दिवालियापन की ओर!

By: Jan 23rd, 2025 12:05 am

हम कई बार दोहरा चुके हैं कि देश पर करीब 200 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। चूंकि अब सरकार ने उसका ब्याज चुकाने को 10.61 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त कर्ज लिया है, तो स्थितियां स्पष्ट होने लगी हैं कि भारत सरकार पर आंतरिक कर्ज का बोझ कितना है? विदेशी कर्ज भी लाखों करोड़ रुपए में है, जिसका ब्याज चुकाने के लिए भी कर्ज मांगना पड़ रहा होगा। यह एक राष्ट्रीय यथार्थ सामने आया है। यदि कोई और आयाम है, तो भारत सरकार को स्पष्ट करना चाहिए। भारत विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और हम तीसरी बनने की ओर अग्रसर हैं। ऐसे बयान गोल-गपाड़े लगते हैं, क्योंकि असल में देश दिवालियापन की ओर बढ़ता दिखाई देता है। चूंकि हमारे जीडीपी का आकार बड़ा और व्यापक है, लिहाजा हम बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, लेकिन हम कर्जमुक्त अर्थव्यवस्था नहीं हैं। देश की सत्ता और उसके प्रवक्ता अमरीका का उदाहरण न दें कि वह भी कर्जदार देश है। दरअसल उसकी अर्थव्यवस्था 25-26 ट्रिलियन डॉलर की है। भारत से करीब 6 गुना अधिक..! भारत का बजट ही 45-50 लाख करोड़ रुपए का है और उसका चौथाई हिस्सा कर्ज का ब्याज चुकाने में खर्च हो जाए और उसके लिए भी एक और कर्ज लेना पड़े, तो कैसे माना जा सकता है कि हम बड़ी अर्थव्यवस्था के देश हैं और ‘विकसित देश’ बनने की ओर बढ़ रहे हैं? भारत अब भी विकासशील और गरीब देश है, लिहाजा 81 करोड़ लोगों को ‘मुफ्त अनाज’ बांटना पड़ रहा है। यह सबसे बड़ी ‘रेवड़ी’ है। हमने यह मुद्दा इसलिए उठाया है, क्योंकि आजकल दिल्ली चुनाव में ‘रेवडिय़ां’ बांटने और वोट उगाहने की प्रतिस्पद्र्धा जारी है। दिल्ली का बजट 76,000 करोड़ रुपए का है। यदि तमाम घोषित ‘रेवडिय़ां’ मुहैया कराई जानी हैं, तो दिल्ली सरकार को करीब 32,000 करोड़ रुपए की अतिरिक्त जरूरत पड़ेगी। इतनी पूंजी कहां से लाएगी दिल्ली सरकार? बजट में 60,000 करोड़ रुपए से अधिक का व्यय वेतन-भत्तों और पेंशन आदि पर हो जाता है। मौजूदा वित्त-वर्ष में बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए 5919 करोड़ रुपए से कुछ अधिक ही आवंटित किए जा सके हैं।

1993 के बाद पहली बार बजट में घाटा दिख रहा है। सरकार ‘आप’, भाजपा या कांग्रेस की बने, लेकिन तीनों ने जितनी ‘रेवडिय़ों’ की घोषणा कर रखी है, उन्हें मुहैया कराने को कमोबेश 25,000 करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। अद्र्धराज्य की सरकार इतने आर्थिक संसाधन कहां से लाएगी? भाजपा के लिए अब चुनावी वैचारिकता नेपथ्य में चली गई है। हर रोज एक नई ‘रेवड़ी’ की घोषणा या तो भाजपा करती है अथवा ‘आप’ करती है। ‘रेवडिय़ां’ ही चुनाव का आदर्श मॉडल बन गई हैं। दोनों पक्षों में होड़ मची है कि कौन आम आदमी को ज्यादा आलसी और नकारा बना सकता है? ‘रेवडिय़ों’ की इस संस्कृति के कारण ही तमिलनाडु पर सर्वाधिक 9 लाख करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज है। देश के सबसे बड़े राज्य, भाजपाशासित, उप्र पर कर्ज बढक़र 8.57 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो गया है। एक और बड़े राज्य, भाजपा-महायुति शासित, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई वाले राज्य, महाराष्ट्र का कर्ज भी 8 लाख करोड़ रुपए की ओर बढ़ रहा है। ये कर्जदार हालात सभी राज्यों के हैं। दिल्ली भी उसी जमात में शामिल हो गई है। जब देश के सभी राज्य कर्ज में डूब जाएंगे, तो आने वाले 15-20 सालों में देश भी दिवालिया हो सकता है! वैसे केंद्र सरकार की कलई तो खुल गई है कि उसे ब्याज चुकाने को भी कर्ज लेना पड़ा है। इस स्थिति के लोकतांत्रिक सिद्धांतों और अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर फलितार्थ होंगे। हमारे राजनीतिक दल और नेतागण आम आदमी को आलती-पालथी वाली जिंदगी जीने को बाध्य कर रहे हैं।


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