अंबेडकर और कांग्रेस

कांग्रेस ने अंबेडकर के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया, इसे जानने के लिए अंबेडकर की पत्नी डा. सविता अंबेडकर की आत्मकथा जरूर पढऩी चाहिए…
कांग्रेस और अंबेडकर का वैचारिक स्तर पर आपस में क्या संबंध है, इसको लेकर पिछले कुछ दिनों से चर्चा तेज होती जा रही है। दरअसल कुछ दिन पहले गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि कुछ लोग दिन-रात अंबेडकर की माला जपते रहते हैं, यदि वे उतनी माला अपने इष्ट देव की जपते तो शायद तर जाते। तर जाते यानी उनकी वह इच्छा पूरी हो जाती जिसके लिए वह माला जप रहे हैं। भारतीय राजनीति को गहराई से देखने वाले यह समझ ही सकते हैं कि आजकल अंबेडकर की माला जपने में सबसे आगे कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी ही है। लेकिन दोनों का ही अंबेडकर के चिंतन से कुछ लेना-देना नहीं है। सबसे पहले कांग्रेस की ही बात की जाए। जिन दिनों अंग्रेजों की सरकार थी और कांग्रेस आजादी के लिए लड़ रही थी तो अंबेडकर ने कांग्रेस का व्यावहारिक व सैद्धांतिक रूप से अध्ययन करने के बाद कहा था कि मुझे लग रहा है कि कांग्रेस केवल सत्ता प्राप्ति के लिए लड़ रही है। आज एक शताब्दी से भी ज्यादा समय निकल जाने के बाद कांग्रेस किसी वैचारिक अनुष्ठान के लिए नहीं, बल्कि महज सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष करती प्रतीत हो रही है। लेकिन क्या इसे संयोग कहा जाए कि इसके लिए वह उसी अंबेडकर की माला जप रही है, जिसे उसने कभी अंग्रेजों का एजेंट तक कहा था। कांग्रेस के सबसे बड़े नेता पंडित जवाहर लाल नेहरु, जिनके साथ आज का सोनिया गांधी परिवार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपना संबंध जोड़ रहा है, ने 26 जनवरी 1946 को राजकुमारी अमृत कौर को एक पत्र में लिखा था कि अंबेडकर तो ब्रिटिश सरकार का आदमी था। नेहरु का बस चलता तो शायद अंबेडकर संविधान सभा के सदस्य भी न हो पाते।
यह तो पश्चिमी बंगाल के कुछ लोगों का प्रयास था कि अंबेडकर संविधान सभा में पहुंच पाए। सभी जानते हैं कि नेहरु किसी यूरोप के गोरे को भारतीय संविधान लिखने का ‘महान दायित्व’ देने वाले थे। महात्मा गांधी जी की दखलअंदाजी से अंबेडकर को प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। लोकसभा के पहले चुनाव से पूर्व जो मंत्रिमंडल नेहरु के नेतृत्व में बना था, उसका कारण कांग्रेस की सदाशयता नहीं थी, बल्कि लोकसभा के गठन से पूर्व किसी एक पार्टी का मंत्रिमंडल नहीं होना चाहिए, बल्कि राष्ट्रीय मंत्रिमंडल होना चाहिए, यह सैद्धांतिक निर्णय था। इस मंत्रिमंडल में हिंदु महासभा के अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अकाली दल के बलदेव सिंह भी थे। कांग्रेस का सारा जोर इनको किस तरह से मंत्रिमंडल से निकाला जाए, इन षड्यंत्रों में लगा रहता था। कांग्रेस ने अंबेडकर को अपमानित करने में हर तरीका इस्तेमाल किया। अंबेडकर ने नेहरु के व्यवहार एवं समाज विरोधी नीतियों के चलते उनके मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दिया था, यह भारतीय इतिहास का सामान्य छात्र भी जानता है। लेकिन पंडित नेहरु इसकी सूचना हजारों मील दूर लंदन में लार्ड माऊंटबेटन की पत्नी को एक लंबी चि_ी में लिखते हुए बताते हैं कि मैंने उसे अपने मंत्रिमंडल से निकाल दिया है। कांग्रेस इतना तो जानती है कि ‘त्यागपत्र देने’ और ‘निकालने’ में बहुत फर्क होता है। लेकिन इससे एक प्रश्न और पैदा होता है कि नेहरु देश की भीतरी राजनीति की खबरें माऊंटबेटन की पत्नी को क्यों दे रहे थे? अंग्रेजों के आदमी आखिर कौन थे? अंबेडकर ने संस्कृत गंथों का गहन अध्ययन कर हिंदु कोड बिल तैयार किया था। उसको लेकर बहुत विवाद हुआ था। अंबेडकर का कहना था कि इन चार बिलों के सभी प्रावधान भारत के प्राचीन ग्रंथों में से ही लिए गए हैं। वे उन ग्रंथों के उद्धरण भी बता रहे थे। वैचारिक स्तर पर कांग्रेस भी हिंदु कोड बिल से सहमत थी। लेकिन कांग्रेस ने उसे संविधान सभा में पारित नहीं होने दिया। तकनीकी आधारों पर उसे लटकाए रखा। इसी विवाद के चलते अंबेडकर ने विधि मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया था।
लेकिन अंबेडकर के हटने के बाद कांग्रेस ने इसे पहली लोकसभा में ही पारित करवा दिया। उसका मूल कारण एक ही था कि हिंदु कोड बिल का श्रेय कहीं अंबेडकर को न मिल जाए। इसका श्रेय नेहरु स्वयं लेना चाहते थे। अंबेडकर के प्रति कांग्रेस का इतना विद्वेष था कि कांग्रेस ने पक्का इंतजाम कर रखा था कि किसी तरीके से अंबेडकर लोकसभा में जीत कर आ न सकें। और कांग्रेस ने सचमुच अंबेडकर को पहले लोकसभा चुनाव में हरा कर ही दम लिया। अंबेडकर अपने अंतिम दिनों में ‘बुद्ध और उनका धर्म’ किताब लिख रहे थे। उन्होंने पंडित नेहरु को पत्र लिखा कि यदि सरकार पुस्तक प्रकाशित होने के बाद इसकी कुछ प्रतियां खरीद लेगी तो पुस्तक के प्रसार में सहायता होगी और आर्थिक सहायता भी हो जाएगी। जब सरकार अपने विज्ञापनों के लिए लाखों रुपया बर्बाद कर रही थी, तब नेहरु कुछ हजार रुपए की अंबेडकर की पुस्तक को खरीदने के लिए तैयार नहीं थे। कांग्रेस ने अंबेडकर के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया, इसे जानने के लिए अंबेडकर की पत्नी डा. सविता अंबेडकर की आत्मकथा जरूर पढऩी चाहिए। अंबेडकर का कांग्रेस से राजनीतिक विरोध नहीं था, बल्कि उसके विरोध की जड़ दोनों का सैद्धांतिक विरोध था। ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारत में स्वतंत्रता आंदोलन को तोडऩे और भारत की अलग-अलग बिरादरियों में फूट डालने के लिए ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ की कल्पना की थी। पंडित नेहरु ने इस सिद्धांत को हाथों हाथ उठा लिया और उसके प्रसार के लिए अपनी किताबों में उसका जिक्र करना भी शुरू कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को भी पत्र लिख-लिख कर यह सिद्धांत पढ़ाना शुरू कर दिया। बाबा साहिब भीमराव रामजी अंबेडकर ने इस सिद्धांत का विरोध ही नहीं किया बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के इस षड्यंत्र का पर्दाफाश करने के लिए अलग से एक पुस्तक लिखी। जबकि राजनीतिक नफा-नुकसान की बात की जाए तो अंबेडकर के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का यह सिद्धांत लाभदायक था। लेकिन अंबेडकर अपने राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए राष्ट्रीय एकता को खंडित करने के लिए तैयार नहीं थे। अंबेडकर का एक दूसरे सैद्धांतिक धरातल पर भी कांग्रेस से घनघोर विरोध था। कांग्रेस ने देश में मुस्लिम तुष्टीकरण का रास्ता पकड़ लिया था। अंबेडकर जानते थे कि इससे अंतत: देश को नुकसान होगा। दरअसल उस वक्त देश में मुसलमान का अभिप्राय एटीएम मूल के मुसलमानों से ही था जिनकी जनसंख्या देश में पांच प्रतिशत से भी कम थी। हिंदुस्तान के देशी मुसलमान तो एटीएम ने एक प्रकार से बंधुआ बनाकर रखे हुए थे। लेकिन कांग्रेस अरब मूल के सैयद मौलाना आजाद और अली बंधुओं को आगे कर देसी मुसलमानों को उनका नेतृत्व स्वीकारने के लिए विवश कर रही थी।
कांग्रेस को शायद सत्ता प्राप्ति का लालच था। अंबेडकर ने एक जगह इसका जिक्र भी किया है। अंग्रेज शासक जल्दी ही एटीएम की महत्ता को समझ गए। उन्होंने जल्दी ही एटीएम को सत्ता का झुनझुना दिखा कर अपने खेमे में शामिल कर लिया। इतना ही नहीं, रणनीति में अंग्रेज तो कांग्रेस के भी बाप सिद्ध हुए। उन्होंने एटीएम को मना लिया कि वे कुछ देर के लिए आगे की बजाय पीछे चलें ताकि नेतृत्व के लिए किसी देसी मुसलमान को तैयार किया जा सके। मोहम्मद अली जिन्ना इस रणनीति में से तैयार हुआ था। पहले जिन्ना कांग्रेस के साथ ही था, लेकिन जब उसने देखा कि कांग्रेस देसी मुसलमान, जिनकी संख्या 95 फीसदी से भी अधिक है, की अवहेलना करके दो-तीन प्रतिशत विदेशी एटीएम मूल के मुसलमानों के हाथों में खेल रही है और उन्हीं की सलाह पर मुसलमान तुष्टीकरण की नीतियां बना रही है, तो उसने कांग्रेस का पल्ला छोड़ दिया। बहरहाल, कांग्रेस को अपने इतिहास में झांक कर अपना इष्टदेव ढूंढ लेना चाहिए। लेकिन इसमें शायद एक बाधा है। क्या आज की कांग्रेस यानी एसआरपी (सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका बाड्रा) का भारत की कांग्रेस से कोई ऐतिहासिक संबंध है भी या नहीं?
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल: Ñkuldeepagnihotri@gmail.com
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