अलगाववादी सोच की उपज पाकिस्तान

यदि मजहब की तर्जुमानी करने वाले जिन्ना व इकबाल की द्विराष्ट्र सिद्धांत की सोच सही थी तो बलूचिस्तान, पीओके व सिंध की आजादी पर रायशुमारी होनी चाहिए। बहरहाल सन् 1971 में पूर्वी पाक को बांग्लादेश में तब्दील करके भारतीय सेना ने पाकिस्तान को द्विराष्ट्र सिद्धांत का एहसास पूरी शिद्दत से कराया था…

‘करदे फकत इशारा अगर शाहे खुरासान, सजदा न करूं भारत की नापाक जमीन पर’ अर्थात अगर तुर्की का खलीफा इशारा भी कर दे तो भारत की नापाक जमीन पर इबादत भी न करूं। पाकिस्तान के कौमी शायर ‘अल्लामा इकबाल’ ने अविभाजित हिंदोस्तान के दौर में 29 सितंबर 1930 को इलाहाबाद में आयोजित ‘मुस्लिम लीग’ के इजलास में अपनी इस हिकारत भरी नज्म का जिक्र करके भारत विरोधी नजरिए का इजहार सरेआम कर दिया था। बेशक तुर्की के खलीफा को आलम-ए-इस्लाम का एक बड़ा आलमगीर मानकर अल्लामा इकबाल ने शाहे खुरासान जैसी नज्म लिख फक्र महसूस किया था, मगर काबिलेगौर रहे इजरायल के हाइफा शहर में 23 सितंबर 1918 को भारत की ‘जोधपुर रियासत’ के राजपूत सैनिकों ने उसी तुर्की सल्तनत की चार सौ वर्षों की हुकूमत को अपनी तलवारों से ही खल्लास कर दिया था। मेजर ‘दलपत सिंह राठौर’ ‘मिलिट्री क्रॉस’ ‘द हीरो ऑफ हाइफा’ ने इजरायल को तुर्की की गुलामी से आजाद कराकर अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। सन् 1904 में ‘तराना ए हिंद’ ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तान हमारा’ की रचना भी अल्लामा इकबाल ने ही की थी। मगर उर्दू के नामवर शायर ‘सआदत हसन मंटो’ ने कहा था कि यदि ‘मजहब दिलों से निकल कर दिमाग पर चढ़ जाए तो जहर बन जाता है।’

तराना-ए-हिंद के रचयिता तथा प्रभु श्रीराम को ‘इमाम-ए-हिंद’ करार देने वाले अल्लामा इकबाल मजहबी कट्टरवाद का शिकार हो गए। अपनी किताब ‘कुल्लियाते इकबाल’ में अल्लामा ने जिक्र किया था कि उनका ताल्लुक कश्मीर के ‘सप्रू’ ब्राह्मण परिवार से था, मगर कुछ मजहबी रहनुमाओं से मुतासिर होकर उन्होंने इस्लाम अपना लिया था। इकबाल ने सन् 1910 में ‘तराना-ए-मिल्ली’ लिखकर भारत विभाजन के मंसूबे जाहिर कर दिए थे। भारत की आजादी के लिए शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में तख्ता-ए-दार पर झूल गए थे। 23 मार्च का दिन भारत में शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इंकलाबी युवा हिंदोस्तान की आजादी के लिए शहीद हो रहे थे, मगर कुछ जमातें भारत विभाजन के मंसूबों में मशगूल थीं। 23 मार्च 1940 को लाहौर के मिंटो पार्क में ‘मोहम्मद अली जिन्ना’ की कयादत में ‘आल इंडिया मुस्लिम लीग’ का इजलास हुआ, जिसमें ‘लाहौर संकल्प’ यानी ‘करारदात-ए-लाहौर’ पारित करके मजहब के आधार पर अलग मुल्क पाकिस्तान की मांग की गई थी। लाहौर करारदात की याद में 23 मार्च को यौम-ए-पाकिस्तान मनाया जाता है। यदि इतिहास के पन्ने खंगालें तो भारत को खंडित करके पाकिस्तान का तसव्वुर करने वाले अल्लामा इकबाल के साथ और भी कई किरदार बेनकाब होंगे। जम्मू-कश्मीर रियासत में हंदवाड़ा कस्बे के सहाफी ‘सैयद गुलाम शाह काजमी’ ने जुलाई 1928 में एबटाबाद में ‘पाकिस्तान’ नाम से उर्दू में साप्ताहिक अखबार के संपादन के लिए दरख्वास्त दायर की थी। लंबी जद्दोजहद के बाद सन् 1936 में गुलाम शाह का पाकिस्तान अखबार एबटाबाद से नसर हुआ, जिसके चलते पाकिस्तान नाम ज्यादा मकबूल हुआ। हालांकि पाकिस्तान अखबार सन् 1938 को बंद कर दिया गया था। ‘चौधरी रहमत अली’ ने जनवरी 1933 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से प्रकाशित अपनी एक पाम्पलेट, जिसका शीर्षक ‘नाऊ एंड नेवर’ था, उसमें ‘पाकिस्तान’ लफ्ज का जिक्र करके पाकिस्तान का नक्शा भी उकेर दिया था।

रहमत अली ने सन् 1934 में पाकिस्तान का मश्विरा मोहम्मद अली जिन्ना को दिया, मगर भारत विभाजन में जिन्ना की कारकर्दगी से रहमत अली इस कदर बरहम हुए कि जिन्ना को ‘कायद-ए-आजम’ के बजाय ‘गद्दार-ए-आजम’ कह दिया। नतीजतन पाक वजीरे आजम ‘लियाकत अली’ की हुकूमत ने रहमत अली की संपत्ति छीन कर उन्हें पाकिस्तान छोडऩे का फरमान जारी कर दिया था। लफ्ज-ए-पाकिस्तान की तखलीक करने वाले चौधरी रहमत अली तीन फरवरी 1951 को ब्रिटेन में फौत हो गए। ‘बान-ए-तहरीक-ए-पाकिस्तान, खालिक एक लफ्ज पाकिस्तान’ ये अल्फाज कैम्ब्रिज में रहमत अली की कब्र पर अंकित हैं। अर्थात् पाकिस्तान तहरीक के संस्थापक व पाकिस्तान लफ्ज के निर्माता। लेकिन पाकिस्तान लफ्ज के मुसन्निफ रहमत अली के ताबूत को पाकिस्तान में कब्रिस्तान नसीब नहीं हुआ। मय्यत को कंधा देने कोई पाकिस्तानी नहीं गया था। ‘मुफ्फिकर-ए-पाकिस्तान’ अल्लामा इकबाल की निगाहें नए मुल्क पाकिस्तान के हसरत-ए-दीदार से महरूम रह गईं। सिंध, बलूचिस्तान, पंजाब व अफगान ‘सूबा-ए-सरहद’ को मिलाकर पाकिस्तान बनाने का ख्वाब देखने वाले अल्लामा इकबाल का इंतकाल 21 अप्रैल 1938 को ही हो गया था। द्विराष्ट्र सिद्धांत की वकालत करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के वजूद में आने के एक वर्ष बाद सितंबर 1948 को फौत हो गए। पाकिस्तान अखबार के संपादक गुलाम शाह काजमी की सितंबर 1984 में गुमनामी में ही मौत हो गई। रहमत अली, इकबाल व जिन्ना जैसे लोगों का तर्क था कि जब तक मजहब के आधार पर अलग मुल्क वजूद में नहीं आएगा, अमन कायम नहीं होगा।

मौजूदा दौर में आतंक की दारुल हुकूमत पाकिस्तान व मजहबी कट्टरपंथ का मरकज बन चुके बांग्लादेश में कितना अमन है, यह पूरी दुनिया के सामने है। यदि मजहब की तर्जुमानी करने वाले जिन्ना व इकबाल की द्विराष्ट्र सिद्धांत की सोच सही थी तो बलूचिस्तान, पीओके व सिंध की आजादी पर रायशुमारी होनी चाहिए। बहरहाल सन् 1971 में पूर्वी पाक को बांग्लादेश में तब्दील करके भारतीय सेना ने पाकिस्तान को द्विराष्ट्र सिद्धांत का एहसास पूरी शिद्दत से कराया था, मगर अफसोस कि अल्लामा इकबाल, रहमत अली, जिन्ना व सिकंदर हयात खान जैसे लोग पाकिस्तान की तकसीम को अपनी चश्म-ए-पलक से नहीं देख सके। राष्ट्र को भाषा, जाति, मजहब व तहजीब के आधार पर खंडित करने की अलगाववादी सोच रखने वाले सियासी रहनुमाओं को पाकिस्तान के हालात से मुखातिब होकर सबक लेना होगा।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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