कर गृहस्थ में रह संन्यासा

By: Jan 9th, 2025 12:05 am

हम यह भी मानते हैं कि गरीबी के जीवन में कोई शान नहीं है और उद्यमी होने में कहीं कोई बुराई नहीं है, बशर्ते कि हम झूठ न बोलें, किसी को गुमराह न करें, अपने काम और अपनी सेवाओं के बारे में जानबूझकर अधूरी या गलत जानकारी न दें, किसी का शोषण न करें, किसी को धोखा न दें, लेकिन गरीबी में फाके काटते हुए लोगों से दया की उम्मीद रखना सही नहीं है। बद्रिका आश्रम के संस्थापक महान संत ओम स्वामी जी के पिता को दिल का दौरा पड़ा तो ओम स्वामी के बार-बार अनुनय के बावजूद अस्पताल वालों ने उनके पिता का इलाज तब तक शुरू नहीं किया जब तक उन्हें एडवांस पैसे नहीं मिल गए। हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, वहां न तो हर कोई संत है, न हो सकता है, इसलिए यह अच्छा ही है कि हम दया के पात्र भिखारी होने के बजाय पुरुषार्थ करें और समर्थ उद्यमी बनकर अपने और समाज के विकास में योगदान करने के काबिल हो सकें…

अनंत काल से ही हमारे संतों, मुनियों, ऋषियों ने सदैव जनमानस की भलाई के लिए काम किया है। भारतीय संस्कृति और धर्म के हर ग्रंथ में दान और परोपकार की महिमा गाई गई है। हर भारतीय बच्चा दानवीर कर्ण की गाथा जानता है जिसने अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले ब्राह्मण रूप में पधारे एक याचक को अपना सोने का दांत तोड़ कर दिया ताकि उस याचक की जरूरत पूरी कर सके। कितनी सुंदर बात है कि सिख धर्म में इसे ‘दशवंध’ या ‘दसौंध’ कह कर पुकारा गया है। यानी, हर सिख को यह आदेश दिया गया है कि वह अपनी नेक कमाई का दसवां हिस्सा समाज कल्याण के लिए लगाए। इसी तरह मनुष्य के सात्विक गुणों में दया और प्रेम के भाव की महत्ता बताते हुए यह भी कहा गया है कि हमें क्रोध से बचना चाहिए। आइए, इस पर थोड़ा गहराई से विचार करते हैं। कोई व्यक्ति संन्यास ले ले और संन्यास लेकर भक्ति करने के लिए हिमालय पर चला जाए और वहीं सारा जीवन बिता दे, तो यह बहुत संभव है कि वह परमात्मा को पा ले, लेकिन क्या उस संत ने सचमुच प्रेम भाव भी विकसित कर ही लिया, लालच, ईष्र्या, घृणा और क्रोध आदि विकारों से छुटकारा पा ही लिया, कहना मुश्किल है। इसका सीधा सा कारण यह है कि जो व्यक्ति हिमालय में सुदूर कहीं रह रहा है और जनमानस से उसका संपर्क नहीं है, उसने लालच, ईष्र्या, घृणा और क्रोध आदि को जीत ही लिया, इसका कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि इसका प्रमाण तो तभी मिल सकता है जब व्यक्ति समाज में रहकर दूसरों के संपर्क में आए। जब कोई हमारी बात न माने, बार-बार समझाने पर भी हमारी बात न समझे, कोई जानबूझकर या अनजाने में हमारा अपमान कर दे, कोई हमारा बड़ा नुकसान कर दे तो हमारा क्रोधित हो जाना स्वाभाविक है।

यह भी बहुत संभव है कि ऐसे किसी व्यक्ति से हम घृणा करने लग जाएं। इसी तरह अपने से कम ज्ञान वाले किसी व्यक्ति को अचानक तरक्की करते देखकर हमें उससे ईष्र्या हो सकती है और अगर कहीं सडक़ पर हमसे आगे चलते हुए किसी व्यक्ति का बटुआ अचानक गिर जाए और हम बटुआ उठाकर उसे देने ही वाले हों, तभी हमारी निगाह बटुए के अंदर पड़े नोटों की गड्डी की तरफ जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है कि हमें लालच आ जाए और हम बटुआ चुपचाप अपनी जेब में डालकर रास्ता बदल कर किसी दूसरी तरफ निकल जाएं। स्पष्ट है कि ऐसा हो पाना तभी संभव है अगर हम दुनिया में रह रहे हों। हिमालय पर एकांतवास करने वाले किसी साधु-संत को बेईमान होने का या क्रोधित होने का अवसर ही नहीं मिलता, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि उसने लालच, ईष्र्या, घृणा और क्रोध आदि विकारों पर विजय पा ही ली है। हम घर, परिवार, दुनिया में रहकर ही लोगों के संपर्क में बने रह सकते हैं। रोजमर्रा की अपनी दुनियावी जिम्मेदारियां निभाते हुए भी जब हम लालच, ईष्र्या, घृणा और क्रोध आदि भावनाओं पर विजय पा लें, तभी हम सात्विक हैं, वरना हम एक साधारण मनुष्य मात्र हैं। दुनिया में रहते हुए अपने आसपास के लोगों के लिए और वृहत्तर समाज के भले के लिए सोचना ही हमारी आध्यात्मिकता की निशानी है। यही कारण है कि सहज संन्यास परंपरा में सभी संन्यासियों को स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वे घर में रहते हुए ही भक्ति करें, और समाज की भलाई के लिए अपना ज्ञान बांटते हुए जीवनयापन करें। मेरे गुरु जी का निर्देश है .. ‘नहीं हिमालय की जिज्ञासा, कर गृहस्थ में रह संन्यासा, ज्ञान, भक्ति तू बांट-बांट कर, दे दुनिया को रब की आसा।’ जिसका भावार्थ है कि संत बनने के लिए हिमालय पर जाना आवश्यक नहीं है, इसके बजाय गृहस्थ में रहते हुए ही संन्यासी जीवन व्यतीत करना चाहिए, ताकि दुनिया में रहते हुए हम अपना ज्ञान और अपनी भक्ति का प्रसाद लोगों में बांट सकें और उन्हें परमात्मा की राह पर लगा कर उनमें आशा का दीप जला सकें। हमारे युग के महान ऋषि स्वामी विवेकानंद अपने गैर-परंपरागत विचारों के कारण इसी धारा के अग्रणी ध्वजवाहक रहे हैं। संन्यास ले लेने के बावजूद उन्होंने अपने परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी नहीं छोड़ी। अपने साथी संन्यासियों की आलोचना करने पर उन्होंने सिर्फ यही कहा कि मैंने संन्यास इसलिए नहीं लिया कि मैं जन्म देने वाली अपनी मां को छोड़ दूं। सहज संन्यास परंपरा के अनुयायी हम संन्यासी लोग, गृहस्थ जीवन में रहते हुए संन्यासी हो जाने पर भी अपना काम-धाम नहीं छोड़ते, अपने रिश्ते नहीं छोड़ते, सिर्फ अपने विकारों पर नियंत्रण के साथ सात्विक जीवन जीते हुए समाज की भलाई के लिए काम करने का प्रयास करते हैं। सहज संन्यास की परंपरा में शरीर को रोग की स्थिति तक ले जाने वाले अत्यंत कठिन व्रत-उपवास अथवा गरीबी के जीवन की अनुशंसा नहीं की जाती। सहज संन्यास परंपरा के चार स्तंभों का तो पहला स्तंभ ही ‘तन की सेवा’ है, जिसका मतलब है कि हमें अपनी सेहत का ध्यान रखने के लिए स्वास्थ्यकर जीवनपद्धति का पालन करना है। भोजन, व्यायाम, आराम और नींद के स्वस्थ समीकरण का पालन करना है क्योंकि इस शरीर के माध्यम से ही हम लोगों की सेवा कर सकते हैं।

हम खुद ही बीमार हो गए तो किसी की सेवा करने के बजाय अपाहिज व्यक्ति की तरह दूसरों पर निर्भर होकर उनकी दया के पात्र हो जाएंगे। हम यह भी मानते हैं कि गरीबी के जीवन में कोई शान नहीं है और उद्यमी होने में कहीं कोई बुराई नहीं है, बशर्ते कि हम झूठ न बोलें, किसी को गुमराह न करें, अपने काम और अपनी सेवाओं के बारे में जानबूझकर अधूरी या गलत जानकारी न दें, किसी का शोषण न करें, किसी को धोखा न दें, लेकिन गरीबी में फाके काटते हुए लोगों से दया की उम्मीद रखना सही नहीं है। बद्रिका आश्रम के संस्थापक महान संत ओम स्वामी जी के पिता को दिल का दौरा पड़ा तो ओम स्वामी के बार-बार अनुनय के बावजूद अस्पताल वालों ने उनके पिता का इलाज तब तक शुरू नहीं किया जब तक उन्हें एडवांस पैसे नहीं मिल गए। हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, वहां न तो हर कोई संत है, न हो सकता है, इसलिए यह अच्छा ही है कि हम दया के पात्र भिखारी होने के बजाय पुरुषार्थ करें और समर्थ उद्यमी बनकर अपने और समाज के विकास में योगदान करने के काबिल हो सकें। हम सहज संन्यासी यह मानते हैं कि संन्यासी होना हो तो भी गृहस्थ में रहते हुए ही संन्यास की परंपरा को निभाना है। यही कारण है कि ‘कर गृहस्थ में रह संन्यासा’ हम सहज संन्यासियों का आदर्श वाक्य है, जीवन पद्धति है।

स्पिरिचुअल हीलर

सिद्ध गुरु प्रमोद निर्वाण, गिन्नीज विश्व रिकार्ड विजेता लेखक

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com


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