व्यंग्य : अबे ओ, चप्पू मीडिया वालो!

एक बात बताओ मीडिया वालो, यह तुम्हारे अपने एंकर लोग, उनकी तो छोड़ो जिन्हें तुम बाहर से बुलाते हो, और उनसे तक कहते हो कि भई हमारी टीआरपी का ख्याल रखना और जितना हम चीखें, उससे ज्यादा आप लोग चीखना। आपको इतना शोर मचाना है कि साले, हिंदुस्तानी घरों में (विदेशों के दर्शक समझदार हैं) बीवी और उसका घरवाला आपस में लडऩा भूल जाएं। भाई मेरी तो रोटी ही हजम नहीं होती लड़ाई किए बिना। अच्छा तरीका निकाला है घर में लड़ाई बंद करवाने का। इतने शोर में ढंग की लड़ाई होती है भला? लड़ाई करने के लिए भी शांति चाहिए होती है। है कि नहीं? यहां पर यह बताना जरूरी नहीं है कि शांति से लडऩे के लिए हम टीवी बंद कर सकते हैं, पर हम लड़ाई के दौरान टीवी बंद करना अक्सर भूल जाते हैं। भई, अब जब टीवी पर ही शानदार 8 लोगों का चालू टाइप झगड़ालू डिस्कशन चला हुआ है, तो नो डाउट, इससे घरों में लड़ाइयां कम तो हुई हैं। एक झगड़ा खत्म होगा तो न दूसरा शुरू होगा? पर भैया, बीवी को कौन समझाए कि पैनल वैनल डिस्कशन तुम्हारे समझने की चीज नहीं। तुम मोबाइल पर शॉपिंग करो। बस। सुन कर बीवी चिल्लाई- ‘कम क्यों नहीं करते हो इस शोर को। मुझे भी तो तुमसे बात करनी है।’ ‘तो करो ना, मैंने कब मना की।’ ‘करूंगी तो तब न जब कुछ सुनाई देगा।’ ‘सुनाई कैसे देगा, जब मैं कुछ बोला ही नहीं।’ ‘आवाज कम करो।’ ‘कम तो है और कितनी कम करूंगा।’ (आपको एक काम की बात बताऊं? अपना कान इधर लाइए जरा। और पास। अरे और पास। हां, अब ठीक है। तो सुनिए काम की बात। जब भी लगे बीवी लडऩे या फिर साड़ी लिपस्टिक मांगने के मूड में धमक पडऩे वाली है तो धीमे से रिमोट को घुमा कर अपने पीछे ले जाएं और तेज वॉल्यूम कर दें। फिर देखें कमाल। बीवी खुद ही पैर पटक पटक कर वापस चली जाएगी। कहेगी, हे भगवान बचाओ ऐसे पति से। जब देखो जब, पता नहीं, क्या लगा कर बैठ जाते हैं? यह नहीं कि कोई नाच गाने का प्रोग्राम लगा ले।) हां, तो मैं कह रहा था। थोड़ी देर में जब बीवी फिर आएगी तब दूसरे चैनल पर कोई और पैनल डिस्कशन चल लगा होगा। वही चीज। दरअसल चिल्लाने वाले सभी चैनलों का एक ही हाल है। अबे ओ चप्पू मीडिया वालो! बाहर वालों को तो तुम शोर मचाने की ट्रेनिंग देकर लाते हो, लेकिन तुम्हारा अपना खुद का एंकर, वह खिचड़ी बालों वाला या तन कर बैठी जेंट्स ड्रेस में वह खुले बाल वाली एंकर, कभी-कभी तो लगता है फालतू भडक़ा रहा है भाई लोगों को। कभी लगता है टीवी फाड़ कर बाहर आएगी या फिर आएगा। भई, अब अगर अगला अपनी बात सीधी तरह बोल रहा है तो उसे सीधी तरह से बोल लेने दो। जबरदस्ती उनके बीच में तुम लोग का एंकर क्यों घुसता है। नहीं समझ आता। और तो और उसमें भी जबरदस्ती के पेंच निकाल लेते हो। गजब है।
यही सिखाया गया है क्या तुम्हें, तुम्हारी मीडिया की पढ़ाई करते समय? तुम्हारे चिल्लाने से क्या दुनिया बदल जाएगी? जो बात आराम से की जा सकती है उसके लिए इतना चिल्लाने से तुम मीडिया वालो मुझे और दुनिया वालों को आज बता ही दो कि क्या फायदा होने वाला है देश का? अभी के अभी बताओ। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस महीने तुम जितना चिल्लाए या आमंत्रित लोगों को चिल्लाने के लिए मजबूर किया, उस महीने तुम्हें तुम्हारी लखटकिया नौकरी की तनखा उतनी ही बढक़र मिली। चलो, माना कि बड़ी ताकत है तुम्हारी मीडिया में। माना कि बड़ी से बड़ी सरकार को संसद से सडक़ पर तुम बखूबी पटक सकते हो। माना कि तुम आवश्यकता पडऩे पर दांडी मार्च पर भी निकल सकते हो। निकलना ही चाहिए लोकतंत्र में, कोई पत्रकार को अगर पीट दे तो। भई, किसी राजा के कब्जे में रहकर बैंड बजाने की नौकरी थोड़े ही है। सन 42 में तुमने हर कुछ कर डाला था। मंगल पांडे भी तुम थे। रामप्रसाद बिस्मिल भी। अशफाक उल्ला खान और भगत सिंह के भीतर भी जो एक मीडिया मेन बैठा था वह भी तुम ही थे। यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया न सही प्रिंट मीडिया यानी अखबार ही सही पर था तो वो भी मीडिया ही। पर तुम्हारा इलेक्ट्रोनिक मीडिया अब ये क्या कर रहा है? तुम्हीं ने विश्व सुंदरियां खड़ी कर दी। सिंगर खड़े कर दिए। मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिपस्टिक मंजन बेच बेच कर अपनी भद्द पिटवा डाली है। बाजार की दलाली तुम कितनी खूबसूरती से करते हो। वह भी यों कि दलाली को ही तुमने मीडिया का, राष्ट्र का चरित्र बना दिया है। कल तुमने जिस सरकार को धूल चटाई थी न, जनता समझदार थी। सरकार सत्तासीन हो गई। तुमने भी सांप की सी पलटी खाई और उसी सरकार के तलवे चाटने लगे। अबे, ओ मीडिया वालो, कल तक तुम्हारे पास एक हौंसला था। आसमान तक को जमीन पर उतार लाने का जज्बा भी। अब तुम बस उस जज्बे की बात करते हो उसे लागू करने की नहीं। बड़े-बड़े तुम्हारे टीवी एंकर पढ़ पढ़ कर लंबी लंबी हांकते रहते हैं।
ऐसा लगता है उनसे बड़ा ज्ञानी ध्यानी कोई नहीं इस देश में। जरा जनाब नीचे उतरो, होश में आओ, सही को सही और गलत को गलत कहने की तमीज सीखो, तुम्हारे भुन भुन करते वचन किसी घर के कुकर की सेफ्टी वाल्व के से होते हैं, पानी खत्म, ज्यादा स्टीम, मतलब छेद। चिल्ला चिल्ला कर अपना आक्रोश दिखाकर क्या मीडिया वालो तुम अपनी खो चुकी आजादी प्राप्त कर लोगे। पर तुम्हारी आजादी में कौनसी कमी है। हर कुछ तो बोलते रहते हो दिन भर। जो तुम्हें बोलना होता है। कई बार तो सोचना पड़ता है कि तुम कैसे इस कर्मकांडी लोकतंत्र को बर्दाश्त करते हो। साथ ही उस पर टिप्पणी भी करते हो। तुम खुद भी तो अपने ही लगाए लोकतंत्र के वृक्ष पर लगे इन बदबूदार फूलों की गंध में सांस ले रहे हो? क्या तुम्हारा फर्ज नहीं बनता कि उस बदबू से खुद भी निजात पाए और दूसरों को भी दें। क्या तुम्हें संविधान की आत्मा और उसका रुदन, उसकी सिसकन सुनाई नहीं पड़ती? अबे ओ मीडिया वालो! जरा बताना कि यह लोकतंत्र क्या एक कॉरपोरेट कंपनी है जिसके तुम मैनेजिंग डायरेक्टर या सीईओ बने बैठे हो? तुम किसी को ऊपर उठा देते हो, किसी को पटक मारते हो। जिसके मुद्दे पर एक्शन न लेना हो, उस पर चुप्पी साध लेते हो? कोई भी एक मामला जरा बताना मीडिया वालो जिसे तुमने अपने बूते पर सुलझाया हो। तुम्हें पता है? तुमसे नाराज होकर ही मैंने एक हफ्ते से टीवी नहीं खोला है। देखो घर में कितनी शांति है, हां यह जरूर है पिछले एक हफ्ते की कोई सूचना के चित्र दृश्य की जानकारी मेरे पास नहीं है। मगर करना भी क्या है? जब भी टीवी खोलो, पैनल डिस्कशन का शोर कानों में सीसा घोल रहा होता है।
इसलिए हे मीडिया वालो, मेरा बस यह अनुरोध है कि पैनल डिस्कशन करवाओ, अच्छी बात है। मगर लोकतंत्र की रक्षा के लिए, न कि उसका दुरुपयोग करने के लिए। हमारे कानों का भी जरा ख्याल रखा करो। शोर चाहे घर में हो रहा हो चाहे टीवी पर। शोर तो शोर ही है। हम दर्शक लड़ाई झगड़ा देखने के लिए एलईडी टीवी न लगवाए हैं जी। तुम अपने स्टूडियो में शांत रहो, हमें अपने घर में शांत रहने दो। प्यार से अपनी बात कहो और उगलवाओ। तब मैं भी प्यार से तुम मीडिया वालों से कह सकूं। हे मीडिया वालो, तुम्हें मेरा प्रणाम। न कि अबे ओ मीडिया वालो। देखो भाषा का संस्कार दिख रहा है कि नहीं? आज से अपना फंडा बदलो और समाज को परिवार को कुछ बेहतर परोसो। वरना हमारे बच्चे भी ऐसे ही तुम्हारे प्रायोजित बकवास पैनल टाइप डिस्कशन देख कर हमसे कहेंगे- ‘पापा, आजकल तो डिस्कशन का जमाना है। देखो, देखा नहीं टीवी पर कैसे सब अपनी बात कहते हैं। तो हम भी वैसे ही चिल्ला रहे हैं, तो क्या बुराई है?’ लो कल्लो बात। इसलिए अंत में, जय हो तुम्हारी हे मीडिया वालो, तुम्हारे बिना काम भी तो नहीं चलता। इसलिए अपनी टीआरपी की चिंता न करें। मैंने अपना टीवी चला लिया है। आप की टीआरपी खराब होने से बचा ली है। लेकिन आप हमारी मुहल्ले में टीआरपी, जब पड़ोसी आकर पूछते हैं कि आपके घर कोई झगड़ा हो रहा है क्या? तो हम कहते हैं- ‘नहीं जनाब टीवी चल रहा है। हमारे मुहल्ले की शांति को खराब होने से बचा लीजिए, प्लीज।’
मृदुला श्रीवास्तव
स्वतंत्र लेखिका
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