भाषा आंदोलन को याद करे बांग्लादेश
बांग्ला आवाम तथा ‘टावर हैमलेट्स काउंसिल’ ने मिलकर उस शहीद मिनार का जीर्णोद्धार किया। बांग्लादेश की राष्ट्रीय संसद के अध्यक्ष ‘हुमायूं रशीद चौधरी’ ने उस भाषायी विरासत के प्रतीक शहीद मिनार का अनावरण 17 फरवरी 1999 को किया था। ‘यूनेस्को’ ने 21 फरवरी को ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ घोषित किया था…
हिंदोस्तान के विभाजन से पूर्व ‘अलीगढ़ विश्वविद्यालय’ के कुलपति डा. ‘जियाउद्दीन अहमद’ ने एक बज्म में मश्विरा पेश किया था कि पाकिस्तान के वजूद में आने के बाद पाक की राजकीय भाषा ‘उर्दू’ होनी चाहिए। जियाउद्दीन की उस दलील के रद्देअमल में ढाका विश्वविद्यालय के बंगाली भाषाविद डा. ‘मुहम्मद शाहिदुल्लाह’ ने जवाब दिया था कि हमारे न्यायालयों व विश्वविद्यालयों में बंगाली भाषा के बजाय उर्दू या हिंदी का इस्तेमाल गुलामी के समान होगा। मुहम्मद शाहिदुल्लाह की उस तहरीर को ‘बांग्ला भाषा आंदोलन’ की तखलीक माना जाता है। शाहिदुल्लाह ने अखबारों के जरिए बांग्ला भाषा की हिमायत जारी रखी थी। विभाजन के बाद ढाका विश्वविद्यालय के बंगाली छात्रों ने आठ दिसंबर 1947 को बांग्ला जुबान को अपनी आधिकारिक भाषा घोषित करने की मांग कर दी तथा उस मांग को मनवाने के लिए ग्यारह मार्च 1948 को हड़ताल का ऐलान कर दिया। बंगाली छात्रों की वो कारकर्दगी पाकिस्तान के हुक्मरानों को नाग्वार गुजरी। उसी दौरान 21 मार्च 1948 को पाकिस्तान के गर्वनर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ढाका में तशरीफ ले गए तथा रामना रेसकोर्स मैदान में बांग्ला आवाम से मुखातिब हुए। दौराने तकरीर में जिन्ना ने फरमाया कि ‘मैं आपको स्पष्ट कर देता हूं कि पाकिस्तान की राजकीय भाषा उर्दू होगी। जो इसकी मुखालफत करेगा, वो पाकिस्तान का दुश्मन है।’
हालांकि उस ऐलान के छह महीने बाद सितंबर 1948 में जिन्ना का इंतकाल हो गया था। लेकिन जिन्ना द्वारा बांग्ला आवाम पर थोपी गई उर्दू जुबान की मुनादी ने बंगाली लोगों को अपनी मातृभाषा व अलग मुल्क बांग्लादेश के लिए जद्दोजहद का एहसास करा दिया था। 16 अक्तूबर 1951 को पाकिस्तान के प्रथम वजीरे आजम ‘लियाकत अली खान’ का ‘रावलपिंडी’ में कत्ल कर दिया गया था। उसके बाद मजहबी मिजाज के ‘ख्वाजा नजीमुद्दीन’ पाकिस्तान के वजीरे आजम बने। नजीमुद्दीन ने भी जनवरी 1952 में ढाका के पलटन मैदान में उर्दू को पाकिस्तान की राजकीय भाषा करार देकर मोहम्मद अली जिन्ना की उस तकरीर को पुख्ता कर दिया था। ख्वाजा नजीमुद्दीन के ऐलान का बंगाली छात्रों ने पुरजोर विरोध किया। जब एहतजाज हिंसा में तब्दील हुआ तो पाक हुकूमत ने पूर्वी पाक में 20 फरवरी 1952 को धारा 144 लागू कर दी। बांग्ला भाषा तहरीक में शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे ‘ढाका मेडिकल कालेज’ व ‘ढाका विश्वविद्याालय’ के छात्रों तथा ‘ऑल लैंग्वेज एक्शन कमेटी’ के लोगों पर पाक सुरक्षाबलों ने गोलीबारी करके कई छात्रों को हलाक कर दिया। आंदोलन में मारे गए छात्रों को खिराज-ए-अकीदत पेश करने के लिए बांग्ला लोगों ने 22 फरवरी 1952 को एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया था। मगर पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने धारा 144 के उल्लंघन का हवाला देकर दोबारा गोलीबारी करके कई प्रदर्शनकारियों को मौत के घाट उतार डाला था। ‘अमार भाई रोकटे रंगानों एकुशे फरवरी’ ये मकबूल बंगाली नगमा बांग्ला भाषा आंदोलन के दौरान पाक सेना की क्रूरता का शिकार हुए लोगों की याद में ही लिखा गया था। उस ‘एकुशेर गान’ के मुसन्निफ बांग्ला सहाफी ‘अब्दुल गफ्फार चौधरी’ ने वो नगमा पाक सेना की गोली से घायल हुए एक शख्स के पास बैठकर लिखा था। भाषा आंदोलन में पाक सेना की गोलीबारी का शिकार हुए लोगों को खिराजे अकीदत इसी नगमें के जरिए पेश की जाती रही है।
दिलचस्प बात ये है कि सन् 1952 के दौर में जब बांग्लादेश की आवाम पाक सेना से अपनी मातृभाषा व तहजीब के वजूद की जंग लड़ कर शहीद हो रही थी, उस वक्त पाकिस्तान के वजीरे आजम ख्वाजा नजीमुद्दीन खुद बांग्लादेशी थे। मगर वजीरे आजम के औहदे पर काबिज रहने की लालसा में नजीमुद्दीन अपनी बंगाली जुबान की हिमायत नहीं कर सके। ढाका में बांग्ला भाषा के लिए विरोध प्रदर्शन तथा उसी दौरान लाहौर में मजहबी दंगों से बिगड़े हालात पर काबू पाने में नजीमुद्दीन नाकाम रहे। नतीजतन पाकिस्तान के गवर्नर जनरल ‘मलिक गुलाम मोहम्मद’ ने अप्रैल 1953 में ख्वाजा नजीमुद्दीन को बर्खास्त कर दिया था। भाषा आंदोलन में पाक सुरक्षा बलों द्वारा हलाक किए गए लोगों की याद में ढाका में ‘शहीद स्मृतिस्तंभो’ मिनार सन् 1952 में ही तामीर कर दिया था। मगर पाक सेना ने उस शहीद मिनार को सन् 1952 में तथा 1971 के आपरेशन ‘सर्च लाइट’ के दौरान पूरी तरह नष्ट कर दिया था। बांग्ला आवाम तथा ‘टावर हैमलेट्स काउंसिल’ ने मिलकर उस शहीद मिनार का जीर्णोद्धार किया। बांग्लादेश की राष्ट्रीय संसद के अध्यक्ष ‘हुमायूं रशीद चौधरी’ ने उस भाषायी विरासत के प्रतीक शहीद मिनार का अनावरण 17 फरवरी 1999 को किया था। उसी वर्ष ‘यूनेस्को’ ने बंगाली भाषा आंदोलन को मान्यता देकर 21 फरवरी को ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ घोषित किया था। हालांकि 21 फरवरी 1956 को पाकिस्तान की ‘मजलिस-ए-शूरा’ ने भी उर्दू व बंगाली दोनों को पाकिस्तान की आधिकारिक भाषा मुस्तजाब कर दिया था। जबकि पाकिस्तान में उर्दू के बजाय पंजाबी भाषा का वर्चस्व है। विविधताओं के इतिहास से लबरेज उर्दू अदब की जुबान है।
अत: सभी भाषाओं का सम्मान होना चाहिए। लेकिन पाकिस्तान की मजहबी उल्फत में नाबिना होकर कट्टरपंथ की राह पर चल रहे बांग्लादेश के सियासी रहनुमां क्या पाक सेना द्वारा बांग्ला भाषा आंदोलन को कुचलने वाली कत्लोगारत की उस खौफनाक दास्तान को याद करेंगे। बहरहाल 21 फरवरी 1952 इतिहास में वो तारीख है, जब कलमा-ए-तौहीद की बुनियाद पर वजूद में आने का दावा करने वाले पाकिस्तान के खंडित होने की चिंगारी भडक़ी थी। बांग्ला भाषा आंदोलन पाकिस्तान के तकसीम का नुक्ता-ए-आगाज साबित हुआ। आजाद बांग्ला मुल्क व बांग्ला मातृभाषा का सपना देखने वाले बांग्लादेशियों की उस आरजू को भारत के हजारों सैनिकों ने अपना सर्वोच्च बलिदान देकर मुकम्मल किया था। 16 दिसंबर 1971 को ढाका का रामना रेसकोर्स मैदान पाकिस्तान के तकसीम का चश्मदीद गवाह बना था।
प्रताप सिंह पटियाल
स्वतंत्र लेखक
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