों तक का सफर तय करना पड़ेगा, पूज्य रहे गौधन को आवारा पशु का खिताब दिया जाएगा, गोवंश को गो तस्करों के हवाले करके गौपालन से पीछा छुड़ाने के प्रयास होंगे, शायद गोपाष्टमी, गोवत्स द्वादशी व गोवर्धन पूजा जैसे पर्व मनाने वाले भारत में इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। प्रश्न यह है कि गोवंश की इस बेकदरी के आलम का जिम्मेवार कौन है? श्वेत क्रांति, कृत्रिम गर्भाधान, चरागाहों में चरता विकास, मुफ्तखोरी की योजनाएं, आपरेशन फ्लड की आंधी, रोजगार की जुस्तजू में गांवों से युवाओं का पलायन, आधुनिकता की चकाचौंध में भौतिकतावादी जीवनशैली या गौपालन व्यवसाय को उपयोगी बनाने में सियासी निजाम की उदासीनता? स्मरण रहे तराजू किसी चीज का भार बता सकता है, गुणवत्ता नहीं। स्वस्थ जीवनशैली के लिए गुणवत्ता युक्त खाद्यान्न मायने रखता है। विदेशी नस्लों की तुलना में स्वदेशी नस्ल की गऊओं में दुग्ध उत्पादन क्षमता कुछ हद तक कम हो सकती है, मगर पौराणिक शास्त्रों व आयुर्वेद तथा वैज्ञानिक कसौटियों पर स्वदेशी गौधन का दूध श्रेष्ठ साबित हुआ है। विश्व की सबसे उम्दा स्वदेशी नस्ल की गऊएं भारत में ही पाई जाती हैं। लेकिन अधिक दूध उत्पादन के लालच में विदेशी नस्ल के गोवंश को अहमियत देकर अपने स्वदेशी गौधन को नजरअंदाज कर दिया गया। उनका स्वरूप बिगाड़ा गया। सडक़ों पर फरियादी बनकर आशियाने को मोहताज होकर हादसों का शिकार हो रहे गोवंश के हुजूम उसी श्वेत क्रांति व आपरेशन फ्लड का परिणाम हैं। युगों से भारतीय कृषि अर्थशास्त्र का मजबूत आधार स्तम्भ रहे गोवंश की दुर्दशा का मंजर शहरों व राजमार्गों पर देखा जा सकता है। किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के दावे किए जाते हैं। रासायनिक उवर्रकों व कीटनाशकों से रहित प्राकृतिक व जैविक कृषि के मश्विरे पेश किए जाते हैं। स्वदेशी उत्पाद अपनाने की सलाह दी जाती है, लेकिन किसानों की आर्थिकी की धुरी तथा ग्रामीण समृद्धि के द्वार खोलने वाला गौपालन जैसा पुश्तैनी व्यवसाय हाशिए पर जा रहा है। उत्तम दुग्ध गुणवत्ता वाली स्वदेशी गौधन की कई प्रजातियां अपना वजूद तलाश रही हैं। लेकिन बाजार से मिलावटी व कृत्रिम सिंथेटिक दूध खरीद कर बड़े शौक से लाया जाता है। अर्थतंत्र को मजबूत करने के लिए सरकारें विदेशी क्वालिटी की शराब की अरबों रुपए की तिजारत को बढ़ावा दे रही हैं। विदेशी खाद्य पदार्थों, विदेशी बीज, रसायन व कीटनाशकों का अरबों रुपए का कारोबार भारतीय बाजारों पर पैठ बना चुका है। विदेशी कंपनियों की कोल्ड ड्रिंक्स व बोतलबंद पानी का अरबों रुपए का व्यापार देश में हो रहा है। विदेशी नस्ल के कुत्तों की खरीद फरोख्त का बाजार देश में लगातार बढ़ रहा है। विदेशी नस्ल के खतरनाक किस्म के महंगे कुत्ते पालना स्टेटस सिबंल बन चुका है।
विदेशी नस्ल के कुत्ते पालने के बजाय छोटे कद की गाय ‘पुंगनूर’ तथा औषधीय गुणों से भरपूर दूध देने वाली हिमाचल की पहाड़ी गाय ‘चुरू’ तथा उत्तराखंड की कामधेनू कही जाने वाली ‘बद्री’ नस्ल की गऊओं का पालन-पोषण आसानी से किया जा सकता है। ‘राष्ट्रीय पशु अनुवांशिक संसाधन ब्यूरो’ ‘चुरू’ व ‘बद्री’ को देश की मान्यता प्राप्त गऊओं की नस्लों में शामिल कर चुका है। मगर सागर मंथन से उत्पन्न विलक्षण गुणों वाली ‘कामधेनु’ जैसी मुकद्दस गाय के धर्मपरायण देश भारत में हरदम विनम्र स्वभाव की दुधारू गाय पालने से मोहभंग होना तथा गौधन की दुर्दशा का कारण क्या पश्चिमी शिक्षा व तहजीब का प्रभाव है या बदलते सामाजिक मूल्यों का असर, यह मंथन का विषय है। बहरहाल श्रीकृष्ण ने गोपाल बनकर विश्व को गौपालन का संदेश दिया था। अत: सौभाग्य के प्रतीक स्वदेशी गौधन का महत्व समझ कर गौपालन व्यवसाय को उपयोगी बनाकर गौधन को आश्रय देना होगा। ‘गोपाष्टमी’ के अवसर पर गाय के प्रति श्रद्धा व आस्था की झलक धरातल पर भी दिखनी चाहिए। मिलावटखोरी से निजात पाने के लिए स्वदेशी गौपालन को महत्त्व देना होगा।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
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