पाकिस्तान के नक्शेकदम पर बांग्लादेश

अब प्रश्न उठ रहा है कि हजारों भारतीय सैनिकों के बलिदान की बुनियाद पर वजूद में आए बांग्लादेश को क्या बांग्ला हुक्मरानों को सौंपने का भारत का फैसला सही था? पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलने वाले एहसान फरामोश बांग्लादेश को उसकी औकात दिखानी होगी…

‘कातिल की ये दलील भी मुंसिफ ने मान ली, मक्तूल खुद गिरा था खंजर की नोक पे’। बांग्लादेश की मौजूदा हुकूमत के सामने वहां के अल्पसंख्यक समुदाय पर हो रहा तशद्दुद व हिंसा का खौफनाक मंजर कुछ यही बयान कर रहा है। जाहिर है जब कातिल खुद ही अदालत का मुंसिफ होगा तो उसके एब ओ हुनर की तफ्तीश नहीं हो सकती। पाक सैन्य हुक्मरानों के जहन में बांग्ला लोगों के प्रति नफरत व हिकारत इस कदर थी कि पाक जरनैल ‘अयूब खान’ ने अक्तूबर 1958 को पाकिस्तान में तख्तापलट का पहला मजमून लिखकर बंगाली मूल के राष्ट्रपति ‘इस्कंदर अली मिर्जा’ को बर्खास्त करके पाकिस्तान छोडऩे का फरमान जारी कर दिया था। बर्तानिया में शरण लेने के बाद 12 नवंबर 1969 को लंदन में फौत हुए ‘इस्कंदर अली मिर्जा’ की मयत को पाकिस्तान में दफनाने की इजाजत भी नहीं मिली। काफी जद्दोजहद के बाद साबिक सद्रे पाक इस्कंदर मिर्जा के ताबूत को पड़ोसी मुल्क ‘ईरान’ में कब्र नसीब हुई थी। अपनी आजादी के प्रति भी बांग्लादेशियों के दोहरे मापदंड थे। पाक सेना की बर्बरता का शिकार हुए पूर्वी पाक के सियासी रहनुमा भारतीय सेना के रहमोकरम से आजाद होकर अपना बांग्ला निजाम नाफिज करना चाहते थे। मगर बांग्लादेश की कुछ सियासी जमातें व मजहबी रहनुमां आजाद होकर मानसिक व जज्बाती तौर पर पाकिस्तान के साथ ही रहना चाहते थे। मार्च 1971 में बांग्ला आवाम पर पाक सेना की दरिंदगी के बदनुमां दाग बांग्लादेश में आज भी मौजूद हैं।

बांग्लादेश की महिलाओं के साथ पाक सेना ने जो बर्बरता का सलूक किया था, उस शर्मनाक कारकर्दगी को लफ्जों में बयान नहीं किया जा सकता। पाक सेना की हलाकत से बचने के लिए लाखों बांग्ला लोगों ने हिजरत करके भारत के सरहदी राज्यों में शरण ली थी। इनसानियत का कत्ल तब होता है, जब पीडि़त को उठाने के बजाय लोग तमाशा देखने लगें। सन् 1971 में भी यही हुआ। पूर्वी पाक की कत्लोगारत का मुद्दा भारत ने कई मुल्कों के समक्ष उठाया। लेकिन बांग्ला लोगों को पाकिस्तान के जुल्मोसितम से बचाने व शरण देने की जहमत किसी भी मुल्क ने नहीं उठाई। जगजाहिर है कि भारतीय सेना के जोरदार पलटवार से बेबस होकर पाक सेना ने 16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाक में आत्मसमर्पण कर दिया। भारतीय सेना ने पूर्वी पाक को नए मुल्क बांग्लादेश में तब्दील कर दिया था। मगर बांग्लादेश के मजहबी रहनुमां अपनी आजादी का श्रेय भारत के बजाय अपनी मुक्ति वाहिनी को दे रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि मुक्ति वाहिनी को हथियार उपलब्ध कराकर भारतीय सेना ने ही प्रशिक्षित किया था। बांग्लादेश की चरमपंथी जमातें व मजहबी रहनुमां पाकिस्तान के इशारे पर भारत के खिलाफ जहर उगल रहे हैं। अलबत्ता यहां ‘अगरतला षड्यंत्र’ का जिक्र करना जरूरी है। बांग्लादेश की सत्ता से बेदखल होकर भारत में शरण ले चुकी साबिक वजीरे आजम शेख हसीना के वालिद शेख मुजीबुर्रमान को अगरतला षड्यंत्र का हवाला देकर पाक सेना ने मई 1968 में कैद कर लिया था। पाक सदर ‘अयूब खान’ के दौरे हुकूमत में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किए गए कई बांग्ला नागरिकों व पाक नौसेना के बंगाली मूल के अधिकारियों पर इल्जाम था कि उन लोगों ने पूर्वी पाकिस्तान की आजादी के लिए ‘त्रिपुरा’ राज्य की राजधानी ‘अगरतला’ में हिंदोस्तान से समर्थन की गुजारिश की थी। अगरतला साजिश को पाक हुकूमत ने पूर्वी पाक के वजूद के लिए खतरनाक चुनौती माना था। अगरतला षड्यंत्र को बेनकाब करने का खुलासा पूर्वी में तैनात ‘आईएसआई’ के कर्नल ‘शम्सुल आलम’ ने किया था।

शम्सुल आलम को पाक सेना ने शांतिकाल के सर्वोच्च पदक ‘सितारा-ए-बसालत’ से सरफराज किया था। हालांकि अदालत में शेख मुजीब पर अगरतला षड्यंत्र के तहत पाकिस्तान को अस्थिर करने का आरोप साबित नहीं हुआ था, मगर पाक सेना ने 15 फरवरी 1969 को अगरतला साजिश के आरोपी बांग्ला सार्जेंट ‘जहूरूल हक’ को जेल में ही हलाक कर दिया था। जहूरूल हक के कत्ल की खबर से पूर्वी पाक भयंकर हिंसा की चपेट में आ गया। नतीजतन भारत की दखलअंदाजी के खौफ से अयूब खान ने अगरतला षड्यंत्र का केस रद्द कर दिया। ढाका विश्वविद्यालय का एक हॉस्टल उसी जहूरूल हक के नाम से जाना जाता है। मगर बांग्लादेश के हुक्मरान तथा मजहबी रहनुमां पाकिस्तान की जिहादी उल्फत में इस कदर नाबिना हो चुके हैं कि सन् 1971 में पाक सेना द्वारा की गई कत्लोगारत को नजरअंदाज कर रहे हैं। सूरतेहाल यह है कि बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की तमाम निशानियों को मिटाया जा रहा है। बांग्ला मुक्ति संग्राम में युद्धघोष बना ‘जॉय बांग्ला’ नारे को भी हटाया जा रहा है। अविभाजित भारत में सन् 1922 में बांग्ला शायर काजी नजरूल द्वारा अपनी नज्म में लिखा गया ‘जॉय बांग्ला’ बांग्लादेश का कौमी नारा है। सन् 1975 में जब बांग्लादेश की सेना ने शेख मुजीबुर्रहमान का कत्ल किया तो उस वक्त जर्मन संघीय चांसलर ‘विली ग्रांट’ ने जज्बाती अंदाज में कहा था कि मुजीब को हलाक करने वाले कोई भी जघन्य कार्य कर सकते हैं। अत: बांग्लादेश के लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। बहरहाल बांग्लादेश की आजादी के लिए भारत के शूरवीरों ने मैदान-ए-हर्ब को अपने कल्ब-ए-लहू से सींच कर पाकिस्तान को तकसीम कर दिया।

भारतीय सेना दखलअंदाजी न करती तो पाकिस्तान के राजपूत जरनैल ‘टिक्का खान’ व ‘राव फरमान अली’ का बांग्लादेश में नरसंहार जिसका कोड ‘बांग्ला हरियाली को लाल कर देंगे’ था, वो मुकम्मल हो जाता। काश! मोहम्मद अली जिन्ना व इस्कंदर अली मिर्जा भी पाकिस्तान की तकसीम को अपनी चश्म-ए-पलक से देख पाते। अब प्रश्न उठ रहा है कि हजारों भारतीय सैनिकों के बलिदान की बुनियाद पर वजूद में आए बांग्लादेश को क्या बांग्ला हुक्मरानों को सौंपने का भारत का फैसला सही था? पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलने वाले एहसान फरामोश बांग्लादेश को उसकी औकात दिखानी होगी। वहां हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार रोकने होंगे।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App or iOS App