सियासत में सैन्य भागीदारी पर उदासीनता

सरहदों से लेकर जम्हूरियत की पंचायतों तक अहम किरदार निभाने वाला सैन्य समाज मुल्क के जम्हूरी निजाम में बदलाव की पूरी सलाहियत रखता है। अत: रक्षा क्षेत्र की नीतियों को अमल में लाने से पहले सामरिक क्षेत्रों के अनुभवी पूर्व सैनिकों से सलाह-मश्विरा होना चाहिए…

पंद्रह जनवरी 1949 को ब्रिटिश सैन्य अधिकारी जनरल ‘सर फ्रांसिस रॉय बुचर’ से जनरल ‘केएम करियप्पा’ ने भारतीय सेना की कमान संभाली थी। अत: इस दिन को ‘सेना दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। जनरल करियप्पा 14 जनवरी 1953 को सेना से सेवानिवृत्त हुए थे। इसलिए 14 जनवरी का दिन ‘आम्र्ड फोर्सेज वेटरन डे’ के रूप में मनाया जाता है। विश्व की चौथी ताकतवर भारतीय सेना का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है। विश्व के कई मुल्क अराजकता व आतंकवाद की जद में आ चुके हैं। यदि आतंक की हिमायत करने वाले मुल्कों से घिरे भारत की सरहदें सुरक्षित हैं, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था, संविधान, न्यायिक व्यवस्था, लोकतंत्र के स्तम्भ व जम्हूरियत के नाम पर हुक्मरानी करने वाले सियासी रहनुमा महफूज हैं तो इसका श्रेय कड़े अनुशासन के लिए विख्यात भारतीय सेना को जाता है। चूंकि राष्ट्रीय सुरक्षा में हरदम मुस्तैद रहने वाली भारतीय सेना सियासत व संवैधानिक संस्थाओं में दखलअंदाजी नहीं करती। दहशतगर्दी की दारुल हुकूमत पाकिस्तान से सटे जम्मू कश्मीर में यदि पत्थरबाजी की घटनाएं शून्य हुई हैं तथा आतंक का खौफनाक माहौल काफी हद तक शांत होकर सूबे में जम्हूरी निजाम नाफिज हुआ है तो इस अमन-चैन को कायम करने में देश के हजारों शूरवीर सैनिक अपना सर्वस्व न्योछावर कर चुके हैं।

पाकिस्तान प्रायोजित छद्म युद्ध सबसे ज्वलंत मुद्दा है। आतंकियों को फना करके हमारे सैनिक बलिदान हो रहे हैं। पाकिस्तान, नेपाल व भू-माफिया चीन जैसे मुल्कों के साथ भारत का सरहदी तनाजा चल रहा है। भारत के पूर्वोत्तर में बांग्लादेश एक चुनौती बनकर उभर चुका है। म्यांमार की सरहद से रोंहिग्या की घुसपैठ मुसीबत का सबब बन चुकी है। मुल्क के सियासी रहनुमा अपनी जाति, मजहब की पुरजोर हिमायत करते हैं। लेकिन सैन्य शहादतें व रक्षा क्षेत्र से जुड़े संवेदनशील मुद्दे संसद में चर्चा का मरकज नहीं बनते। इसका कारण जम्हूरियत के हुजरों में बैठकर जाति, मजहब व क्षेत्रवाद की सियासी तस्वीह घुमाने वाले मुल्क के रहबर सामरिक क्षेत्र की जमीनी हकीकत से नावाकिफ होते हैं। इसीलिए जम्हूरियत की पंचायतों में आतंकवाद व मुल्क की सरहदों से जुड़े मुद्दों की आवाज नहीं सुनाई देती। सैन्य शौर्य का श्रेय लेने के प्रयास जरूर होते हैं, मगर सैन्य शहादतों की अहमियत नहीं समझी जाती। नतीजतन मैदान-ए-हर्ब में दुश्मन को धूल चटाकर अदम्य साहस के शिलालेख लिखने वाली भारतीय सेना को सियासी मुजाकरात के टेबलों पर शिकस्त का सामना करना पड़ा है। ‘ओआरओपी’ के लिए पूर्व सैनिकों को चार दशकों तक जंतर-मंतर पर आंदोलन करना पड़ा। कला, साहित्य व समाज सेवा के क्षेत्र का व्यावहारिक अनुभव रखने वाले बारह सदस्य देश के राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा के लिए मनोनीत किए जाते हैं। मायानगरी के अदाकार, उद्योगपति व कई खिलाड़ी भी राष्ट्रपति द्वारा चुने जाते हैं। लेकिन मोहिब्बे वतन के जज्बात रखने वाले पूर्व सैनिकों को इस फेहरिस्त में शामिल नहीं किया जाता। राष्ट्र व लोकतंत्र की हिफाजत के लिए अपना पूरा यौवन समर्पित करने वाले पूर्व सैनिकों की सियासी निजाम में भी भागीदारी सुनिश्चित नहीं हुई। हालांकि मैदाने जंग में दुश्मन को फना करके फतह हासिल करने वाले कई पूर्व सैनिकों ने जम्हूरियत की जंग में भी हाथ आजमा कर इंतेखाब में जीत हासिल करके अपने सियासी नेतृत्व से लोगों को प्रभावित किया है। मेजर जनरल बीएस खंडूरी, कैप्टन अमरेंद्र सिंह, बेअंत सिंह, बीजू पटनायक व एन. बीरेन सिंह जैसे पूर्व सैनिकों ने मुख्यमंत्री के तौर पर खुद को लोकतांत्रिक व्यवस्था का काबिल हुक्मरान साबित किया है।

कई पूर्व सैनिक प्रशासनिक सेवाओं व शिक्षा क्षेत्र तथा राज्यपाल के तौर पर अपनी अनुशासित कार्यशैली से ड्यूटी निभा रहे हैं। यदि वीरभूमि हिमाचल के सैन्य शौर्य का जिक्र न किया जाए तो भारतीय सैन्य इतिहास अधूरा रह जाएगा। हिमाचल प्रदेश के प्रथम उप राज्यपाल ‘हिम्मत सिंह’ तथा छठे उप राज्यपाल ‘कंवर बहादुर सिंह’ दोनों जरनैल भी पूर्व सैनिक थे। सशस्त्र बलों में हिमाचल की अहम भूमिका व मजबूत सैन्य परंपरा रही है। सूबे के सियासी रहनुमाओं को सत्ता के फलक तक पहुंचाने में भी पूर्व सैनिकों व सैन्य परिवारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। हिमाचल प्रदेश के सैन्य भर्ती कोटे में बढ़ोतरी का मुद्दा राज्य के लाखों युवाओं के भविष्य से जुड़ा है। युवाओं को एक वर्ष में सैन्य भर्ती के ज्यादा अवसर मिलने चाहिए। राज्य में सैनिक स्कूलों की संख्या में इजाफा होना चाहिए। राज्य के कई पूर्व सैनिकों का सियासी सफर भी काबिले तारीफ रहा है। मेजर जनरल विक्रम सिंह, मेजर विजय सिंह मनकोटिया, कर्नल इंद्र सिंह, महेंद्र सिंह ठाकुर व विक्रम जरियाल जैसे पूर्व सैनिक सूबे की सियासत के प्रतिष्ठित चेहरे रहे हैं। मौजूदा सरकार में कैबिनेट मंत्री कर्नल धनी राम शांडिल व विधायक रंजीत सिंह का संबंध डोगरा रेजिमेंट से है।

सांसद सुरेश कश्यप भी पूर्व सैनिक हैं। लाजिमी है हिमाचल के हितों से जुड़े सैन्य मुद्दों की पैरवी पूरी शिद्दत से होनी चाहिए ताकि मरकजी हुकूमत का ध्यान वीरभूमि के सैन्य बलिदान की तरफ आकर्षित हो सके। राज्य के अतंरराष्ट्रीय व ओलंपियन रहे पूर्व सैनिकों, विक्टोरिया क्रॉस, परमवीर चक्र, महावीर चक्र व अशोक चक्र जैसे आलातरीन सैन्य पदक विजेताओं तथा आजाद हिंद फौज के सैनिकों की जीवनी यदि शिक्षा पाठ्यक्रम का हिस्सा बने तो छात्र वर्ग को यकीनन प्रेरणा मिलेगी। मुल्क की हशमत के लिए फिदा-ए-वतन हो चुके रणबांकुरों की शूरवीरता व त्याग को सम्मान देने के लिए हर जिले में युद्ध स्मारक तामीर होने चाहिए। बहरहाल सरहदों से लेकर जम्हूरियत की पंचायतों तक अहम किरदार निभाने वाला सैन्य समाज मुल्क के जम्हूरी निजाम में बदलाव की पूरी सलाहियत रखता है। अत: रक्षा क्षेत्र की नीतियों को अमल में लाने से पहले सामरिक क्षेत्रों के अनुभवी पूर्व सैनिकों से सलाह मश्विरा होना चाहिए। राष्ट्रहित में सैन्य हितों व सामरिक विषयों की पैरवी के लिए सियासी निजाम में सेवानिवृत्त सैनिकों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। और, सेना दिवस की शुभकामनाएं।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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