तख्तापलट के साए में वैश्विक लोकतंत्र
अराजकता, आतंकवाद, अलगाववाद, कट्टरवाद व चरमपंथ के माहौल में विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में यदि न्यायसंगत व्यवस्था लोकतंत्र कायम है, तो इसका श्रेय ‘स्वयं से पहले राष्ट्र’ के सिद्धांत पर काम करने वाली भारतीय सेना को जाता है…
‘तख्तापलट’, यह लफ्ज सुनने में ही खौफनाक है, लेकिन भारत के हमसाया मुल्कों सहित विश्व के कई देश तख्तापलट का सामना कर चुके हैं तथा सिलसिला बदस्तूर जारी है। तख्तापलट यानी लोगों द्वारा चुनी गई संवैधानिक सरकार तथा संविधान दोनों को सैन्य बलों या बगावती गुटों द्वारा उखाड़ फैंकना। तख्तापलट के बाद मानवाधिकारों की कोई गारंटी नहीं रहती। बंदूकों की हुकूमत के साए में धर्मनिरपेक्षता, शिष्टाचार व नैतिकता जैसे अल्फाज अपनी आबरू बचाने को मजबूर हो जाते हैं। स्मरण रहे लोगों के वोट से चुने गए सियासी हुक्मरान तथा बम, बंदूक व बारूद की असकरी तरबियत से निकले सैन्य तानाशाह की विचारधारा में बहुत अंतर होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा तानाशाही के निजाम में जमीन-आसमान का फर्क होता है। तानाशाही के निजाम में संसद का शोर खामोशी में तब्दील हो जाता है। भारत के पड़ोसी मुल्कों ईरान, चीन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, म्यांमार व बांग्लादेश में जम्हूरियत का दम घुट चुका है। लोकतंत्र अपना वजूद तलाश रहा है। भू-माफिया चीन, तिब्बत पर कब्जा कर चुका है। भूटान भारतीय सेना के रहमोकरम से सुरक्षित है। कुछ वर्षों से नेपाल व श्रीलंका में वहां के सियासी दल स्थिर सरकार बनाने में नाकाम रहे हैं। वल्र्ड बैंक के मुताबिक जहां लोग गुरबत, महंगाई व भुखमरी जैसी बुनियादी चीजों से बेहाल हों तथा जिन मुल्कों में मानव विकास सूचकांक काफी कम हो, वहां तख्तापलट की घटनाएं ज्यादा होती हैं। मगर कई मुल्कों में सैन्य जरनैलों की सत्ता हथियाने की सनक ही तख्तापलट का सबब बनी है। तख्तापलट में सबसे रोचक इतिहास पाकिस्तान का है। पाक सैन्य तानाशाहों ने अपने मुल्क के किसी भी वजीरे आजम का कार्यकाल मुकम्मल नहीं होने दिया। म्यांमार के जरनैल ‘ने विन’ मार्च 1962 में अपने मुल्क में तख्तापलट का पहला मजमून लिखकर 26 वर्षों तक सत्ता पर काबिज हो गए थे।
म्यांमार की सेना ने अपनी स्टेट काउंसलर व ‘नोबल शांति पुरस्कार विजेता’ ‘आंग सान सू की’ तथा राष्ट्रपति ‘विन मिंट’ को फरवरी 2021 में सलाखों के पीछे भेजकर अपनी फौजी हुकूमत नाफिज कर दी है। पड़ोसी मुल्क वियतमान के जनरल ‘डोंग वान मिन्ह’ ने नवंबर 1963 में अपने मुल्क में तख्तापलट को अंजाम देकर स्टेट काउंसलर ‘न्गो दीन्ह न्हू’ व उनके भाई को हलाक करके सत्ता पर कब्जा कर लिया था। हालांकि बाद में डोंग वान मिन्ह को भी अमेरिका में शरण लेनी पड़ी थी। हिंदोस्तान की खैरात पर पलने वाले बांग्लादेश की सेना ने सन् 1975 में अपने राष्ट्रपति ‘शेख मुजीबुर्रहमान’ का कत्ल करके तख्तापलट की संगे बुनियाद रख दी थी। सिलसिला बदस्तूर जारी है। चरमपंथ की परवरिश व कट्टरवाद की तालीम वाले मजहबी रहनुमां भी जम्हूरी निजाम में अकीदा नहीं रखते। तख्तापलट की लंबी दास्तान वाले अफगानिस्तान के अंतिम शासक ‘राजा मोहम्मद जहीर शाह’ के दौरे हुकूमत को अफगानों का स्वर्णिम काल कहा जाता है। सन् 1953 में अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री बने ‘मोहम्मद दाउद खान’ को राजा जहीर शाह ने सन् 1963 में बर्खास्त कर दिया था। काबुल के कोर कमांडर रहे ‘मोहम्मद दाऊद खान’ ने जुलाई 1973 को उसी ‘राजा जहीर शाह’ का तख्तापलट करके राजशाही का सूर्यास्त कर दिया तथा अफगान गणराज्य के पहले राष्ट्रपति बन गए थे। राजा जहीर शाह को 29 वर्षों तक इटली में शरण लेनी पड़ी थी। मगर अफगान कम्युनिस्ट रहनुमां ‘नूर मोहम्मद तराकी’ ने मुजाहिद्दीनों की कयादत में अप्रैल 1978 को मोहम्मद दाउद खान का कत्ल कर दिया तथा खुद अफगान सदर के पद पर काबिज हो गए। 1980 के दशक में चौथे अफगान सदर ‘बरबक करमाल’ ने चरमपंथी गुटों के खौफ से चेक गणराज्य व चेकोस्लोवाकिया तथा सोवियत संघ जैसे मुल्कों में शरण ली थी। सन् 1992 में गुरिल्ला कमांडर ‘अहमद शाह मसूद’ ने मुजाहिद्दीनों की कमान में काबुल पर हमला करके अफगान राष्ट्रपति नजीबुल्लाह का तख्तापलट कर दिया था। काबुल के ‘संयुक्त राष्ट्र परिसर’ में शरण ले चुके साबिक सदर नजीबुल्लाह तथा उनके भाई को तालिबानियों ने 27 सितंबर 1996 को हलाक करके उनकी लाशों को टै्रफिक लाइट के खंबे से लटका दिया था। अमेरिका व सोवियत संघ जैसे ताकतवर मुल्कों की सेनाएं भी अफगान मुजाहिद्दीनों से निपटने में नाकाम रहीं, नतीजतन तालिबान ने काबुल पर कब्जा करके अपना कट्टरपंथी निजाम नाफिज कर दिया। सन् 2021 में अफगान सदर ‘अशरफ गनी’ ने अपना मुल्क छोडक़र ‘यूएई’ में शरण ली। अगस्त 2024 को बांग्लादेश की सत्ता से बेदखल हुई वजीरे आजम शेख हसीना को भारत ने शरण दी है। नौ दिसंबर 2024 को विद्रोही गुटों ने सीरिया की सत्ता पर कब्जा करके ‘असद’ परिवार की पांच दशकों की हुकूमत का सूर्यास्त कर दिया। राष्ट्रपति बशर अल-असद ने रूस में शरण ली है।
सियासी अंतर्कलह, नीतिगत गतिरोध व कमजोर अर्थव्यवस्था भी मुल्क में बगावत का सबब बनती है। आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका की आवाम ने सन् 2022 में अपनी सरकार के खिलाफ जोरदार बगावत कर दी थी। श्रीलंका की सेना के पूर्व कर्नल तथा राष्ट्रपति ‘गोटाबाया राजपक्षे’ को सिंगापुर में शरण लेनी पड़ी। लोकतंत्र में यदि सियासी लीडरशिप कमजोर होगी तो विदेशी ताकतों का हस्तक्षेप बढ़ जाता है। विदेशी खुफिया एजेंसियां चरमपंथी व अलगाववादी गुटों की पूरी हिमायत करती हैं। यही तख्तापलट का सबब बनता है। अत: राष्ट्रहित के फैसलों में मजबूत इच्छाशक्ति होनी चाहिए। बहरहाल अराजकता, आतंकवाद, अलगाववाद, कट्टरवाद व चरमपंथ के माहौल में विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में यदि न्यायसंगत व्यवस्था लोकतंत्र कायम है, तो इसका श्रेय ‘स्वयं से पहले राष्ट्र’ के सिद्धांत पर काम करने वाली भारतीय सेना को जाता है। लोकप्रिय शासन व्यवस्था लोकतंत्र को महफूज रखने वाले सैन्य बलों का इकबाल हमेशा बुलंद रहना चाहिए। हथियारों के बल पर तख्तापलट करके सत्ता पर कब्जा करने का प्रचलन जम्हूरियत के वजूद पर खतरे की अलामत है।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
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