विकास में नियोजन
अंतत: लैंड पूलिंग के जरिए हिमाचल शहरी विकास का खाका बीबीएन की जमीन पर उतर कर एक, आश्वासन दे रहा है। यहां भू संपत्ति के मालिक पूलिंग समझौते के तहत न केवल शहरी विकास के रेखांकन में अव्वल होंगे, बल्कि इससे एक व्यवस्थित बीबीएन का मानचित्र भी बनेगा। भले ही टीसीपी कानून की शर्तों में ऐसे उपाय शुरुआत में ही कर लेने चाहिए थे, लेकिन देरी से सही एक राह तो सामने आई। बीबीएन अब तक औद्योगिक प्रसार का डेस्टिनेशन बना रहा, जबकि यह एक महानगर के अवतार की क्षमता की संभावना रखता है। लैंड पूलिंग से भी हिमाचल की भौगोलिक परिस्थितियों को शहरी योजनाओं के सांचे में ढालना आसान हो जाएगा। जाहिर तौर पर बीबीएन के अनुभव प्रदेश के हर शहरी क्षेत्र और खास तौर पर नगर निगमों के दायरे में लागू हों, तो कई शहरों का एक तरह से पुनर्गठन होगा और सार्वजनिक जमीन के इस्तेमाल की किफायत भी होगी। अब तक का शहरी विकास केवल सरकारी जमीन की उपलब्धता या निजी भूमि की बिक्री पर ही हुआ है। देखते ही देखते हमने बेहतरीन उपजाऊ जमीन, घाटियां, खेत और पर्यावरणीय माहौल उजाड़ा है। हम विकास में नियोजन करने की संस्कृति और जवाबदेही को अपना ही नहीं सके, नतीजतन अफरातफरी में आफताब डूब गया और हमारे सामने बढ़ते अंधेरों की चुनौती है। क्योंकि हिमाचल के 55673 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में से 37033 वर्ग किलोमीटर वन भूमि है। इस तरह वन भूमि के तहत 68.16 प्रतिशत जमीन का होना, हमारे विकास के लिए मात्र 31 प्रतिशत क्षेत्रफल ही छोड़ता है। इतना ही नहीं, निजी व सार्वजनिक भूमि की किस्म, उस पर उगे पेड़ व भौगोलिक स्थिति के कारण कई तरह की पर्यावरणीय चुनौतियों के कारण भी हमने अपने आशियाने या व्यापार के परिसर बनाने में अधिकांश जमीन का दुरुपयोग ही किया है। हर गांव के भीतर कितने ही शहर उग रहे और शहरों ने असंख्य गांवों की आर्थिकी को समेट लिया। अब सवाल यह भी कि किसे गांव माने और कितने निर्माण को सही ठहराएं।
सही निर्माण के लिए टीसीपी की परिधि में आना ही पड़ेगा। शहर या शहर जैसी व्यवस्था हर तरह के निर्माण पर लागू हो, तो हम विकास को नियोजित करके सार्वजनिक और निजी भूमि की फिजूलखर्ची रोक पाएंगे। हिमाचल के तमाम प्रशासनिक व अन्य शहरों में सार्वजनिक भूमिका का न केवल अनावश्यक इस्तेमाल रोकना होगा, बल्कि अब तक के सरकारी निर्माण को भी व्यवस्थित करना होगा। एक कोशिश प्रेम कुमार धूमल सरकार ने की थी, जब बहुविभागीय इमारतें या मिनी सचिवालय बनने लगे, लेकिन आज भी कई विभाग आबंटित जमीन का बेहूदा इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर पुलिस व स्वास्थ्य विभाग को छोडक़र तमाम सरकारी इमारतों को एक एजेंसी के तहत पूल किया जाए, तो वित्तीय संसाधन और सार्वजनिक जमीन भी बचेगी। इसके लिए सार्वजनिक एस्टेट विकास प्राधिकरण का गठन करना होगा, जो विभागीय भवनों के इस्तेमाल और भविष्य के निर्माण को किफायती ढंग से लागू कर पाएगी। इसके लिए हर शहर और हर गांव को भूमि बैंक गठित करने होंगे। यह एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए जिसे केवल सार्वजनिक एस्टेट विकास प्राधिकरण कर सकता है। लैंड पूलिंग के मॉडल पर अगर सार्वजनिक व निजी भूमि के बीच भविष्य के सेतु सुदृढ़ हों, तो सरकार का भूमि बैंक बढ़ जाएगा। मसलन पर्वतीय परिवेश में ऐसे कई नाले या खड्डें हैं, जिनके तटीकरण से सरकारी व गैर सरकारी जमीन बढ़ेगी और अगर कारपोरेट या बंैकिंग क्षेत्र के सहयोग ऐसी परियोजनाओं में सहयोग लिया जाए, तो निर्माण की परिभाषा और अभिलाषा भी बदल जाएगी। शहरों में जल निकासी के प्राकृतिक नालों पर तटीकरण के साथ ऐसे प्लैटफार्म विकसित हो सकते हैं जहां बैंक स्क्वायर, पार्किंग स्थल तथा आफिस परिसर निर्मित हो सकते हैं। इतना ही नहीं, विकास की सीमारेखा गांव से शहर तक एक समान तय हो। अगर नए नगर निगमों की सीमारेखा में कुछ गांव आ गए हैं, तो इसके बाहर निर्माण पर तब तक पूर्ण विराम लगा देना चाहिए, जब तक टीसीपी कानून के तहत विकास परियोजना न बने। हर शहर से गांव तक की विकास परियाजना बनाने की जरूरत है और इसमें लैंड पूलिंग एक बड़ा समाधान हो सकता है।
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